चैतन्य महाप्रभु की जयंती 21 मार्च को,  भगवान कृष्ण के संदेश का किया था प्रचार 

Birth anniversary of Chaitanya Mahaprabhu on March 2, know more
चैतन्य महाप्रभु की जयंती 21 मार्च को,  भगवान कृष्ण के संदेश का किया था प्रचार 
चैतन्य महाप्रभु की जयंती 21 मार्च को,  भगवान कृष्ण के संदेश का किया था प्रचार 

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली।  चैतन्य महाप्रभु का जन्म हिंदू कैलेंडर के अनुसार विक्रम संवत सन् 1542 में फाल्गुन पूर्णिमा यानी होलिकादहन के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी, इस पूर्णिमा को गौरव पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं और यह चैतन्य महाप्रभु की जयंती के रूप में मनाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु (1486-1534 सीई) एक महान आध्यात्मिक शिक्षक और गौडिय वैष्णववाद और इस्कॉन संस्था के संस्थापक थे। वैष्णववादी इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। इस बार श्री चैतन्य महाप्रभु की जयंती 21 मार्च 2019 को है।

लोकप्रिय है गौरव पूर्णिमा :-
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जन्म गौरव पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, इन्हें अपनी स्वर्णिम चमक के कारण गौरांगा के रूप में भी जाना जाता है, नादिया, बंगाल की भूमि में, भगवान, कृष्णा के लिए अभूतपूर्व प्रेम से भरी दिव्य नाम के जप के साथ इस युग के लोगों को आशीर्वाद देने के लिए अवतार लिया था।

उनका जन्म फाल्गुन के महीने के पूर्णिमा यानि होलिकादहन के दिन प्रतिवर्ष मनाया जाता है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान कृष्ण के संदेश का प्रचार किया। चैतन्य जी के पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र एवं माता का नाम शचि देवी था। भगवान चैतन्य महाप्रभु की पत्नी का नाम श्रीमती विष्णुप्रिया था। सन् 1505 में सर्प दंश के कारण उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।

उन्होंने ईश्वर से जुड़ने का सबसे सरल उपाय दिया :-
बस हरे कृष्ण हरे राम के उच्चारण मात्र से भगवान चैतन्य ने दर्शन को सिखाया है कि ईश्वर के पवित्र नाम के जप के माध्यम से व्यक्ति मोक्ष की ओर पहुंच जाता है। उन्होंने सिखाया कि ईश्वर का पवित्र नाम ईश्वर का अवतार है और यह कि जब से भगवान निरपेक्ष परिपूर्ण है, उसके पवित्र नाम और उसके उत्थान में कोई अंतर नहीं है।

मंत्र की महिमा 
हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे।

हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥

ऊपर लिखा यह अठारह शब्दीय (32 अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई की देन है। इसे तारकब्रह्ममहामंत्र कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। सन 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे भारत में पर्याप्त है।

इस प्रकार ईश्वर के पवित्र नाम का जप करते हुए सीधे ध्वनि कंपन से सर्वोच्च ईश्वर के साथ सहयोग कर सकते हैं। चैतन्य महाप्रभु की जयंती कृष्ण भक्तों के लिए बहुत महत्व रखती है और कई त्यौहारों और कार्यक्रमों को इस्कॉन मंदिरों के साथ ही हर जगह पर कृष्ण मंदिरों में आयोजित किया जाता है। चैतन्य महाप्रभु ने 16 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। वे 96 वर्ष में इस भौतिक संसार से पूरी के जगन्नाथ मंदिर में जाकर साधना करते हुए प्रकृति की गोद में लुप्त हो गए।

उन्होंने भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू-मुस्लिम-सिख वा इसाई एकता की सद्भवना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी। गौरांग जी के ऊपर कई ग्रंथों की रचना की गई हैं, जिनमें से मुख्य है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा रचित चैतन्य चरितामृत है।

अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल (कटक) में चले गए और वहां 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे।

Created On :   19 March 2019 8:07 AM GMT

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