एल्गार परिषद मामले के सात आरोपियों की जमानत का सरकार-एनआईए ने किया विरोध

Government-NIA opposes bail of seven accused in Elgar Parishad case
एल्गार परिषद मामले के सात आरोपियों की जमानत का सरकार-एनआईए ने किया विरोध
फैसला सुरक्षित एल्गार परिषद मामले के सात आरोपियों की जमानत का सरकार-एनआईए ने किया विरोध

डिजिटल डेस्क, मुंबई। राज्य सरकार व राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने बुधवार को भीमा-कोरेगांव के एल्गार परिषद मामले से जुड़े सात आरोपियों की जमानत का विरोध किया है। जिन आरोपियों की जमानत का विरोध किया गया है उनमें रोना विल्सन, शोमा सेन, अरुण फरेरा, वरनन गोंसल्विस, सुरेंद्र गडलिंग, सुधीर धवले व महेश राऊत का नाम शामिल है। इन सभी आरोपियों ने अपने आवेदन में दावा किया है कि पुणे की जिस सत्र न्यायालय के न्यायाधीश उनके खिलाफ दायर आरोपपत्र का  साल 2019 में संज्ञान लिया था। उनके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं था। इसलिए इस तकनीकि आधार पर उन्हें डिफाल्ट जमानत दी जाए। बुधवार को आरोपी सुधीर धवले की ओर से पैरवी कर रहे अधिवक्ता सुदीप पासबोला ने न्यायमूर्ति एसएस शिंदे व न्यायमूर्ति एनजे जमादार की खंडपीठ के सामने कहा कि मेरे मुवक्किल के खिलाफ अवैध गतिविधि प्रतिबंधक कानून(यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया गया है। इसलिए सिर्फ विशेष अदालत इस मामले को देख सकती है न की सामान्य सत्र न्यायालय। लेकिन मेरे मुवक्किल के खिलाफ दायर आरोपपत्र का संज्ञान सत्र न्यायालय के न्यायाधीश ने लिया है। जो की नियमों के तहत नहीं है। वहीं राज्य के महाधिवक्ता आशुतोष कुंभकोणी ने कहा कि सितंबर 2018 में पुणे कोर्ट ने पुलिस को इस मामले में आरोपपत्र दायर करने के लिए 90 दिन का अतिरिक्त समय दिया था। आरोपपत्र तय अवधि में दायर किया गया है। इसलिए आरोपी डिफाल्ट जमानत पाने के हकदार नहीं है। इस तरह से उन्होंने आरोपियों की जमानत का विरोध किया। वहीं एनआईए की ओर से पैरवी कर रहे एडिशनल सालिसिटर जनरल अनिल सिंह ने कहा कि इस मामले में सत्र न्यायालय द्वारा आरोपपत्र का संज्ञान लेने से आरोपी जमानत के लिए पात्र नहीं हो जाते है। मामले से जुड़े सभी पक्षों को सुनने के बाद खंडपीठ ने अपना फैसला सुरक्षित कर लिया। 
 

रिश्वतखोरी के मामले में आरोपी को दोषी ठहराने घूस की मांग का प्रमाण जरुरी-हाईकोर्ट

वहीं घूस की रकम की मांग को लेकर कोर्ट ने कहा कि पर्याप्त प्रमाण के बिना आरोपी को रिश्वतखोरी के मामले में दोषी ठहराए जाने के निर्णय को कायम नहीं रखा जा सकता है। फिर भले ही क्यों न घूस की रकम आरोप के पास क्यों न मिली हो। बांबे हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में इस बात को स्पष्ट किया है। हाईकोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार प्रतिबंधक कानून के तहत घूसखोरी से जुड़े मामले में आरोपी को दोषी ठहराने के लिए घूस की रकम के मांग का पर्याप्त प्रमाण होना जरुरी है। बिना ऐसे प्रमाण के इस तरह के मामले में आरोपी को दोषी ठहराए जाने के फैसले को कायम नहीं रखा जा सकता है। न्यायमूर्ति भारती डगारे ने यह बाते कहते हुए मुंबई महानगर पालिका  के तीन इंजीनियरों व दो अन्य आरोपियों को भ्रष्टाचार के मामाले में दोषी ठहराने के विशेष अदालत के फैसले को रद्द कर दिया है। और उन्हें मामले से बरी कर दिया है। जिन आरोपियों को इस मामले में राहत मिली है उनके नाम सुनील राठौड,विलास कुलकर्णी व बलाजी बिराजदार है। इन आरोपियों पर रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट के लिए आईओडी जारी करने के लिए 10 से 15 लाख रुपए घूस मांगने का आरोप था। निचली अदालत ने इस मामले में आरोपियों को दोषी ठहराते हुए तीन से चार साल के कारावास की सजा सुनाई थी। जिसे आरोपियों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति ने अपने फैसले में कहा है कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामले में शिकायतकर्ता के दावे को काफी बरीकी से परखा जाना चाहिए। क्योंकि घूस देना भी अपराध है। सिर्फ घूस की मांग को शिकायतकर्ता के दावे के आधार पर  रिश्वतखोरी का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। इसलिए सिर्फ आरोपी के पास से घूसखोरी की रकम मिली है इस आधार पर उसे भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराए जाने के निर्णय को कायम नहीं रखा जा सकता है। अभियोजन पक्ष आरोपी पर लगे आरोपों को साबित करने में विफल रहा है। इस मामले में घूसखोरी की मांग के सत्यापन किए जाने का भी अभाव दिखता है। इसके अलावा इस प्रकरण में शिकायतकर्ता की गवाही में काफी कमियां है। इसलिए मामले से जुड़े आरोपियों को बरी किया जाता है।

Created On :   1 Sept 2021 8:48 PM IST

Tags

और पढ़ेंकम पढ़ें
Next Story