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Pune City News: 1983 में पुणे पुलिस ने किया था पहला "एनकाउंटर'

भास्कर न्यूज, पुणे। शहर में पिछले 50 वर्षों का यदि पुलिस इतिहास देखे तो पहला एनकाउंटर 22 मई 1983 को सामने आता है। एनकाउंटर राजू इलियास शेख और हिसामुद्दीन इब्राहिम पठान नाम के बदमाशों का किया था जिनके कारण शहर में अपराधिक माहौल बढ़ रहा था।
उस दौर में लश्कर इलाके में राजू इलियास शेख और हिसामुद्दीन इब्राहिम पठान नामक बदमाशों ने दहशत फैला रखी थी। धीरे-धीरे दोनों अघोषित रूप से सत्ता चलाने लगे थे। मारपीट के एक मामले में उन्हें पकड़ने आए देसाई नाम के पुलिसकर्मी को उन्होंने चाकू मार दिया। घटना धोबीघाट के पास घटी थी। इसके बाद विनायकराव जाधव, सुरेंद्र पाटिल और उनकी पुलिस टीम ने लाठियों से किए गए जवाबी हमले में शेख और पठान दोनों को ढेर कर दिया। दोनों को इतने लट्ठ मारे कि उनके प्राण निकल गए। घटना के बाद कुछ समय तक गुंडों में खौफ भी रहा। इस घटना का उल्लेख उस समय खड़क पुलिस थाने में दर्ज है।
सभी अपराधी 30 साल से ज्यादा उम्र के, बाद में युवाओं का प्रवेश
उस समय के अधिकांश अपराधी 30 साल से अधिक उम्र के थे। बताया जाता है वे बेरोजगारी के कारण अपराधी नहीं बने थे। ज्यादातर सब्जी, मछली और इसी तरह के छोटे व्यापारियों के बेटे थे। उनका रुझान ही अपराध की ओर था। उन्हें फिल्मों में दिखने वाले "दादा' की छवि चाहिए थी और उसी आकर्षण ने उन्हें इस रास्ते पर खींच लिया। 21वीं सदी की ओर बढ़ते हुए समाज के विभिन्न क्षेत्रों में बड़े बदलाव आने लगे थे जिससे अपराध जगत भी अछूता नहीं रहा। प्रदीप सोनवणे और उसके समकालीन गुंडों ने भाषा से लेकर कामकाज की शैली तक सब बदल दिया। उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिलने लगा। 20-22 साल के युवा जुर्म की दुनिया की ओर खिंचने लगे थे। उन्होंने पढ़े-लिखे लेकिन बेरोजगार युवाओं को साथ लेकर गिरोह बनाए। यहां तक कि किशोर भी इसमें शामिल होने लगे। आर्थिक रूप से मजबूत परिवारों के युवक भी इसमें आए और गरीब तबके के भी। अमीर वर्ग के लिए यह मुंबई के माफियाओं जैसी जिंदगी का आकर्षण था, तो गरीबों के लिए यह जल्दी पैसा कमाने का जरिया बन गया था। यह अपराध की बदलती तस्वीर का संकेत था। पहले के दौर में बदमाश सिर्फ शहर में वर्चस्व कायम करने तक सीमित थे लेकिन बदलते वक्त में सीमेंट या पेट्रोल में मिलावट, विदेशी मुद्रा का गैरकानूनी धंधा, सोने की तस्करी और सबसे अहम जमीन के सौदे गुंडों की आमदनी का बड़ा जरिया बन गए। जमीन मालिक और खरीदार के बीच लोग बिचौलिए का काम करने लगे। साम, दाम, दंड, भेद के जरिए विवादित मामले सुलझाए जाने लगे। कई बिल्डरों ने जमीनें कब्जाने के लिए गुंडों का सहारा लेना शुरू किया।
गुंडों का पहनावा और भाषा भी बदली
पहले गुंडे सफेद रेशमी कुर्ता-पायजामा, हाथ में "राडो' की घड़ी और पैरों में सफेद चप्पल पहनते थे। वक्त के साथ यह बदलकर जींस, टी-शर्ट, जैकेट और विदेशी कंपनियों के जूते हो गए। साथ ही महंगे गॉगल्स, हाथ में कड़े और गले में सोने की चेन भी उनका स्टाइल बन गया। अब वे मोटरगाड़ियों में घूमने लगे। उनकी बोली भी बदल गई जिसमें "ढग में भेज दूं', "गेम बजा दूं', "सेक्शन गरम है', "पेटी', "खोका' जैसे शब्दों का उपयोग ज्यादा होने लगा। जमीन के सौदों को वे 'मैटर' कहने लगे। पहले इस्तेमाल होने वाले रामपुरी चाकुओं की जगह अब देसी पिस्तौलें आ गईं। सरगना अब "भाई', "भाऊ', "अण्णा', "अप्पा', "दादा', "शेठ' जैसे नामों से पहचान बनाने लगे थे।
Created On :   2 Nov 2025 5:00 PM IST












