जब अमेरिका ने जम्मू एवं कश्मीर विवाद में लगाया दांव (आईएएनएस विशेष)

When America bets in Jammu and Kashmir dispute (IANS Special)
जब अमेरिका ने जम्मू एवं कश्मीर विवाद में लगाया दांव (आईएएनएस विशेष)
जब अमेरिका ने जम्मू एवं कश्मीर विवाद में लगाया दांव (आईएएनएस विशेष)
नई दिल्ली, 9 अगस्त (आईएएनएस)। अमेरिकी राजनयिक एलिस वेल्स जाहिर तौर पर तो अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया जैसे मसले पर पाकिस्तानी नेताओं के साथ द्विपक्षीय वार्ता के लिए इस्लामाबाद पहुंचीं और इस बीच खबर यह भी थी कि वह कश्मीर के मौजूदा हालात पर भी बातचीत कर सकती हैं, मगर संकेत हैं कि वह एफएटीएफ (फाइनेंशियिल एक्शन टास्क फोर्स) के अनुपालन पर फोकस कर रही हैं।

इस बीच, अमेरिका ने देर बुधवार को इस दावे को खारिज कर दिया कि भारत ने जम्मू एवं कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने का फैसला लेने से पहले इस संबंध में अमेरिका को सूचित किया था।

अमेरिकी विदेश विभाग के दक्षिण और मध्य एशिया मामलों के ब्यूरो ने ट्विटर पर अपने एक पोस्ट में कहा, प्रेस में आई खबरों के विपरीत, भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे को निरस्त करने के फैसले से पहले अमेरिकी सरकार से न सलाह ली थी और न ही इस संबंध में अमेरिका को सूचित किया था।

यह ट्वीट कार्यवाहक सहायक विदेशमंत्री, एलिस वेल्स की तरफ से पोस्ट किया गया था।

क्या अमेरिकावासी अपनी पुरानी चाल के अनुसार चल रहे हैं या वे वेस्टफैलियन सॉवरेंटी (अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार किसी देश की संप्रभुता) की अवधारणा स्वीकार करेंगे, जिसके मुताबिक यह (कश्मीर) भारत का आंतरिक मसला है?

इसका जवाब हमारे अपने ही विदेश मंत्रालय से आया। भारतीय विदेश मंत्रालय के सूत्रों ने आईएएनएस को इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि एलिस वेल्स सही हैं, क्योंकि भारत सरकार की ओर से किसी ने अपने अमेरिकी समकक्ष से जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के संबंध में बात नहीं की थी, जोकि न सिर्फ राजनीतिक बल्कि कूटनीतिक मास्टर स्ट्रोक भी है।

पाकिस्तान की ओर से खबर आ रही है कि एलिस वेल्स और उनकी टीम ने पाकिस्तान को प्रतिबंधित आतंकी संगठनों और उनके सरगनाओं के खिलाफ ठोस और संतोषप्रद कदम उठाने को कहा है, ताकि उसे एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट (संदिग्धों की सूची) से बाहर निकलने के उसके मामले को मजबूती मिल सके।

अमेरिकी टीम इससे पहले जून में एफएटीएफ की फ्लोरिडा बैठक में निर्धारित कदमों, कार्रवाइयों और उपायों की समीक्षा करेगी।

एफएटीएफ की अगली बैठक 13-18 अक्टूबर के दौरान पेरिस में होगी, जहां वैश्विक वित्तीय निगरानी संस्था पाकिस्तान के अनुपालनों का मूल्यांकन करेगी।

लेकिन हमेशा यही मामला नहीं होता है।

भारत के आजाद होने के बाद महाशक्तियों के लिए कश्मीर का भू-रणनीतिक और भू-राजनीतिक महत्व समाप्त नहीं हुआ था, क्योंकि उन्होंने उभरते शीत युद्ध में अपने पोजिशन ले चुके थे।

मित्र राष्ट्र गुट ने आखिरकार फासीवाद पर विजय प्राप्त कर ली थी और वे विपरीत ध्रुव बन गए थे और यूरोपीय सीमाओं को दोबारा आकार प्रदान करने के खिलाफ थे। हालांकि कश्मीर इससे काफी दूर था। राजनयिक और रणनीतिकार इसके प्राकृतिक महत्व से अभिूभूत थे, आखिरकार यह भारत का मुकुट है, और इससे कई देशों की अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं लगी हुई हैं।

करीब 70 साल पहले अमेरिका ने कश्मीर को अलग नजरिए से देखा और 1950 के दशक तक अमेरिका को महसूस हुआ कि कश्मीर उसके अपने प्रभाव क्षेत्र का हिस्सा होना चाहिए।

प्रचलित धारणा यह रही कि कश्मीर सिर्फ भारत और पाकिस्तान का मसला है, लेकिन इसके विपरीत इसकी चाहत कहीं ज्यादा थी। यह चाहत सिर्फ ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की ही नहीं थी।

यह बात अधिक स्पष्ट हो गई, क्योंकि शीत युद्ध जब आरंभ ही हुआ था, उस समय क्षेत्र के आसपास सोवियत संघ की मौजूदगी दिन ब दिन बढ़ने लगी थी। कश्मीर को एक ऐसे मुख्य लक्ष्य के रूप में देखा जाता था, जिसका संघर्ष का इतिहास रहा है और जहां राजनीतिक अस्थिरता रही है।

अजरबैजान में रूस के बढ़ते वर्चस्व से अमेरिका परेशान था, ऐसे में कश्मीर पूरी तरह से राजनीतिक खालीपन को लेकर अगला निशाना बनने वाला था।

घाटी में बढ़ता साम्यवाद कुछ ऐसा था कि जिसका अंदाजा अमेरिका के साथ-साथ भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी लगाया था और वे इसको लेकर चिंतित थे।

यही समय था, जब कश्मीर में निगरानी को लेकर अमेरिका की भूमिका शुरू हुई।

अमेरिकी खुफिया द्वारा 1951 के ग्रीष्मकाल में पेश एक गुप्त रिपोर्ट में बताया गया है कि कश्मीर के सवाल में प्रमुख अमेरिकी अधिकारी शामिल थे।

उधर, ऑल इंडिया जम्मू-कश्मीर नेशनल कान्फ्रेंस ने 27 अक्टूबर, 1950 को यह सिफारिश करने का प्रस्ताव पारित किया कि जम्मू-कश्मीर राज्य का भविष्य तय करने के लिए संविधान सभा का गठन किया जाना चाहिए।

जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का चुनाव जिस क्षेत्र में होना था, वह प्रदेश का सिर्फ एक ही हिस्सा था।

पाकिस्तान के विदेश और राष्ट्रमंडल संबंध मामलों के मंत्री सर मोहम्मद जफरुल्ला खान ने 14 दिसंबर, 1950 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के नाम लिखे अपने पत्र में उनका ध्यान भारतीय प्रेस की उन रपटों की ओर आकर्षित किया था, जिसमें प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रस्तावित संविधान सभा का स्वागत किया था और उन्होंने घोषणा की थी कि इससे राज्य के भारत में विलय की औपचारिक पुष्टि होगी।

फिर प्रेस रपट में इस बात का संकेत दिया गया कि जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह की सरकार द्वारा चुनाव कराने के लिए एक औपचारिक घोषणा होने वाली थी। जफरुल्ला ने आरोप लगाया कि इसस कदम से 13 अगस्त, 1948 और पांच जनवरी, 1949 के बीच यूएनसीआईपी प्रस्ताव में शामिल भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर्राष्ट्रीय समझौता निरस्त हो जाएगा।

उन्होंने सुरक्षा परिषद से कश्मीर के सवाल पर शीघ्र विचार करने की मांग करते हुए परिषद से आग्रह किया कि वह भारत को ऐसा करने से रोके।

उन्होंने सुरक्षा परिषद से भारत को कश्मीर में स्वतंत्र व निष्पक्ष जनमत संग्रह कराने के सिवा और कोई कार्रवाई करने से रोकने का आग्रह किया।

इन सबके बीच जम्मू-कश्मीर के प्रधामंत्री शेख अब्दुल्ला और बक्शी गुलाम मुहम्मद की अहम भूमिका रही। बक्शी न सिर्फ प्रधानमंत्री के प्रमुख मध्यस्थ के जरिए दिल्ली से लगातार संपर्क में रहे, बल्कि उन्होंने कश्मीर के जमीनी हालात के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की।

15 फरवरी, 1954 को बक्शी की अध्यक्षता में कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में कश्मीर विधानसभा में वोट पड़ने के बाद नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि जनमत संग्रह की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जनता के प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया है।

--आईएएनएस

Created On :   9 Aug 2019 4:30 PM GMT

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