ऐसे डॉक्टर... जिन्हाेंने पैसा नहीं, सेवा करने का विकल्प चुना

Such the doctor :  The opted not to money but to people serve
ऐसे डॉक्टर... जिन्हाेंने पैसा नहीं, सेवा करने का विकल्प चुना
ऐसे डॉक्टर... जिन्हाेंने पैसा नहीं, सेवा करने का विकल्प चुना

डिजिटल डेस्क, नागपुर। डॉक्टर बनने के बाद पैसा कमाने की चाहत में बड़े-बड़े नर्सिंग होग डालकर मरीजों को लूटना का धंधा जहां बढ़ गया है वहीं डॉक्टरी पढ़ाई करने के बाद इसे सेवा का माध्यम बनाने वाले डाक्टर भी हैं जो समाज के लिए प्रेरणा हैं। शहरी चमक-धमक और अपार धन के बजाए जनसेवा को प्राथमिकता देने वाले इन डॉक्टरों ने दूर-दराज के इलाकों में स्वास्थ्य सेवा से वंचितों की सेवा का व्रत लिया है। नाममात्र फीस लेकर समाज के हाशिए पर रह रहे लोगों के जीवन को हर लिहाज से संवारने में जुटे हैं। 

2 रुपए में 34 साल से दे रहे सेवा  
डॉक्टर स्मिता कोल्हे और रविंद्र कोल्हे को इस वर्ष पद्मश्री से नवाजा गया है। दोनों पिछले 34 वर्षों से अमरावती के जनजातीय इलाके में लोगों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने में जुटे हैं। नागपुर के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस पढ़ाई के बाद डॉ. रवींद्र कोल्हे ने समाज के हाशिए पर रह गए लोगों की सेवा करने की ठानी और ऐसी जगह की खोज में निकल पड़े। पत्नी स्मिता कोल्हे ने भी पूरा सहयोग दिया। ढाई महीने तक भटकने के बाद अमरावती जिले के बैरागड गांव पहुंचे। तब से वहीं मरीजों का इलाज कर रहे हैं। 

ये ऐसा गांव है, जहां पहुंचने के लिए मुख्य जिले से 25 किमी बस से और फिर 30 किमी पैदल चलकर जाना पड़ता था। स्मिता और रविंद्र यहां अब भी दो रुपए में मरीजों का इलाज करते हैं। रविंद्र को सामाजिक कार्यों के लिए 2011 में 10 लाख रु. का पुरस्कार मिला था। इसे भी गांव में ऑपरेशन थिएटर बनाने में लगा दिया। स्मिता और रविंद्र अब एक कदम आगे बढ़ते हुए खेती-किसानी पर भी ध्यान दे रहे हैं। आज गांव की हालत पहले जैसी नहीं रही है। युवाओं को ग्रामीण इलाकों में सुविधाओं के अभाव को लेकर डरने की जरूरत नहीं है। 

युवा डाक्टरों के लिए प्रेरणा
डॉ. कोल्हे का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में भले ही आमदनी कम हो, लेकिन सम्मान काफी अधिक मिलता है। युवा डॉक्टरों को अपने जीवन का कुछ समय जरूर नि:स्वार्थ सेवा के लिए देना चाहिए।

इच्छा हो तो 10 रुपए वर्ना कोई बात नहीं
डॉ. आशीष सातव और डॉ. कविता सातव पिछले बीस वर्ष से गड़चिरोली में महान ट्रस्ट के जरिए स्थानीय लोगों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करा रहे हैं। एक छोटी से झोपड़ी से शुरू उनकी यह यात्रा आज सुविधा संपन्न अस्पताल में तब्दील हो चुकी है। यदि इलाज कराने के लिए पैसे हों तो जनजाति से 10 रुपए आैर सामान्य से 30 रुपए लेते हैं। पैसे नहीं हैं, तो शुल्क देने की जरूरत नहीं। 

डॉ.सातव के अनुसार ट्राइबल इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण मृत्यु दर काफी अधिक थी। जब उन्होंने काम शुरू किया गड़चिरोली में मृत्यु दर 500 प्रति लाख थी, जबकि उस समय शहरों में यह दर इसकी आधी 250 प्रति लाख थी। 

मृत्यु-दर और कुपोषण में कमी
सातव दंपत्ति के प्रयासों के कारण अब गड़चिरोली इलाके में मृत्यु दर में 58 फीसदी और कुपोषण में 25 फीसदी की कमी आई है। डॉ. सातव का लक्ष्य देश के जनजातीय इलाकों में सौ अस्पताल शुरू करने की है। 

आदिवासी क्षेत्र में फ्री सेवा
पद्मश्री से सम्मानित डॉ. अभय बंग व डॉ. रानी बंग गड़चिरोली के पिछले इलाकों में नवजातों को जीवन का उपहार देने में जुटे हैं। वर्ष 1988 में देश में नवजात मृत्यु दर सबसे अधिक गड़चिरोली में था, प्रति 1000 बच्चों पर 121 । ऐसे में नागपुर से एमबीबीएस करने वाले डॉ. बंग ने इस इलाके में काम करने का निश्चय किया। बंग दंपति ने वर्धा के पास गांव कहांपुर में काम शुरू किया। 

जल्द ही वे समझ गए कि क्लीनिक चलाकर वे लोगों की कुछ खास सेवा नहीं कर सकते हैं। लिहाजा,  उन्होंने जन सेवा के क्षेत्र में काम करने का निश्चय किया। दोनों ने अमेरिका के जॉन होपकिंग्स यूनिवर्सिटी से जन स्वास्थ्य में उच्च शिक्षा पूरी कर गड़चिरोली को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। उन्होंने सर्च, सोसाइटी फॉर एजुकेशन एक्शन एंड रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ की शुरूआत की। 

कोशिशें रंग लाईं
डॉ. बंग के अनुसार, गांवों में स्वास्थ्य सेवा शहर में रह कर नहीं की जा सकती है। आज बंग दंपत्ति की कोशिशों के कारण सरकार भी गड़चिरोली में स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान दे रही है। आज वहां नवजात शिशु मृत्यु दर घटकर 30 रह गई है।

Created On :   1 July 2019 5:54 AM GMT

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