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चरखे से नहीं मिल रही दो जून की रोटी
डिजिटल डेस्क, नागपुर। महात्मा गांधी के जिस चरखे ने आजादी की अलख जगाई थी, उस चरखे से आज कुछ परिवारों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है। इस व्यवसाय से जुड़े ज्यादातर कारीगर अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। डोबी बस्ती में 100 से ज्यादा चरखों पर हर दिन काम किया जाता है। इसमें महिला कामगारों की संख्या काफी ज्यादा है। बस्ती में ऐसा कोई घर नहीं, जहां चरखा न हो, हर घर में दो से तीन चरखों पर महिलाएं मशक्कत कर अपने परिवार का पेट पाल रही हैं।
महिलाओं को 70 रुपए व पुरुषों को 160 रुपए रोजी
महिला कामगारों को एक रील भरने पर 12 रुपए मिलते हैं, प्रति दिन पांच से 7 घंटे काम करती हैं, तब जाकर 70 से 75 रुपए तक हाथ आते हैं। इन परिवारों के पुरुष भी यहां काम करते हैं, जो तैयार धागे से साड़ी बनाते हैं। यदि वक्त की बात करें, तो एक साड़ी तैयार करने में ढाई घंटा लग जाता है, इसके बाद प्रति साड़ी 40 रुपए कमाई होती है। 10 घंटे काम करने के बाद दिन 4 में साड़ियां बनती हैं, जिस पर मेहनताना 160 रुपए मिलता है।
काम तो करना ही है
मोहम्मद मुस्लिम ने बताया कि परिवार तो चलाना ही है जितना पैसा मिलता है उसी में गुजारा करना पड़ता है। मोहम्मद अंसारी ने बताया कि हम मेहनतकश इनसान हैं, मेहनत कर कमाते हैं, चोरी से तो मेहनत ही अच्छी है, इसलिए यह काम कर रहे हैं। शहजाद बेगम का कहना है कि पूरे मोहल्ले की महिलाएं यहां काम करती हैं, मैं भी आती हूं समाज में पर्दा है, लेकिन पेट के लिए काम तो करना पड़ता है।
Created On :   5 Jan 2019 5:48 PM GMT