संतान सप्तमी व्रत 2018: इस व्रत को करने से होगी संतान की कामना पूरी
डिजिटल डेस्क, भोपाल। संतान सप्तमी या मुक्ताभरण सप्तमी एक दिव्य व्रत है और इसके पालन से विविध कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। संतान सप्तमी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है। जो इस वर्ष 16 सितम्बर 2018 को रविवार के दिन किया जाएगा। यह सप्तमी धर्म शास्त्रों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती, आरोग्य, पुत्र, सप्तसप्तमी आदि अनेक नाम से प्रसिद्ध है और अनेक पुराणों में उस नाम के अनुरूप व्रत की अलग-अलग विधियों का उल्लेख भी है।
यह व्रत विशेष रुप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति-प्रगति के लिए किया जाता है। इस व्रत में भगवान शिव एवं माता गौरी की पूजा का विधान होता है। संतान सप्तमी का व्रत स्त्रियों द्वारा अपनी संतान के लिए किया जाता है। इस व्रत का विधान दोपहर तक ही रहता है। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनकी संतान साम्ब की पूजा की जाती है। इस दिन स्त्रियां माता पार्वती की पूजन कर पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान मांगती है।
एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि एक समय की बात है एक दिन मथुरा में लोमश ऋषि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने श्रद्धाभाव से उनकी सेवा की उनकी सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए आदेश देते हुए कहा कि - हे देवकी कंस ने तुम्हारे सात पुत्रों को जन्म लेते ही मारकर तुम्हें जो पुत्रशोक दिया है। इस दुःख से मुक्त होने के लिए तुम 'संतान सप्तमी' का व्रत करो। राजा नहुष की रानी चंद्रमुखी ने भी यह व्रत किया था। तब उसके भी पुत्र मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए। यह व्रत तुम्हें भी पुत्रशोक से मुक्ति दिलाएगा। तब देवकी ने पूछा- हे ऋषिवर कृपया कर मुझे व्रत का पूरा विधि एवं विधान बताने की कृपा करें जिससे मैं विधिपूर्वक इस व्रत को सम्पन्न कर सकूं। तब लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का सम्पूर्ण पूजा-विधान बताकर व्रतकथा भी सुनाई।
नहुष अवधपुरी का एक प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में ही एक विष्णुदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी और रूपवती में घनिष्ठ प्रेम था। एक दिन दोनों सरयू नदी में स्नान करने गईं। तब वहां अन्य और स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं। उन स्त्रियों ने स्नान के बाद वहीं शिव-पार्वती की प्रतिमा बनाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया। तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजा का नाम तथा विधि और इसका फल क्या है पूछा।
तब उन स्त्रियों में से एक ने बताया कि- हमने पार्वती सहित शिव की पूजा की है। भगवान शिव का डोरा (धागा) बांधकर हमने संकल्प किया है कि जब तक जीवित रहेंगी, तब तक यह व्रत करती रहेंगी। यह 'मुक्ताभरण सप्तमी व्रत' सुख तथा संतान देने वाला है। तब उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प लिया और शिवजी के नाम का डोरा अपने हाथ में बाँध लिया। किन्तु जब वो घर पहुंची तो संकल्प को भूल गईं। इसके फलस्वरूप मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं।
कई कालांतर के बाद जब दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों की भेंट हो गई और दोनों में बड़ा प्रेम हो गया।
मुक्ताभरण (संतान) सप्तमी व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रही। प्रौढ़ावस्था (वृद्धावस्था) में उसने एक गूंगा तथा बहरे पुत्र को जन्म दिया। मगर वह भी नौ वर्ष का होकर मृत हो गया। भूषणा ने व्रत को याद रखा था। जिस कारण उसने सुन्दर तथा स्वस्थ्य आठ पुत्रों को जन्म दिया।
रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में डाह (जलन) पैदा हुई। उसने भूषणा को विदा करके उसके पुत्रों को भोजन के लिए बुलाया और भोजन में विष मिला दिया। परन्तु भूषणा के व्रत के प्रभाव से उनको कुछ भी नहीं हुआ।
जिस कारण से रानी को और भी अधिक क्रोध आ गया। उसने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि भूषणा के पुत्रों को पूजा करने के बहाने यमुना के किनारे ले जाकर गहरे जल में धकेल दिया जाए। किन्तु मृत्युन्जय महादेव और माता पार्वती की असीम कृपा से इस बार भी भूषणा के पुत्र व्रत के प्रभाव से बच गए।
तब रानी ने जल्लादों को बुलाकर आज्ञा दी कि ब्राह्मण पुत्रों को वध-स्थल पर ले जाकर मार डालो किन्तु जल्लादों द्वारा अनेक प्रयास करने पर भी बालक न मारे जा सके। तब यह समाचार सुनकर रानी को घोर आश्चर्य हुआ। हारकर उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताई और साथ में क्षमायाचना कर पूछा कि किस कारण तुम्हारी संतान नहीं मर पाई ?
तब भूषणा बोली- क्या आपको पूर्वजन्म की कोई भी बात स्मरण नहीं है? तब रानी ने बड़े आश्चर्य से कहा- नहीं, मुझे तो कुछ याद नहीं है?
तब उसने कहा- तो सुनो, पूर्वजन्म में तुम राजा नहुष की रानी थी और मैं तुम्हारी सखी। हम दोनों ने एक बार भगवान शिव का डोरा (धागा) बांधकर संकल्प किया था कि जीवन-पर्यन्त संतान सप्तमी का व्रत किया करेंगी। किन्तु दुर्भाग्यवश हम भूल गईं और व्रत की अव्हेलना होने के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेती हुई तब कहीं जाकर अब फिर मनुष्य योनी प्राप्त हुई हैं। मुझे तो उस व्रत की याद हो आई थी, इसलिए मैंने तो व्रत किया। उसी व्रत के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी नहीं मरवा सकीं।
तब पूरी बात सुनकर रानी ईश्वरी ने भी सम्पूर्ण विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा और तब इस व्रत के प्रभाव से रानी पुनः गर्भवती हुई और एक बहुत ही सुंदर से बालक को जन्म दिया। उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है।
इस व्रत का पालन करने वाली स्त्री को प्रात:काल में ही स्नान और नित्यक्रम से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर लेने चाहिए। इसके बाद प्रात: काल में श्री विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए तथा संतान सप्तमी व्रत का संकल्प कर लेना चाहिए।
निराहार व्रत कर दोपहर को नवरंग से चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी तथा नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करनी चाहिए। संतान सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्य के रुप में खीर-पूरी तथा गुड़ के पुए बनाए जाते हैं। इस दिन चांदी की सवा तोले की खुले मुंह की चूड़ी पर सात लकीर लगवाकर संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को अर्पित किया जाता है और यदि सामर्थ्य नहीं हो पाने की स्थिति में एक कलावे में सात गांठ बांधकर कलावा अर्पित कर शिवजी को अर्पित कर सकते हैं फिर बाद में इसे स्वयं धारण कर इस व्रत की कथा सुननी चाहिए।
Created On :   14 Sep 2018 1:45 PM GMT