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मडावी ने आदिवासियों की संस्कृति को बताया सबसे अलग
डिजिटल डेस्क, गोंदिया। आदिवासी समाज की प्रथा देखी जाए तो इससे हिंदू धर्म का कोई संबंध नहीं है। आदिवासियों का अपनी अलग संस्कृति है। वर्ष 1871 से 1951 में अंगरेजों के काल में व उसके बाद के काल में भारत में हुई जनगणना में आदिवासियों की गणना अन्य धर्मों से अलग धर्म के तौर पर की गई। आदिवासियों की जीवनशैली, उनके संस्कार, संस्कृति, त्यौहार, उपासना, पूजा पद्धति, पूजा स्थान सभी अलग है। उक्ताशय के उद्गगार बिरसा क्रांति दल के संस्थापक अध्यक्ष दशरथ मड़ावी ने व्यक्त किए। ग्राम हलबीटोला में बिरसा क्रांति दल, संविधान मैत्री संघ, रानी दुर्गावती महिला मंडल, आदिवासी भाषा संशोधन संस्था, हम सिद्ध लेखिका सामाजिक संगठनों के संयुक्त तत्वावधान में हाल ही में आयोजित संविधान दिन जागृति सप्ताह अंतर्गत आदिवासी मूल निवासी समाज जागृति सम्मेलन में वे बोल रहे थे। आिदवासी समाज अपनी संस्कृति के लिए जाना जाता है। भाषा,नृत्य, रहन-सहन आिद की झलक आदि उनके द्वारा मनाए जानेवाले उत्सवों और त्यौहारों में देखने को मिल जाती है। माता चौक हलबीटोला गोंदिया में विविध सामाजिक संस्था की ओर से आयोजित जागृति कार्यक्रम में समता, स्वतंत्रता, बंधुता व न्याय इस मानवी मूल्यों पर आधारित, संत गुरु महामानव के मानवतावादी विचारों पर रची गई। इस अवसर पर डी.एस. मेश्राम, गिरिजा उइके, प्रा.डा. दिशा गेडाम, डी.बी. अंबुरे, विष्णु कोवे, अतुल कोवे, वनिता चिचाम, शोभा कुसराम, गीता तुमडाम, बिंदू कोडवते, हेमलता आहाके, योगिता गेडाम, वनिता सलामे, लता मडावी, सरिता भलावी, मनीषा कुंभरे आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन मालती किन्नाके ने किया। आभार प्रा.डॉ. दिशा गेडाम ने माना। कार्यक्रम की सफलतार्थ लोकेश कुसराम, सुमित उईके, पंकज कुंभरे, हिमांशु आहाके आदि ने प्रयास किया।
Created On :   2 Dec 2021 5:33 PM IST