विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के जेएनसीएएसआर द्वारा किये गये एक भारतीय अध्ययन को पारिस्थितिकी एवं उदभव के क्षेत्र में ’प्रजातियों की उत्पत्ति’ से शुरू होने वाली महत्वपूर्ण खोजों के बीच जगह मिली
डिजिटल डेस्क, दिल्ली। भारतीय शोधकर्ताओं ने 1859 में ‘प्रजातियों की उत्पत्ति के बारे में’ चार्ल्स डार्विन की खोज से शुरू होकर पिछले 160 वर्षों में पारिस्थितिकी एवं उदभव के क्षेत्र में हुए पैंसठ महत्वपूर्ण खोजों में से एक में अपना योगदान दिया है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के एक स्वायत्त संस्थान जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर) के इवोल्यूशनरी एंड ऑर्गेनिस्मल बायोलॉजी यूनिट द्वारा 2003 में किये गये एक अध्ययन, को प्रो. लारेंस डी. म्यूलर, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया, इरविन द्वारा लिखित तथा एल्सेवियर द्वारा हाल ही में प्रकाशित "कॉन्सेप्चुअल ब्रेकथ्रूज़ इन इवोल्यूशनरी इकोलॉजी" नामक एक पुस्तक में शामिल किया गया है। जेएनसीएएसआर का यह शोध अध्ययन, किसी गैर-पश्चिमी देश का एकमात्र ऐसा अध्ययन है जिसे इस संग्रह में जगह मिली है। यह अध्ययन इस सैद्धांतिक भविष्यवाणी का पहला प्रायोगिक सत्यापन था कि जनसंख्या की स्थिरता प्राकृतिक चयन के गौण उत्पाद के रूप में उभर सकती है, जो जीवन-इतिहास के उन लक्षणों का पक्ष ले जिसका जनसंख्या के गतिशील व्यवहार को सीधे प्रभावित करने वाले अन्य लक्षणों के साथ लेन - देन हो। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि एक आबादी का एक ऐसी पारिस्थितिकी में वास होता है जिसमें तेजी से प्रजनन परिपक्वता विकसित करना बहुत फायदेमंद होता है, भले ही यह बाद में संतानोत्पत्ति की क्षमता को कम कर दे। ऐसी स्थिति में, परिपक्वता के लिए तेज विकास के चयन हेतु एक गौण उत्पाद के तौर पर यह जनसंख्या घटी हुई संतानोत्पत्ति दर विकसित कर सकती है। बदले में, कम संतानोत्पत्ति की यह दर अपेक्षाकृत स्थिर जनसंख्या की स्थिति को जन्म देगी। 1980-90 के दशक में, कई प्रजातियों की आबादी में आम तौर पर अपेक्षाकृत स्थिरता देखने वाले सामान्य निष्कर्ष ने विकासवादी पारिस्थितिकी के क्षेत्र में एक पहेली खड़ी कर दी। प्राकृतिक चयन के सिद्धांत की एक सरल भविष्यवाणी ने यह सुझाव दिया कि अन्य सभी के समान होने के कारण विकास प्रक्रिया को उच्च संतानोत्पत्ति दर के पक्ष में होना चाहिए। हालांकि 1970 के दशक में, सैद्धांतिक पारिस्थितिकविद् रॉबर्ट मे के मौलिक शोध में यह दिखाया गया कि वैसी आबादी जिसमें लोग बड़ी संख्या में संतान पैदा करते हैं, वे आमतौर पर अस्थिरता का प्रदर्शन करती हैं। इसका मतलब यह हुआ कि उनकी संख्या में समय के साथ बहुत उतार-चढ़ाव आएगा। लिहाज़ा, अगर प्राकृतिक चयन ने उच्चतर संतानोत्पत्ति दर का पक्ष लिया, तो अधिकांश आबादी अस्थिर एवं उतार–चढ़ाव वाली गतिशीलता से लैस होगी। फिर भी, अनुभवजन्य अध्ययन से पता चला है कि विभिन्न प्रजातियों की कई वन्य एवं प्रयोगशालाजन्य आबादी ने वास्तव में काफी स्थिरता दिखाई है। सैद्धांतिक कार्य ने यह सुझाया कि जनसंख्या की स्थिरता को बढ़ावा देने वाला एक कारक डार्विनियन फिटनेस से जुड़े लक्षणों के बीच लेन – देन होना हो सकता है। यह ठीक वैसी ही प्रक्रिया थी जैसाकि जेएनसीएएसआर में प्रो. अमिताभ जोशी के समूह, जिसमें एन जी प्रसाद, सुतीर्थ डे और मल्लिकार्जुन शकरद (अब क्रमशः आईआईएसईआर मोहाली, आईआईएसईआर पुणे तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक) शामिल हैं, ने जीव विज्ञान के अपने 2003 के शोध - पत्र में और फिर प्रोसीडिंग्स ऑफ़ द रॉयल सोसाइटी ऑफ लंदन : बायोलॉजिकल साइंसेज के पूरक पत्र में प्रयोगात्मक रूप से दर्शाया था । इसके लिए, उन्होंने फलों के कीड़ों की वैसी आबादी का उपयोग किया जिन्हें 100 से अधिक पीढ़ियों तक तेजी के साथ अंडे से वयस्क विकास के लिए प्रयोगशाला में चुना गया था। एक काफी घाटी हुई लार्वा चरण के उभरने के कारण इस आबादी ने शरीर के अपेक्षाकृत छोटे आकार एवं कम मादा उत्पादकता को जन्म दिया। इस समूह ने तब इस आबादी का उपयोग एक वैसे प्रयोग में किया, जहां अस्थिर गतिशीलता को प्रेरित करने के लिए ज्ञात पौष्टिक वातावरण में उनकी आबादी के आकार की हर पीढ़ी में निगरानी की गयी। उन्होंने दिखाया कि तेजी से विकसित हो रही आबादी वास्तव में अपनी पैतृक नियंत्रित आबादी की तुलना में अधिक स्थिरता प्राप्त कर चुकी थी। संयोग से, इन तेजी से विकसित होने वाली फलों के कीड़ों की आबादी ने अब चयन की 800 पीढ़ियों (23 वर्ष) को पूरा कर लिया है।
Created On :   24 Sept 2020 2:11 PM IST