अदालत में सरकारी कर्मचारी का मुकर जाना अनैतिक, पर इसे कदाचार नहीं मान सकते

Government servants retraction in court is immoral, but it cannot be considered as misconduct
अदालत में सरकारी कर्मचारी का मुकर जाना अनैतिक, पर इसे कदाचार नहीं मान सकते
बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदेश में किया स्पष्ट अदालत में सरकारी कर्मचारी का मुकर जाना अनैतिक, पर इसे कदाचार नहीं मान सकते

डिजिटल डेस्क,  औरंगाबाद । बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ ने हाल ही में दिए गए निर्णय में यह मान्य किया कि एक सरकारी कर्मचारी का आपराधिक मुकदमे में मुकर जाना अनैतिक हो सकता है, लेकिन यह कदाचार की श्रेणी में नहीं आता है। अदालत ने कहा कि मुकदमे के दौरान उनकी गवाही के दौरान सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए बयान से मुकर जाने को अनैतिक कार्य के रूप में माना जा सकता है जिसकी एक आदर्श सरकारी कर्मचारी से उम्मीद नहीं की जा सकती। हालांकि, यह कदाचार का मामला नहीं है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि इस तरह के हर कृत्य को विभागीय रूप से भी दंडित नहीं किया जा सकता। इसके लिए झूठी गवाही के अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने पर, नियुक्ति प्राधिकारी को बिना किसी विभागीय जांच के दोषी ठहराए जाने के आधार पर उसे दंडित करने का अधिकार है। जस्टिस मंगेश एस. पाटिल और जस्टिस संदीप वी. मार्ने की पीठ ने आगे कहा कि उन्होंने झूठी गवाही का अपराध किया था या नहीं, यह केवल सत्र न्यायाधीश द्वारा स्थापित किया जा सकता है। इसे अनुशासनात्मक जांच में स्थापित नहीं किया जा सकता है। नियुक्ति प्राधिकारी, विशेषज्ञ नहीं होने के कारण, गवाह के मुकर जाने के कारकों को मापने की स्थिति में नहीं होगा।
 
यह है प्रकरण
अदालत अब्दुल रऊफ मोहम्मद खाजा बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में एक रिट याचिका पर विचार कर रही थी जिसमें सत्र अदालत में मुकदमे के दौरान मुकरने के लिए याचिकाकर्ता के दंड को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता कलेक्टर कार्यालय नांदेड़ में कार्यरत चपरासी है। सत्र न्यायालय में एक अन्य चपरासी के खिलाफ मुकदमे में गवाही देते हुए वह मुकर गया। आरोपी को बरी कर दिया गया।

अधिकारियों ने उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की और उस पर शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने का आरोप लगाया। अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने उसे दोषी पाया और जुर्माना लगाया। अपीलीय प्राधिकारी ने दंड को बरकरार रखा और पुनरीक्षण प्राधिकारी ने भी उसकी पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया। उस पर लगाया गया अंतिम दंड स्थायी आधार पर न्यूनतम वेतनमान में भी कमी करना था। महाराष्ट्र प्रशासनिक न्यायाधिकरण (मैट) ने इस दंड को बरकरार रखा। इसलिए याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
 
वकीलों ने दी दलील
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील सुनील वी. कुरुंदकर ने प्रस्तुत किया कि केवल सत्र न्यायाधीश के समक्ष गवाही देने से कदाचार नहीं हो सकता। इसके अलावा, याचिकाकर्ता की गवाही से ही आरोपी को बरी नहीं किया जा सका। सहायक सरकारी वकील केएन लोखंडे ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता ने आरोपी को पीड़िता को छत से धक्का देते हुए देखा था। उनका बयान सीआरपीसी की धारा 164 के तहत विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया था। याचिकाकर्ता के मुकर जाने के कारण आरोपी को बरी कर दिया गया।
 
काम सही नहीं, पर दंडित करना भी मुश्किल
अदालत ने कहा कि झूठी गवाही देना भारतीय दंड संहिता की धारा 191 के तहत दंडनीय अपराध है और कानून झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति को दंडित करने के लिए एक पूर्ण तंत्र प्रदान करता है। बयान में कहा गया कि, मुकदमा करना अपने आप में कोई अपराध नहीं है। झूठी गवाही का निष्कर्ष दर्ज करने के लिए सक्षम एकमात्र न्यायालय सत्र न्यायाधीश था।

अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता की गवाही पर विचार करने के बाद, सत्र न्यायाधीश ने आईपीसी की धारा 191 के तहत याचिकाकर्ता पर झूठी गवाही का मुकदमा नहीं चलाने का फैसला किया है। इसलिए, सत्र न्यायाधीश के समक्ष गवाही देने के कृत्य को कदाचार के रूप में रखना और याचिकाकर्ता को उसी के लिए दंडित करना मुश्किल है।
 
हां! जिम्मेदारी व नैतिकता की उम्मीद टूटी
कोर्ट ने आगे कहा, "कोई नैतिक रूप से एक गवाह से मुकदमे के दौरान अपने पिछले बयान के साथ खड़े होने की उम्मीद कर सकता है। एक सरकारी कर्मचारी के लिए, पहले दर्ज किए गए बयान पर चिपके हुए अभियुक्तों के घर अपराध को लाने के लिए अभियोजन पक्ष की सहायता करके एक उच्च स्तर की जिम्मेदारी की उम्मीद की जा सकती है।'
कोर्ट ने कहा कि सवाल यह है कि क्या इस उम्मीद को बढ़ाया जा सकता है ताकि मुकरने का कार्य एक कदाचार बन जाए जिसे दंडित किया जाना चाहिए। आरोपी ने सवाल का नकारात्मक जवाब दिया और इसलिए हम पाते हैं कि याचिकाकर्ता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करना पूरी तरह से अनुचित है।
 
जुर्माना अनुचित, अनुशासनात्मक कार्यवाही भी रोकें
अदालत ने सत्र न्यायालय के उस फैसले का भी अवलोकन किया जिसमें न्यायाधीश ने कहा था कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत याचिकाकर्ता का बयान उचित प्रक्रिया के अनुसार दर्ज नहीं किया गया था और अभियुक्त के खिलाफ सबूत दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं थे। इस प्रकार, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि अकेले याचिकाकर्ता की दुश्मनी के कारण आरोपी को बरी नहीं किया गया था।

कोर्ट ने कहा, "इसके अलावा यह बहुत ही सामान्य बात है कि एक पक्षद्रोही गवाह की गवाही को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए आरोपी के बरी होने का श्रेय केवल याचिकाकर्ता की गवाही को नहीं दिया जा सकता है।' अदालत ने एमएटी, औरंगाबाद के निर्णयों के साथ-साथ अनुशासनात्मक प्राधिकारी, अपीलीय प्राधिकारी और पुनरीक्षण प्राधिकारी के निर्णयों को रद्द कर दिया। अदालत ने निर्देश दिया कि जुर्माने के इन आदेशों को रद्द करने से उत्पन्न होने वाले सभी लाभों का भुगतान याचिकाकर्ता को चार महीने के भीतर किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा, "यह दोनों ही मामलों में है, आईपी कोड की धारा 191 के तहत याचिकाकर्ता के मुकदमे के अभाव में अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने की अनुमति नहीं है और याचिकाकर्ता पर लगाया गया जुर्माना अनुचित है।'
 

Created On :   25 Oct 2022 9:47 AM GMT

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