संत एकनाथ षष्ठी आज, पत्थर को सामने रखकर पूजा करते थे एकनाथ

Eknath Shashti: he never forgate Trikal Sandhya-Vandan pooja
संत एकनाथ षष्ठी आज, पत्थर को सामने रखकर पूजा करते थे एकनाथ
संत एकनाथ षष्ठी आज, पत्थर को सामने रखकर पूजा करते थे एकनाथ

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। संत एकनाथजी का जन्म हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार चैत्र कृष्ण षष्ठी वि.सं 1590 ईस्वी सन् 1533 में हुआ था। उनका जन्मदिन आज यानी मंगलवार 26 मार्च को संत एकनाथ षष्ठी के रूप में मनाया जा रहा है। एकनाथजी महाराज एकनिष्ठ गुरुभक्त थे। उनके जन्म के कुछ समय बाद ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया उनके दादा श्रीचक्रपाणिजी ने उनका पालन-पोषण किया। एकनाथजी बाल्यकाल से ही बड़े बुद्धिमान और श्रद्धावान थे। संध्या, हरि-भजन, पुराण-श्रवण, ईश्वर-पूजन आदि में उनकी बड़ी प्रीति थी। आनन्दमग्न होकर कभी-कभी हाथ में करताल लेकर अथवा कन्धे पर करछुल या ऐसी ही कोई चीज वीणा की भाँति रखकर वे भजन करते। कोई भी पत्थर सामने रखकर उस पर फूल चढाते तो कभी भगवन्नाम-संकीर्तन करते हुए नृत्य करते। जब गाँव में श्रीमदभागवत कथा होती तब पूरी तन्मयता के साथ सुना करते थे। इतनी छोटी आयु में भी वे त्रिकाल संध्या-वन्दन करना कभी भूलते नहीं थे।

स्तोत्र-पाठ, प्रातः-सायं भगवान एवं गुरुजनों का वन्दन आदि नियम-निष्ठा में भी वे तत्पर रहते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि भगवत्प्रेम के रस से सराबोर उनके जीवन में भगवान के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान की जिज्ञासा पैदा हुई। उनके बाल मन में बार-बार यह विचार आने लगा कि ‘जैसे ध्रुव और प्रह्लाद को भगवान की प्राप्ति कराने वाले सद्गुरु नारदजी मिले, वैसे समर्थ सद्गुरु मुझे कब मिलेंगे ? 

एक दिन 12 वर्षीय एकनाथ शिवालय में हरिगुण गाते हुए बैठे थे। और रात्रि का चौथा पहर शुरू होने पर उनके हृदय में आकाशवाणी हुई कि ‘देवगढ़ में जनार्दन पंत नामक एक सत्पुरुष रहते हैं। उनके पास जाओ वे तुम्हें कृतार्थ करेंगे। एकनाथ देवगढ़ गये, वहाँ उन्हें श्री जनार्दन पंत के दर्शन हुए। गद्गद् होकर एकनाथजी ने अपने आपको गुरुचरणों में अर्पण किया।

तब से गुरुद्वार पर रहकर एकनाथजी गुरुसेवा में लग गये। गुरु सोकर उठें इससे पहले वे जाग जाते। जो सेवा सामने दिख जाती उसे बिना आज्ञा के कर डालते। रात को गुरुजी के चरण दबाते, कभी पंखा झलते। गुरुजी जब समाधि लगाते तब वे द्वार पर खड़े रहते। गुरुदेव की समाधि में किसी प्रकार का अवरोध न हो इसका ध्यान रखते।

गुरु जी के पास और भी कई सेवक थे पर एकनाथजी किसी की प्रतीक्षा नही करते वे स्वयं ही बड़े प्रेम, उत्साह व तत्परता से सेवाकार्यों में लगे रहते। उनके लिए गुरुजी का संतोष ही स्वसंतोष था, गुरुजी के शब्द ही शास्त्र थे, गुरुद्वार ही नंदनवन था तथा गुरुजी की मूर्ति ही परमेश्वर-विग्रह था। गुरुर्साक्षात् परब्रह्म में उनकी दृढ़ निष्ठा थी। लगातार छः वर्षों तक सेवा से प्रसन्न होकर एक दिन गुरुजी ने उन्हें अनुष्ठान करने की आज्ञा दी। उसे शिरोधार्य कर एकनाथजी अनुष्ठान में लग गये।

एक दिन एकनाथ जी समाधि लगाये हुए थे। तभी एक भयंकर काला सर्प लहराता हुआ उनके शारीर पर लिपट गया। एकनाथजी की छाया से वह हिंसक भाव भूल गया व उनके मस्तक पर फन फैलाकर झूमने लगा। वह सर्प फिर एकनाथजी का संगी ही बन गया। वह नित्य एकनाथजी के पास आने लगा। जब वे समाधि लगाते तब वह उनके शरीर से लिपटकर मस्तक पर फन फैलाकर झूमने लगता तथा उनकी समाधि से जागते ही चला जाता। 

किन्तु एकनाथजी को इसका कोई ज्ञान ही नही था। एकनाथजी के लिए दूध लेकर आने वाले किसान ने एक दिन एकनाथजी से लिपटे साँप को देख लिया और चीख पड़ा। तभी एकनाथजी कीी समाधि टूट गई और तब वे उठे तथा साँप को भी जाते हुए देखा। अनुष्ठान पूरा करके सब हाल गुरु को कह सुनाया। तब खूब प्रसन्न होकर गुरुजी ने उन पर आशीर्वाद के पुष्प बरसाये। उन्हें यह समझते देर न लगी कि अब मेरा एका निद्र्वन्द्व नारायण में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो चुका है। इसके बाद एकनाथजी ‘एकनाथजी महाराज के रूप में पूजित हुए। उन्होंने ‘एकनाथी भागवत जैसे ग्रंथ द्वारा समाज में परमात्म-रस की धारा प्रवाहित की।

वे कहते हैं:-
‘गुरु ही माता, पिता, स्वामी और कुलदेवता हैं। गुरु बिना और किसी देवता का स्मरण नहीं होता। शरीर, मन, वाणी और प्राण से गुरु का ही अनन्य ध्यान हो, यही गुरुभक्ति है। प्यास जल को भूल जाय, भूख मिष्टान्न को भूल जाय और गुरु-चरण-संवाहन करते हुए निद्रा भी भूल जाय। मुख में सद्गुरु का नाम हो, हृदय में सद्गुरु का प्रेम हो, देह में सद्गुरु का ही अहर्निश अविश्रान्त कर्म हो। गुरु-सेवा में ऐसा मन लगे कि स्त्री, पुत्र, धन भी भूल जाय, अपना मन भी भूल जाय, यह भी ध्यान न हो कि मैं कौन हूँ?

सद्गुरु की सत्सेवा का सुख कैसा है, इस विषय में एकनाथजी महाराज ने कहा:-
‘सद्गुरु जहाँ वास करते हैं वहीं सुख की सृष्टि होती है। वे जहाँ रहते हैं वहीं महाबोध (ब्रह्मज्ञान) स्वानन्द से रहता है। उन सद्गुरु के चरण-दर्शन होने से उसी क्षण भूख-प्यास चली जाती है। फिर कोई कल्पना ही नहीं उठती। अपना वास्तविक सुख गुरुचरणों में ही है।

गुरुसेवा की महिमा गाते हुए वे अपना अनुभव बताते हैं:-
‘सेवा में ऐसी प्रीति हो गयी कि उससे आधी घड़ी का भी समय नहीं मिलता। सेवा में आलस्य तो रह ही नहीं गया था क्योंकि इस सेवा से आराम का स्थान ही चला गया। भूख, प्यास भूल गये। सेवा में मन ऐसे रम गया कि ‘एका जनार्दन की शरण में लीन हो गया।

Created On :   17 March 2019 5:17 AM GMT

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