सोयाबीन का विकल्प बना स्वदेशी मक्का - 90 प्रतिशत घट गया सोयाबीन का रकबा

Soybean substitutes become indigenous corn - 90 percent area under soybean
सोयाबीन का विकल्प बना स्वदेशी मक्का - 90 प्रतिशत घट गया सोयाबीन का रकबा
सोयाबीन का विकल्प बना स्वदेशी मक्का - 90 प्रतिशत घट गया सोयाबीन का रकबा

 डिजिटल डेस्क शहडोल । सोयाबीन से किसानों का मोह भंग हो रहा है और यही कारण है कि सोयाबीन का रकबा 90 प्रतिशत घट गया है। किसान अब स्वदेशी की तरफ लौट रहे हैं। मक्का अब बाड़ी से निकलकर खेतों की शान बन रहा है और यही कारण है कि इस वर्ष मक्का का रकबा बढ़ा है। किसान मक्के की फसल को सोयाबीन के विकल्प के रूप में देख रहे हैं। किसान चाहते हैं कि सरकार अब मक्के को भी समर्थन मूल्य पर खरीदे ताकि वे समृद्ध बने सकें।
बाड़ी से निकलकर मक्का अब किसानों की किस्मत बदलने खेतों तक जा पहुंचा है। जिले के पांच हजार से अधिक किसानों ने इस बार लगभग 10 हजार हेक्टेयर में मक्के की फसल बोई है। जबकि पहले 1-2 हजार हेक्टयेर में ही मक्के की बोवनी की जाती थी। दरअसल मक्के को किसान सोयाबीन के विकल्प के रूप में देख रहे हैं। अभी तक किसान 15 हजार हेक्टेयर से अधिक रकबे में सोयाबीन की फसल उगाते थे लेकिन पिछले 4-5 सालों से सोयाबीन में किसानों को लगातार घाटा होने लगा। हालत यह हो गई थी कि लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा था। घाटे की भरपाई के लिए किसानों ने विदेश से आई सोयाबीन की फसल को छोड़कर पूर्णत: स्वदेशी मक्का की खेती इस वर्ष से शुरूकर दी है। इसके चलते अब सोयाबीन का रकबा 80 से 90 प्रतिशत तक कम हो गया है। जिले में सिंहपुर क्षेत्र के अलावा अमरहा, भमरहा, पतखई, मिठौरी आदि इलाकों में सबसे ज्यादा मक्के की फसल खेतों में लगाई गई है। कृषि विभाग के अनुसार इस वर्ष 15 हजार हेक्टेयर से घटकर सोयाबीन का रकबा 1-2 हजार हेक्टेयर रहा गया है।
30 वर्ष तक बनी खेतों की शान
गौरतलब है कि सोयाबीन विदेशी फसल मानी जाती है, जो अमेरिका से यहां लाई गई थी। जिले में वर्ष 1980 से इसकी खेती शुरु हुई थी। मप्र के सिवनी, छिंदवाड़ा जैसे जिलों के साथ शहडोल जिले के किसानों ने सोयाबीन से समृद्धि पाई। करीब 30 वर्ष तक इससे 16 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का उत्पादन से किसान आत्मनिर्भर बने। बेहतर उत्पादन के बलबूते मप्र को सर्वाधिक सोयाबीन उत्पादक राज्य भी बना दिया गया लेकिन विगत कुछ वर्ष से इसमे लगातार गिरावट आती गई। कभी अतिवृष्टि तो कभी अल्पवृष्टि से नुकसान हुआ। कीट व्याधि और अफलन की समस्या इतनी हो गई कि किसान घाटे से उबर नहीं पाए।
मक्का किसानों के लिए हर लिहाज से फायदेमंद
मक्के की फसल को पूर्णत: स्वदेशी माना जाता है क्योंकि यह कई दशकों से हर बाड़ी में लगाई जाती रही है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इसके अनेक उपयोग हैं। मानव के साथ पशु व पक्षियों के लिए बेहतर खाद्य है। इसके दाने भारतीयों की तरह मजबूत और अधिक दिनों तक टिकने वाले होते हैं, यही नहीं इसका उत्पादन हर प्रकार की मिट्टी में हो जाता है। उन्नत तकनीकें अपनाकर खेती करने पर मक्के की 45 से 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार आती है  जिसका मूल्य लगभग 90 हजार रुपये होता है, लागत लगभग 25-30 हजार रुपये की आती है। सोयाबीन की तरह जोखिम न के बराबर है। मिठौरी ग्राम के कृषक एवं अन्नपूर्णा बीज उत्पादक सहकारी समिति के अध्यक्ष सुरेंद्र सिंह ने बताया कि उन्होंने 15 वर्ष तक सोयाबीन उगाई, लेकिन कुछ सालों से नुकसान होने के कारण इस बार मक्का पूरे खेत में लगाया है।
समर्थन मूल्य पर हो खरीदी
मक्का का रकबा बढऩे पर किसानों ने इसकी खरीदी समर्थन मूल्य पर कराए जाने की मांग उठाई है। भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष भानु प्रताप सिंह ने बताया कि मक्का का सरकारी रेट 1800 रुपये है। वहीं व्यापारी इसे 12-14 रुपये में खरीदते हैं। संघ  पूर्व से मांग उठाता रहा है कि मक्का की खरीदी शासन द्वार समर्थन मूल्य पर कराए जाने की व्यवस्था करे।
एक्सपर्ट की राय
लगातार एक ही खेत पर एक ही फसल लगाने से उत्पादता प्रभावित होने लगती है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. मृगेंद्र सिंह बताते हैं कि जिले की मिट्टी मक्का के लिए भी उपयुक्त है। इसमें लागत भी कम आती है। मौसम की मार सहने की क्षमता भी मक्का में होता है। यदि आधुनिक तकनीक से इसकी खेती की जाए तो निश्चित तौर पर यह सोयाबीन का विकल्प बन सकता है।
इनका कहना है
इस बार सोयाबीन का रकबा काफी कम हुआ है और मक्का का बढ़ा है। समर्थन मूल्य पर खरीदी का निर्णय शासन स्तर से होना है।
जेएस पेंद्राम, सहायक संचालक कृषि
 

Created On :   13 July 2020 10:04 AM GMT

Tags

और पढ़ेंकम पढ़ें
Next Story