परमात्मा को समर्पित कर श्रद्धायुक्त कर्म ही भक्ति

Devotional devotion is devoted to god says ambareesh maharaj
परमात्मा को समर्पित कर श्रद्धायुक्त कर्म ही भक्ति
परमात्मा को समर्पित कर श्रद्धायुक्त कर्म ही भक्ति

डिजिटल डेस्क, नागपुर ।  वेद और शास्त्रों ने कभी भी निष्क्रिय रहने को नहीं कहा। सदैव परिश्रम करते रहने का संदेश दिया है। भक्ति का अर्थ केवल कर्म ही है। परमात्मा को समर्पित कर किया गया कर्म ही भक्ति है। भगवान ने भक्तों से कभी कुछ नहीं मांगा। मांगी है तोे सदैव भक्ति ही मांगी है। उक्त उद्गार श्री राधा वल्लभ नेह परिकर व श्री अग्रसेन मंडल सुरभि के संयुक्त तत्वावधान में संतवाणी कथा सत्संग के दौरान हित अंबरीश महाराज ने कहे।

संतवाणी कथा सत्संग का आयोजन भास्कर व्यास मैदान, पूर्व वर्धमान नगर में किया गया था। संतवाणी के अंतिम दिवस महाराजश्री ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास मानस में कहते हैं कि ‘बार-बार वर मांगउं, हरषि देहु श्रीरंग, पद सरोज अनुपाइनी भगति सदा सत्संग’।  अर्थात् गोस्वामी जी बारम्बार वर मांगकर प्रभु चरणों की भक्ति और सत्संग मांगते हैं। भक्ति का अर्थ अकर्मण्यता नहीं है। वेद कहते हैं ‘चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति निरंतरम्’। अर्थात निरंतर चलते रहो। तुलसीदास कहते हैं ‘मांगन गए सो मर गए’। कबीरदास प्रभु से कुछ नहीं मांगते।

कबीरदास कहते हैं ‘साईं इतना दीजिए जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए’। अर्थात संत की सिर्फ यही कामना है कि मेरे घर से साधु भूखा न जाए। मांगना भी है तो कबीर कहते हैं ‘मांगू संतन रैना’। अर्थात संतों के पैरों की धूल। अंबरीशजी ने युवा मित्रों को संबोधित करते हुए कहा कि सीखना है तो ‘आर्ट आॅफ लिविंग’ कबीरदास जी से सीखिए। कबीर कहते हैं कि लेने वाले से मैं चाहूं तो सब कुछ ले लूं। मेरे सामने तो त्रिभुवन का स्वामी खड़ा है, पर मांगना नहीं है। मैं याचना क्यों करूं, क्योंकि याचना भक्तों का धर्म नहीं है। श्रद्धा युक्त कर्म करना चाहिए। जब आप प्रभु के निमित्त कर्म करते हैं तो वही भक्ति है।

अंबरीशजी महाराज ने कहा कि आप स्वयं को साधने के लिए ही इस दुनिया में आए हैं। आपके पास स्वयं को और ईश्वर को जानने की संभावना है। आध्यात्मिक संभावनाओं की दृष्टि से मुझमें और आप के बीच ईश्वर प्राप्ति की संभावना और योग्यता एक सी है। आध्यात्मिक पात्रता में हम सब एक समान हैं। इसी संभावना को वास्तविकता में बदलना हमारे जीवन का लक्ष्य है। सत्संग में आकर यही तो सीखना है कि जो भी करना है ईश्वर के प्रीत्यर्थ  करना है। अपने कर्म ईश्वर को समर्पित करें तो आपका कोई भी कार्य अनुचित नहीं होगा। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि जो भी करते हैं वह या तो स्वार्थ है या परमार्थ है, बीच का कुछ भी नहीं है। गीता में कहा है ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’। अर्थात हमें केवल कर्म करना है। श्री कृष्ण कहते हैं सत्य का मार्ग बड़ा अंधकारमय है, लेकिन बहुत सुंदर है। 
 

Created On :   3 Feb 2020 11:53 AM IST

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