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आज देश के प्रधान न्यायाधीश बन रहे जस्टिस बोबड़े मप्र हाईकोर्ट में रह चुके हैं चीफ जस्टिस
डिजिटल डेस्क जबलपुर । जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े सोमवार को देश के 47वें मुख्य न्यायाधीश बनने जा रहे हैं। इससे पहले जस्टिस बोबड़े, मप्र हाईकोर्ट के 21वें मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। वैसे तो उनका मप्र उच्च न्यायालय में चीफ जस्टिस का कार्यकाल महज 6 माह भी नहीं रहा, लेकिन इस अल्प अवधि में उनके द्वारा न्यायिक और प्रशासनिक स्तर पर लिए गए कुछ निर्णय पक्षकारों के लिए राहतों भरे रहे। उनके कुछ निर्णय हाईकोर्ट के न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए।
जबलपुर में सुनवाई की व्यवस्था खत्म की
मप्र हाईकोर्ट की वर्ष 1956 में हुई स्थापना के बाद यह व्यवस्था थी कि किसी भी कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई सिर्फ मुख्यपीठ में ही होगी। अधिवक्ता आदित्य संघी के अनुसार बतौर चीफ जस्टिस का प्रभार संभालने के बाद श्री बोबड़े ने इस प्रक्रिया पर ऐतराज जताया। उन्होंने प्रशासनिक स्तर पर आदेश जारी किया कि संवैधानिक से जुड़े मामलों की सुनवाई जबलपुर के बजाए यदि याचिकाकर्ता इन्दौर या ग्वालियर के हैं, तो उनकी सुनवाई उसी बैंच में ही होगी। इस निर्णय से इंदौर और ग्वालियर खंडपीठ के क्षेत्राधिकार में रहने वाले पक्षकारों को काफी राहत मिली।
बदल गई वेटिंग लिस्ट की प्रक्रिया
रेलवे ने तत्काल कोटे के तहत वेटिंग लिस्ट पहले क्लीयर करने की पॉलिसी बनाई थी। इस पॉलिसी को जबलपुर के संजीव पांडे ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे और जस्टिस आलोक अराधे की युगलपीठ ने 20 दिसंबर 2012 को अपना फैसला सुनाते हुए पहले साधारण कोटे के तहत लिये जाने वाली टिकिट को क्लीयर करने के आदेश जारी किये थे। संजीव पाण्डेय के अधिवक्ता राजेश चंद ने बताया कि हाईकोर्ट के इसी फैसले के बाद रेलवे ने अपनी पॉलिसी को वापस ले लिया था।
नहीं छीन सकते हाईकोर्ट का हक
वर्ष 2013 में चीफ जस्टिस शरद अरविन्द बोबड़े ने जस्टिस अजीत सिंह के साथ एक ऐतिहासिक फैसला देकर व्यवस्था दी कि ट्रिब्यूनल की स्थापना के बाद भी हाईकोर्ट से उसके विशेषाधिकार नहीं छीने जा सकते। दरअसल, एक सैन्य कर्मी ने अपनी बर्खास्तगी को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। तत्कालीन वरिष्ठ अधिवक्ता (अब स्वर्गीय) राजेन्द्र तिवारी ने अदालत मित्र के रूप में दलील दी कि आम्र्ड फोर्स की स्थापना के बाद हाईकोर्ट इस मामले की सुनवाई नहीं कर सकता। इस बारे में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 1997 में एल चंद्रकुमार केस में दिए फैसले की नजीर भी पेश की। जस्टिस बोबड़े ने इस फैसले का असमर्थन करके कहा कि भले कि ट्रिब्यूनल की स्थापना हो गई हो, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 226 व 227 में मिले अधिकारों के तहत हाईकोर्ट में आम्र्ड फोर्स ट्रिब्यूनल के मामले पर सुनवाई की जा सकती है।
Created On :   18 Nov 2019 2:34 PM IST