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अनुकंपा व अनुशासन की जीवंत मूर्ति हैं विद्यासागरजी
डिजिटल डेस्क, नागपुर. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के परम शिष्य आचार्य विद्यासागरजी विराट व्यक्तित्व के धनी है। उन्होंने कथनी व करनी में ऐक्य स्थापित कर समूची मानव समाज को अपने आंतरिक विचारों से परिमार्जित किया है। वह शब्दों के ऐसे जादूगर हैं, जो शब्द अभिव्यक्ति और संप्रेक्षण के मनमोहक परिधान से नए अर्थ प्राप्त करते हैं। आचार्य श्री के काव्य की आत्मा, उनकी अभिव्यक्ति कला में ही पूरी संप्रेषणीयता के साथ अवतरित हुई है। उनकी हर क्रिया, शास्त्र से अनुमोदित और विवेक से ओत-प्रोत होती है। आचार्य श्री अनुकंपा व अनुशासन की जीवंत मूर्ति हैं। जैन दर्शन कहता है कि देह छूटने के समय में सभी पद्वी उत्तरदायित्व त्यागकर आत्मलीन होना श्रेयस्कर होता है। आचार्य श्री जी के गुरु ज्ञानसागर महाराज ने यह कार्य करके भी उनको दिखा डाला और इस तरह आचार्य श्री ने अपने गुरु का आचार्य पद स्वीकार कर उनकी सफल स्लेखना संपन्न की। आचार्य श्री ने जीवन को संयमित रखने जीवन की सत्यता को पहचानने उसे साधन बनाकर परम सत्य को प्राप्त करने का संदेश दिया है। मुनी श्री प्रसाद सागर ने बताया कि आचार्य श्री की साधना व तपस्या बहुत कठिन है। सर्दी में न कोई कपड़ा न कंबल और न ही चटाई, रजाई का उपयोग करते हैं। गर्मी में कूलर, एसी पंखे तक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। बहुत सीमित आहार लेते हैं। केवल तीन से चार घंटे की अल्प नींद लेते हैं। दाल, रोटी, चावल व खिचड़ी, छांछ के अलावा कुछ नहीं खाते। 24 घंटे में एक बार बिना नमक, शक्कर, गुड का आहार लेते हैं। न कोई सब्जी और न ही कोई सूखा मेवा लेते हैं। 9 दिन तक एक बूंद जल बिना उपवास करते हैं।
Created On :   9 Oct 2022 1:58 PM IST