वर्धा का 'लक्ष्मी नारायण मंदिर' जानिए इतिहास

Wardhas Lakshmi Narayan Temple Know History
वर्धा का 'लक्ष्मी नारायण मंदिर' जानिए इतिहास
वर्धा का 'लक्ष्मी नारायण मंदिर' जानिए इतिहास

डिजिटल डेस्क,वर्धा। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित जमनालाल बजाज के प्रयासों से दलितों के लिए बनाया गया लक्ष्मी नारायण मंदिर। ये सिर्फ मंदिर ही नहीं है बल्कि छुआछूत के खिलाफ एक मिसाल है जो इतिहास के पन्नों मे दर्ज है।

गांधीजी के सपनों के इस मंदिर की हाल ही में 89 वीं वर्षगांठ मनाई गई। देश सदियों से वर्ण व्यवस्था और छुआछूत से पीड़ित रहा है। देश में अंग्रेजों के आने के बाद राजनीतिक परिवर्तन तो आया लेकिन सामाजिक स्तर बरकरार रहा। अंग्रेजों के काल में भी सवर्णों की दलितों पर मंदिरों में प्रवेश, सार्वजनिक कुओं के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी। उस समय समाज का वर्चस्ववादी तबका अंग्रेजों से आजादी की मांग तो कर रहा था, लेकिन समाज की सामाजिक विषमता पर चुप्पी साधे हुए था।

सामाजिक भेदभाव के खिलाफ अभियान
सन 1920 के बाद डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर ने सामाजिक भेदभाव के खिलाफ अभियान चला रखा था। अंग्रेजों से दो-दो हाथ करते महात्मा गांधी दलितों के लिए सामाजिक बराबरी की मांग करने लगे। गांधीजी दलित और ब्राह्मणों के साथ-साथ बैठे, भोजन करते, एक ही कुएं का पानी इस्तेमाल करते व भगवान का दर्शन करना चाहते थे। उनके इसी सपने को जमनालाल बजाज ने धरातल पर साकार किया है। गांधीजी वर्धा के जमनालाल बजाज को अपना पांचवां पुत्र मानते थे। गांधीजी के विचारों का प्रभाव उन पर इतना पड़ा कि घर में परदा छूटा, खादी का प्रवेश हुआ, सोना-जेवर नकारे जाने लगे और हर काम में सादगी आई। गांधीजी के दलितों के लिए किए जा रहे रचनात्मक कार्यों में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।

1905 में बना मंदिर
जमनालाल बजाज ने 23 जनवरी 1905 को लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर तथा धर्मशाला के कुएं को वे सभी के लिए खोलना चाहते थे, लेकिन दोनों संस्थानों की व्यवस्था सनातनी ट्रस्टियों के हाथों में थी। कई सालों के प्रयास के बाद उन्होंने ट्रस्ट को कुएं सभी के लिए खोलने पर राजी कर लिया, लेकिन मंदिर को खोलना मुश्किल काम था। उनके इस विचार का ट्रस्ट और समाज में जबर्दस्त विरोध हुआ। आखिर 19 जुलाई 1928 में मंदिर दलितों को दर्शन के लिए खोलने का निर्णय हुआ। दलितों को प्रवेश देने वाला यह देश का पहला मंदिर बन गया।

दादी सदीबाई की स्मृति में बना मंदिर
जमनालाल बजाज की दादी सदीबाई बेहद धार्मिक थी और उनकी इच्छा थी कि लक्ष्मी नारायण का मंदिर बने। मंदिर के लिए उनकी दादी ने एक लाख रुपए की व्यवस्था भी कर रखी थी, लेकिन जमनालाल के दादा बच्छराज बजाज को कारोबार के कारण मंदिर बनाने के लिए समय नहीं मिला। सदीबाई की अंतिम इच्छा के कारण जमनालाल ने मंदिर बनाने की जिम्मेदारी हीरालाल फत्तेपुरिया पर सौंपी। 22 महीने के भीतर मंदिर बन गया, लेकिन इसकी लागत पौने दो लाख पर पहुंच गई। इसके अलावा उस समय डेढ़ लाख की संपत्ति और काफी जायदाद इस मंदिर के नाम कर दी गई।

मंदिर राजस्थानी वास्तुकला का नमूना
मंदिर राजस्थानी वास्तुकला का एक नमूना है और मंदिर राजस्थानी स्टैंडस्टोन से बना हुआ है। विशाल स्तंभों, मेहराबों, छत और जालियों में भी इसी पत्थर का उपयोग हुआ है। अंदर संगमरवरी पत्थरों का फर्श है। प्रवेशद्वार आकर्षक रंगों और तीन भव्य गुंबदों से बना है।

यह मंदिर गांधीजी के विचारों की तरह बेहद सादगी का परिचय देता है। इसका एक उदाहरण एक घटना से मिलता है। बजाज परिवार ने भगवान की मूर्तियों को जो गहने पहनाए थे, वे 1944 में चोरी हो गए। इस चोरी पर गांधीजी ने कहा कि अच्छा हुआ, भगवान की बेड़ी कट गई, चोरों को धन मिला, दोनों राजी हैं। यह बात सुनकर जमनालालजी की पत्नी जानकी देवी ने कहा कि भगवान राजी, चोर राजी, गांधीजी राजी तो मैं भी राजी। तबसे लक्ष्मी नारायणजी कांचन मुक्त हो गए और भगवाधारी भी।

 

Created On :   24 July 2017 7:28 AM GMT

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