अफगानिस्तान मामले में भारत के सामने कई बड़ी चुनौतियां और अवसर
- अफगानिस्तान मामले में भारत के सामने कई बड़ी चुनौतियां और अवसर
नई दिल्ली, 3 जुलाई (आईएएनएस)। पूरी दुनिया में चीन की आक्रामकता की गूंज बनी हुई है और इसके बीच दक्षिण एशिया एक और बड़े झटके की तैयारी कर रहा है। इसका केंद्र भारत का पड़ोसी अफगानिस्तान है। काबुल से आने वाले झटके इस्लामाबाद से होकर गुजरेंगे और दिल्ली से टकराएंगे। लेकिन इनकी तीव्रता कितनी होगी, यह अभी ज्ञात नहीं है। यह भी एक सवाल है कि भारत किस हद तक इसके लिए तैयार है।
इसकी शुरुआत 29 फरवरी को हुई जब अमेरिका ने लगभग 19 साल बाद युद्धग्रस्त अफगानिस्तान से अपनी सेना की वापसी के लिए कतर के दोहा में तालिबान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। अजीब बात यह है कि अफगानिस्तान के भविष्य को प्रभावित करने वाले इस करार में अफगान सरकार को ही शामिल नहीं किया गया।
अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता एक मिथ्या नाम बना हुआ है। इस समझौते की भावना के विपरीत, तालिबान ने हमले बढ़ा दिए हैं और हिंसा ने देश को और तीव्रता से अपनी गिरफ्त में ले लिया है। काबुल में एक अस्पताल के प्रसूति वार्ड से गुरुद्वारे तक, नंगरहार में एक जनाजे से लेकर पक्तिया की एक अदालत तक, हर कहीं हिंसा हुई है। और, दर्जनों अफगान सुरक्षा जांच चौकियां भी जहां हमलों में सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई है।
अफगान सरकार अपनी ओर से सौदे के विभिन्न प्रावधानों को लागू कर रही है। इसमें तालिबान कैदियों की रिहाई शामिल है। साथ ही, राष्ट्रपति अशरफ गनी ने दोहा में अंतर-अफगान वार्ता में शामिल होने के लिए प्रतिबद्धता भी जताई है।
दोहा में तालिबान का राजनीतिक कार्यालय है, जहां अमेरिका-तालिबान के बीच इसी साल फरवरी में समझौते पर बातचीत हुई थी। अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि जाल्मे खलीलजाद ने अफगानिस्तान में शांति के लिए अंतर-अफगान वार्ता, हिंसा को कम करने और कैदियों की रिहाई के लिए पाकिस्तान सहित विभिन्न पक्षों से लगातार संपर्क बनाए रखा है। अफगान नेताओं के साथ अपनी हालिया वार्ता में खलीलजाद ने जोर देकर कहा कि अफगानिस्तान में शांति का अर्थ क्षेत्र में शांति है और अमेरिका इसमें निवेश करने के लिए तैयार है।
लेकिन, तालिबान ने जिस व्यापक स्तर पर हिंसा फैलाई है, उसे देखते हुए राष्ट्र का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि तालिबान ने देश भर में अपने घातक हमलों को क्यों बढ़ाया है। वह अमेरिका की वापसी के बाद देश पर पूर्ण प्रभुत्व चाहता है। वल्र्ड ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में कहा गया है कि तालिबान के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में मानवाधिकारों के व्यापक हनन ने भविष्य के समझौतों का तालिबान द्वारा पालन करने की इच्छा पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
दो प्रमुख राष्ट्रों अमेरिका और अफगानिस्तान के अलावा, क्षेत्र में एक ऊंची दांव लगाने वाला खिलाड़ी पाकिस्तान भी है जो आतंकी संगठनों को पर्दे के पीछे से आश्रय और समर्थन देता रहा है। उसने आतंकी समूहों के माध्यम से संसाधन-संपन्न लेकिन अस्थिर पड़ोसी अफगानिस्तान पर हमलों को अंजाम दिलाकर इसे नियंत्रित करने और लगातार संकटों में बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पाकिस्तान ने साथ ही भारत को क्षेत्र से अलग रखने के लिए काफी प्रयास किए हैं।
अफगानिस्तान में भारतीय हस्तक्षेप पाकिस्तान के बिलकुल उलट है। भारत ने युद्धग्रस्त देश के पुनर्निर्माण और यहां लोकतंत्र को बढ़ावा देने में अफगान लोगों की मदद के लिए दो अरब डालर की सहायता दी है। भारत ने बांधों, बिजली स्टेशनों, सड़कों, अस्पतालों का निर्माण किया है। साथ ही अफगान लोगों को प्रशासन और सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं में प्रशिक्षित किया है।
अफगानिस्तान में इस अभूतपूर्व घटनाक्रम के बीच खलीलजाद सहित कई लोग भारत से तालिबान से बात करने का आग्रह कर रहे हैं। यही विचार अफगानिस्तान के लिए रूस के राष्ट्रपति के विशेष दूत जमीर काबुलोव का भी है। अब बड़ा सवाल यह है कि भारत उस तालिबान को कैसे देखता है, जिसे उसने दो दशक तक दूर बनाए रखा है।
भारत, अफगानिस्तान को एक लोकतांत्रिक देश के रूप में देखता है जहां लोग सरकार का चुनाव करते हैं, जबकि तालिबान को अभी भी एक आतंकवादी समूह, सत्ता का भूखा और एक पाकिस्तानी कठपुतली के रूप में देखता है। भारतीय सोच अभी भी अच्छे पुराने जमाने के सिद्धांत से संचालित होती है जिसमें एक आदर्श अफगानिस्तान में सभी जनजातियां मिलकर चुनाव कराती हैं, जहां आतंकवादी समूह अपने हथियार छोड़ देते हैं और अफगानिस्तान के लोग भारतीय समर्थन से सड़कों, बांधों, स्कूलों और अस्पतालों के साथ विकास मार्ग पर बढ़ते हैं।
लेकिन, अफगानिस्तान में अविश्वसनीय हिंसा के कारण भारत के इस सपने का पूरा होना अभी असंभव की तरह दिख रहा है। यह जरूर है कि इन असंभावनाओं के बीच अभी भी यह संभव है कि भारत तालिबान के साथ बात करने के लिए कोई रास्ता अपनाए।
तालिबान ने भारत के प्रति सामंजस्यपूर्ण संकेत दिए हैं जो आश्चर्यजनक है। उसने पहले ही कहा है कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 का रद्द होना भारत का आंतरिक मामला है। साथ ही, एक से अधिक बार कहा है कि वह भारत के साथ बातचीत के लिए तैयार है। यहां तक कि अफगानिस्तान सरकार ने संकेत दिया है कि भारत को अंतर-अफगान वार्ता में शामिल होना चाहिए क्योंकि वह हमेशा से अफगानिस्तान में शांति का समर्थन करता रहा है। वह चाहती है कि भारत तालिबान के विरोध को छोड़ दे और शांति प्रक्रिया को ताकत दे।
जबकि चारों ओर से शांति प्रक्रिया में भारत की भूमिका का आह्वान किया जा रहा है, इसका विरोध भारत के कट्टर दुश्मन पाकिस्तान की तरफ से आया है, जो अभी भी अपनी चालों को चलने में व्यस्त है। वह खुद को अफगान शांति प्रक्रिया में अमेरिका का एक सहयोगी बता रहा है, लेकिन अफगानिस्तान और भारत के हितों पर हमला करने के लिए विभिन्न आतंकवादी समूहों को आश्रय और प्रशिक्षण देना जारी रखे हुए है।
हालांकि, भारत के लिए अच्छी खबर यह है कि अफगान युद्ध के मैदान में सक्रिय आतंकी समूह अब बदल रहे हैं। तालिबान भारत को सकारात्मक संकेत दे रहा है जबकि आतंकवादी समूह हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तान की सोच को अपनाए हुए है।
अफगानिस्तान में तेजी से बदलते घटनाक्रम ने भारत के लिए ऐसे व्यापक अवसर उपलब्ध करा दिए हैं जिसमें वह क्षेत्र से अपनी गैर-मौजूदगी को छोड़ दे और वार्ता में शामिल हो। यह अवसर बता रहे हैं कि अमेरिका के जाने के बाद अफगानिस्तान में एक बड़ी भारतीय भूमिका का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। अफगानिस्तान थिएटर के विभिन्न खिलाड़ियों को पता है कि वार्ता में भारत का रुख केवल शांति और अफगानिस्तान के लोगों के दृष्टिकोण के हिसाब से होगा।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कोई स्थायी दोस्त और कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता है। लोग विकसित होते हैं, संस्थाएं बदलती हैं लेकिन शांति फिर भी वह लक्ष्य बनी रहती है जिसे हासिल किया जाना चाहिए। भारत ने लाखों अफगान लोगों के लिए इस लक्ष्य का पीछा किया है। इसे अब नहीं छोड़ना चाहिए।
(यह सामग्री इंडिया नैरेटिव डॉट काम के साथ एक व्यवस्था के तहत प्रस्तुत की जा रही है)
Created On :   3 July 2020 5:30 PM IST