यादों में उस्ताद आवाज का वो आफताब जो ध्रुपद और खयाल का बना संगम
नई दिल्ली, 4 नवंबर (आईएएनएस)। अगर आप फैयाज खां को सिर्फ एक खयाल गायक मानते हैं, तो शायद आप उनकी कला के आधे हिस्से से वंचित हैं। उनकी श्रेष्ठता का असली प्रमाण यह है कि वह एक ही महफिल में पूरी दृढ़ता और शुचिता के साथ ध्रुपद-धमार और खयाल प्रस्तुत कर सकते थे।
ध्रुपद भारतीय संगीत की सबसे प्राचीन और पवित्र शैली है, जिसमें लय और ताल की शुद्धता सर्वोच्च होती है। फैयाज खां जब ध्रुपद गाते थे, तो ऐसा लगता था मानो युगों पुरानी परंपरा साक्षात मंच पर उतर आई हो। उनके ध्रुपद गायन में नोम-तोम (मंत्रों की तरह अलंकरण रहित आलाप) की जो धीमी, लयबद्ध और गहराई भरी प्रक्रिया होती थी, वह समां बांध देती थी। वह ध्रुपद में भी एक ऐसी धीमी, थमी हुई गति (विलंबित लय) का इस्तेमाल करते थे, जो हर नोट को एक महान वास्तुकला की तरह खड़ा करता था।
जहां ध्रुपद में अनुशासन था, वहीं खयाल में उन्होंने अपार स्वतंत्रता और भावुकता का प्रदर्शन किया। खयाल की उनकी सबसे बड़ी विशेषता 'बोल-बनाओ' थी। इसका अर्थ है, बंदिश के शब्दों (बोलों) को आधार बनाकर राग के हर पहलू को धीरे-धीरे विकसित करना। यह आलाप का एक रचनात्मक विस्तार था, जिसमें एक-एक शब्द को राग के रंग में डुबोकर श्रोताओं के सामने परोसा जाता था। उनके खयाल में लयकारी इतनी सहज और सधी हुई होती थी कि जटिलतम ताल भी कविता की तरह मधुर लगते थे।
वह राग की पवित्रता (शुद्धता) के साथ-साथ श्रोता के मन को छूने की कला में भी माहिर थे। उस्ताद फैयाज खां का जन्म 1886 में उत्तर प्रदेश के सिकंदरा में एक ऐसे परिवार में हुआ था, जिसकी रगों में सदियों पुराना संगीत बहता था। उनका लालन-पालन उनके नाना, उस्ताद गुलाम अब्बास खां ने किया, जो स्वयं आगरा घराने के एक शीर्ष गायक थे। आगरा घराना, जिसे 'रंगीले घराना' भी कहा जाता था, अपनी नोम-तोम की ध्रुपद शैली और बोल-बनाओ प्रधान खयाल गायकी के लिए प्रसिद्ध था।
फैयाज खां की मंचीय उपस्थिति किसी राजा से कम नहीं थी। वह भारी-भरकम, मगर अत्यंत गरिमामयी व्यक्तित्व के धनी थे। जब वह बैठते थे, तो उनका सारा ध्यान संगीत पर केंद्रित होता था और उनके चेहरे के भाव राग के बदलते रंगों को दर्शाते थे।
उन्हें बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ 3 का संरक्षण प्राप्त था, जहां वे दरबारी गायक के रूप में रहे और उन्हें 'गयान रत्न' की उपाधि से नवाजा गया।
उनके बारे में कई दिलचस्प किस्से मशहूर हैं। कहा जाता है कि जब वह किसी राग का आलाप शुरू करते थे, तो महफिल में सन्नाटा छा जाता था और उनका असाधारण विस्तार इतना लंबा होता था कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
वह केवल गायक नहीं थे, बल्कि संगीत के एक महान शिक्षक भी थे। उनके शिष्यों ने उनकी शैली को आगे बढ़ाया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि उनके जाने के बाद भी आगरा घराने की मशाल जलती रहे।
5 नवंबर 1950 में जब उस्ताद फैयाज खां दुनिया से रुखसत हुए, तो उन्होंने अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ी, जिसे आज भी संगीत की पाठ्यपुस्तकों में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। उनकी रिकॉर्डिंग्स, जो दुर्भाग्यवश उनकी लाइव परफॉर्मेंस की पूरी भव्यता को कैप्चर नहीं कर पाईं, फिर भी उनकी कला की एक झलक पेश करती हैं।
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Created On :   4 Nov 2025 11:58 PM IST












