भगवान की पूजा करने के बाद क्यों करते हैं आरती? 

After worshiping of God, why do the aarti is important in Hindu?
भगवान की पूजा करने के बाद क्यों करते हैं आरती? 
भगवान की पूजा करने के बाद क्यों करते हैं आरती? 

डिजिटल डेस्क । आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से पूजा खत्म करने के साथ ही आरती करते हैं। जिसमें भगवान की वंदना गाई जाती है और दीपक, अगरबत्ती या धूपबत्ती जलाकर आरती की जाती है, लेकिन इस आरती का मतलब क्या होता है। क्यों हवन-पूजन के बाद आरती की जाती है। आइए जानते है कि क्यों आरती की जाती है और इसका महत्व क्या है?

- आरती करने का पहला रूप आराध्य के सामने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी,तेल, के दीये की या कर्पूर की हो सकती है, इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। 

- कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। 

- मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। 

- प्राचीन काल में यह विशेष और व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता था। 

- तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।

- मंदिर एवं घर में देव पूजा होने के बाद तीर्थ और प्रसाद के समान आरती ग्रहण करने का भी महत्व है। 

 

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इस संदर्भ में विष्णुधर्मोत्तर पुराण कहता है-

 

यथैवोध्र्वगतिर्नित्यं राजन: दीपशिखाशुभा। दीपदातुस्तथैवोध्र्वगतिर्भवति शोभना। अर्थात् जिस प्रकार दीप-ज्योति नित्य ऊध्र्व गति से प्रकाशमान रहती है, उसी प्रकार दीपदान यानी आरती ग्रहण करने वाले साधक आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च स्तर पर पहुंचते हैं।

 

इस संदर्भ में एक अन्य श्लोक है-

नीरांजन बर्लिविष्णोर्यस्य गात्राणि संस्पृशेत्। यज्ञलक्षसहस्त्राणां लभते सनातन फलम्।। 

भावार्थ- परमात्मा के नीरांजन की ज्योति का स्पर्श जिनकी विविध इंदियों को होता है, उन्हें हजारों यज्ञ करने से उत्पन्न अक्षय पुण्य फलों की प्राप्ति होती है। इसलिए आरती ग्रहण करने की विधि ज्ञात होना आवश्यक है।  देवता की महआरती तथा घृत नीरांजन की आरती उतारने के बाद घृत की आरती ग्रहण की जा सकती है। 

एक बार आरती ग्रहण कर लेने के बाद वही आरती अन्य देवताओं पर नहीं उतारी जाती। महाआरती उतारने के बाद नीरांजन की ज्योति पर दोनों हथेलियां किंचित समय रखकर विविध अवयवों को स्पर्श करना आरती ग्रहण की उपयुक्त विधि है। आरती ग्रहण के समय हथेली का स्पर्श मस्तक, आंख, नाक, कान, मुख, छाती, पेट, घुटने तथा पैर पर करना आवश्यक है। विशेष  रूप से जहां जख्म, व्याधि या सूजन हो, ऎसे शरीरांगों पर आरती ग्रहण के समय हथेली का स्पर्श आरोग्यप्रद होता है। भगवान की आरती ग्रहण करते समय लहरें अधिक परिणामकारक बनती है। 

भगवान बुद्ध द्वारा प्रणीत किन्तु नए सिरे से प्रस्तुत जापानी रेकी शास्त्र और आरती ग्रहण में कुछ अंशों में साम्य है। हर रोज आरती ग्रहण करने वाले व्यक्ति का चेहरा एवं नेत्र तेज: पुंज बनते ही हैं, उसके हाथ से कालांतर में अति प्रभावी वैश्विक लहरें भी प्रभावित होने लगती हैं। नीरांजन के लिए शुद्ध सात्विक घी एवं देव कपास की बत्ती का प्रयोग करने पर अधिकाधिक लाभ होता है। सामान्यतया पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। 

इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने से किन्तु इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाड़े, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।

 

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आरती की विधि -

- आरती करते हुए भक्त के मन में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। 

- यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। 

- आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धार्मिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या जैसे 3,5 या 7 में बत्तियां जलाकर 

- आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। 

- सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। 

 

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आरती पांच प्रकार से की जाती है। 

1-पहली दीपमाला से, 2-दूसरी जल से भरे शंख से, 3-तीसरी धुले हुए वस्त्र से, 4-चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और 5-पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। 

सामग्री का महत्व क्या है?

आरती के समय कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। पूजा में न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, कदाचित उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक आधार भी हैं।

1- कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। एक मान्यता अनुसार इस खाली स्थान में शिव बसते हैं। यदि आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त शिव से एकाकार हो रहे हैं। समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है। जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। जल को शुद्ध तत्व माना जाता है, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

2-आरती के समय कलश पर नारियल भी रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में उपस्थित ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।

3-सोना: ऐसी मान्यता है कि स्वर्ण धातु अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। इसीलिये सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही कारण है कि इसे भक्तों को भगवान से जोड़ने का माध्यम भी माना जाता है।

4-तांबे की मुद्रा: तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अन्य धातुओं की अपेक्षा अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका अर्थ है कि भक्त में सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।

5-सप्तनदियों का जल: गंगा, गोदावरी, यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि अधिकतर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।

6-सुपारी: यदि जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें तामसी और रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। 

7-पान: पान की बेल को नागबेल भी कहते हैं। नागबेल को भूलोक और ब्रह्मलोक को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।

8-तुलसी: आयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है और तुलसी में रोग प्रतिरोधक क्षमता होती हे।

 

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Created On :   25 May 2018 6:44 AM GMT

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