एक रामलीला मैदान के सौ-सौ अफसाने : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (आईएएनएस स्पेशल)

One hundred officers from one Ramlila ground: vacate the throne that the public knows (IANS Special)
एक रामलीला मैदान के सौ-सौ अफसाने : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (आईएएनएस स्पेशल)
एक रामलीला मैदान के सौ-सौ अफसाने : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (आईएएनएस स्पेशल)

नई दिल्ली, 22 दिसंबर 2019 (आईएएनएस)। आज 22 दिसंबर 2019 रविवार को जिस रामलीला मैदान की जमीं पर देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ऐतिहासिक रैली संबोधित कर रहे हैं, उस रामलीला मैदान का अपना करीब सवा या डेढ़ सौ साल पुराना खुबसूरत इतिहास रहा है और यादें हैं। मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों का इस इतिहास और उसकी इन तमाम खुबसूरत यादों से रु-ब-रु होना बेहद जरूरी है, ताकि आइंदा सबको पता तो रहे कि आज की आपा-धापी और भीड़भाड़ वाली दिन-रात तेज रफ्तार दौड़ती दिल्ली के तुर्कमान गेट जैसी घनी आबादी (बेहद संकरी) में भी खुद के लिए 9-10 एकड़ की बेशुमार जगह खाली बचाकर एक रामलीला-मैदान अपनी गोद में अतीत की खूबसूरत यादों के सौ-सौ अफसाने आखिर आज तक भी कैसे महफूज रखे है।

इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि, सन 1883 में अंग्रेजों ने अपने सैनिकों-अफसरों के विश्राम शिविर (अस्थाई हाल्ट शिविर) के रुप में इस जगह का इस्तेमाल शुरू किया था। उस जमाने में यह जगह एकदम सूनी (वीरान) हुआ करती थी। ब्रिटिश सरकार सैनिकों को आराम फरमाने के लिए एकदम शांत जगह की तलाश में थी। लिहाजा ऐसे में दिल्ली के इस वीरान (आज का रामलीला मैदान) इलाके से ज्यादा मुफीद दूसरी जगह गोरों को नहीं दिखाई दी। 20-25 घंटे की मेहनत करके आनन-फानन में यहां टैंट (तंबू) गाड़ दिए गए। उसके बाद कई साल तक इस जगह पर हजारों की तादाद में ब्रिटिश सैनिक यहां आते-जाते और ठहरते रहे।

वक्त ने करवट बदली। ब्रिटिश (अंग्रेजी) हुकूमत कमजोर पड़ती दिखाई देने लगी तो दिल्ली वालों के नौनिहालों (बच्चों ने) ने यहां छोटे-मोटे खेल खेलने के लिए जाना शुरू कर दिया। तब तक अंग्रेजी हुकूमत का सैनिक-शिविर भी यहां बरकरार था। तुर्कमान और अजमेरी गेट के बीच-ओ-बीच मौजूद तब के इस ग्राउंड का क्षेत्रफल आज भी 9-10 एकड़ बचा हुआ है। हालांकि उस जमाने में यह मैदान और भीड़ कहीं ज्यादा विशाल था।

अंग्रेजी हुकूमत से निजात मिलते ही यहां स्थानीय निवासियों ने छोटी सी रामलीला का आयोजन शुरू कर दिया। उस वक्त इस मैदान की आज की सी चार दिवारी नहीं हुआ करती थी। रामलीला का मंचन भी सूरज के उजाले में (रात होने से पहले यानि शाम ढले तक) ही कर लिया जाता था। इसकी वजह थी इलाके का बेहद सुनसान होना। उस जमाने में सुरक्षा इंतजामों का भी टोटा था।

स्थानीय (तुर्कमान गेट) निवासी बशीर अहमद (95) ने रविवार को आईएएनएस से पुरानी यादें ताजी करते हुए बताया, सन 1945 की बात है। मोहम्मद अली जिन्ना इस मैदान पर पहुंचे तो मैदान में मौजूद हुजूम ने उन्हें मौलाना की उपाधि दे डाली। यह बात जिन्ना को बेहद नागवार गुजरी और उन्होंने उसी वक्त सर-ए-आम मौजूद भीड़ से नाराजगी बयान करते हुए कहा कि, मैं पॉलिटीशियन (राजनेता) हूं न कि कोई मौलवी। बजाय मेहरबानी मुझको आप सब मनमर्जी से जबरिया ही मुझे धार्मिक मौलाना करार न दें।

उन्होंने कहा कि जिन्ना की सभा और सभा में उस घटना के बाद तो मानो रामलीला मैदान नेताओं की पसंदीदा भाषण-स्थली ही बन गई।

पुरानी दिल्ली के ही पुश्तैनी निवासी और वाजिद अली (90) के मुताबिक, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी सन 1952 में सर्दियों में (नवंबर-दिसंबर) यहां एक बड़ा जलसा (रैली) किया था। मुद्दा था जम्मू एवं कश्मीर। बाद में उन्होंने इसी रामलीला मैदान की सरजमी से सत्याग्रह आंदोलन की भी नींव रखी। जिसके चलते उस जमाने की हुकूमत की चूलें हिल गई थीं। मतलब साफ है कि, रामलीला मैदान से जो बोला उसकी आवाज जमाने में ब-बुलंदी ही सुनाई दी।

पुरानी दिल्ली के ही और तमाम बाशिंदों ने आईएएनएस से बातचीत में रामलीला मैदान से जुड़ी और भी तमाम अतीत की यादों को साझा किया। मसलन, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1950 के दशक में (सन 1956 और 1957) में कुछ विशाल जनसभाओं को इसी रामलीला मैदान में संबोधित किया। लोकनायक जय प्रकाश नारायण (जेपी) ने भी कांग्रेस के खिलाफ यहीं से बिगुल बजाया था।

पुरानी दिल्ली के चितली कवर इलाके की मूल बाशिंदा रुखसाना और उनके 85 साल के बुजुर्ग भाई अनवर बताते हैं, जहां तक मुझे ख्याल आ रहा है कि वो 26 जनवरी 1963 की तारीख थी। प्रधानमंत्री नेहरु के साथ लता मंगेशकर भी इस मैदान पर आई थीं। वो एक बेहद यादगार कार्यक्रम था।

और तो और सन 1965 में धुर-विरोधी दुश्मन पाकिस्तान पर फतेह के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी इसी रामलीला मैदान पर एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। उन्होंने उसी जनसभा में मंच से भीड़ के सामने जय जवान, जय किसान का नारा कई मर्तबा दोहराया था। सन 1972 में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश बनने के बाद हिंदुस्तान के हाथों पाकिस्तान की हार का जश्न भी इसी रामलीला मैदान पर मनाया था। उस दिन यहां तिल रखने की जगह नहीं बची थी। इंदिरा का उस दिन का भाषण सुनने के लिए बस्ती के मकानों की छतें तक जनता से भरी हुई थीं।

विश्व-विख्यात हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर की यादगार और रोंगटे खड़े कर किसी को भी ललकारने की कुव्वत रखने वाली पंक्तियां सिंहासन खाली करो कि जनता आती है भी इसी रामलीला मैदान पर गुंजायमान हो चुकी है।

स्थानीय पुश्तैनी बाशिंदों की बात अगर मानी जाए तो जनवरी सन 1961 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ भी इसी रामलीला मैदान से जनता को संबोधित कर चुकी हैं। इसके बाद तो यह मैदान रामलीला से कम राजनेताओं की हुंकारों से ज्यादा गुंजायमान होता रहा। जिसमें आज देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनसभा को संबोधित कर रहे हैं।

कहने को अन्ना आंदोलन, अटल विहारी बाजपेयी की तमाम ऐतिहासिक और यादगार सभाएं, रामदेव आंदोलन भी इसी रामलीला मैदान में हो चुके हैं। कुल जमा अगर यह कहा जाए कि यह सिर्फ मैदान रामलीला के लिए ही नहीं बना है। इसकी कुछ तो ऐसी तासीर जरूर है जो, अपनी ओर हर आम-ओ-खास को खींच कर लाने की ताकत रखती है, तो गलत नहीं होगा।

Created On :   22 Dec 2019 12:30 PM IST

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