जयंती विशेष जब शिक्षक की सलाह बनी दिशा, सदानंद बाकरे ने रचा ऐसा संसार जहां रंग भी बोल उठे

जयंती विशेष  जब शिक्षक की सलाह बनी दिशा, सदानंद बाकरे ने रचा ऐसा संसार जहां रंग भी बोल उठे
कला और चित्रकारी वह साधना है, जहां रंग शब्दों से अधिक बोलते हैं और आकार भावनाओं का रूप लेते हैं। यहां सिर्फ रेखाओं का खेल नहीं, बल्कि मन की गहराइयों से निकली अनुभूति होती है। इसी को सदानंद बाकरे ने आत्मसात करके मूर्तियों और चित्रकारी का रूप दिया। वे एक ऐसे मूर्तिकार और चित्रकार थे, जिनके स्पर्श से मिट्टी में प्राण आते और कैनवास पर रंग गुनगुनाने लगते।

नई दिल्ली, 9 नवंबर (आईएएनएस)। कला और चित्रकारी वह साधना है, जहां रंग शब्दों से अधिक बोलते हैं और आकार भावनाओं का रूप लेते हैं। यहां सिर्फ रेखाओं का खेल नहीं, बल्कि मन की गहराइयों से निकली अनुभूति होती है। इसी को सदानंद बाकरे ने आत्मसात करके मूर्तियों और चित्रकारी का रूप दिया। वे एक ऐसे मूर्तिकार और चित्रकार थे, जिनके स्पर्श से मिट्टी में प्राण आते और कैनवास पर रंग गुनगुनाने लगते।

सदानंद बाकरे का जन्म 10 नवंबर 1920 को बड़ौदा में हुआ था। उनके दादा बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव के दरबार में उच्च पद पर थे। उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे, जो शस्त्र चलाने में निपुण थे और आयुर्वेदिक चिकित्सा के बारे में बहुत कुछ जानते थे। सदानंद की प्रारंभिक शिक्षा बड़ौदा में हुई। जब परिवार बड़ौदा से बंबई चला गया तो सदानंद ने गोखले एजुकेशन सोसाइटी के स्कूल में दाखिला लिया।

उनके ड्राइंग शिक्षक ने उनके ड्राइंग के प्रति लगाव को देखा। उन्हें चित्र बनाने और पेंटिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया। 16 साल की उम्र में, उन्होंने गोखले एजुकेशन सोसाइटी के स्कूल में आकृतियों, पेस्टल वर्क, स्टिल लाइफ, वाटर कलर लैंडस्केप और यहां तक ​​कि मिट्टी के मॉडल के चित्रों की अपनी पहली प्रदर्शनी लगाई। सदानंद इस प्रदर्शनी में मिले समर्थन और प्रशंसा से प्रेरित हुए।

सौभाग्य से एक शुभचिंतक ने उनका परिचय सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट के निदेशक चार्ल्स गेरार्ड से कराया। गेरार्ड सदानंद के चित्रों से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें तुरंत प्रवेश दे दिया। इस प्रकार, सदानंद बॉम्बे स्कूल ऑफ आर्ट में शामिल हो गए।

वे वर्ष 1939 में स्कूल के मूर्तिकला विभाग में शामिल हो गए, जहां स्कूल की ओर से मिट्टी, प्लास्टर और उपकरण उपलब्ध कराए जाते थे। उन दिनों छात्रों को कठोर अनुशासन में कलात्मक शैली सिखाई जाती थी, जिसे सदानंद ने तुरंत आत्मसात कर लिया। जल्द ही सदानंद ने अपनी प्रतिभा और परिश्रमी स्वभाव से मिट्टी से मूर्तिकला बनाने, प्लास्टर कास्ट और कांस्य ढलाई बनाने की तकनीक सीख ली। इसके बाद, उन्होंने कला प्रदर्शनियों में अपनी मूर्तियों के लिए पुरस्कार भी जीतने शुरू कर दिए थे।

एक समय बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की प्रदर्शनी समिति के खिलाफ 'प्रगतिशील कलाकार समूह' बना था। सदानंद बाकरे इस ग्रुप में एकमात्र मूर्तिकार थे, हालांकि वे एक चित्रकार भी थे। सदस्य हमेशा चर्चा के लिए एकत्रित होते थे और एक-दूसरे की मदद करते थे। इस बीच, बॉम्बे आर्ट सोसाइटी ने नियमों में बदलाव किया और कलाकारों को वार्षिक प्रदर्शनियों में चित्रकला और मूर्तिकला, दोनों श्रेणियों में प्रदर्शन करने की अनुमति दे दी। सदानंद ने इस बदलाव का पूरा लाभ उठाया और वार्षिक प्रदर्शनी में अपनी पेंटिंग्स के साथ-साथ मूर्तियां भी भेजीं और दोनों वर्गों में पुरस्कार जीते।

सदानंद बाकरे ने अपनी मूर्तियों के लिए अलग-अलग सामग्रियों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया। 'सेंटॉर' लकड़ी में उकेरी गई थी। 'एक्रोबैट' सीमेंट कंक्रीट में थी, जिसकी बनावट अत्यंत संवेदनशील थी। यह मूर्तिकला वर्तमान में नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, बॉम्बे के संग्रह में है। स्टेट म्यूजियम, बड़ौदा के निदेशक हरमन गोएट्ज इस प्रदर्शनी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप को बड़ौदा में वहां के स्टेट म्यूजियम में प्रदर्शनी आयोजित करने के लिए आमंत्रित किया।

इसी दौर में उनका लंदन जाना हुआ। वहां सब कुछ नया था। न किसी को जानते थे और न कमाई का कोई जरिया था। वे काफी समय इधर-उधर नौकरी करके गुजारा करते रहे। इसी बीच जब वह लंदन के बॉन्ड स्ट्रीट स्थित एक जौहरी की दुकान पर विंडो शॉपिंग कर रहे थे, तो एक खास आभूषण को देखकर उन्होंने उसके डिजाइन में सुधार के लिए एक स्केच बनाया। उस समय दुकान का मालिक बाहर आया और उसने सदानंद को स्केच बनाते हुए देख लिया। मालिक इससे प्रभावित हुआ और उसे एक आभूषण डिजाइनर के रूप में नौकरी दे दी।

सदानंद ने एक आकर्षक ब्रेसलेट डिजाइन किया, जिसमें उन्होंने अमेरिकी सिंगर एल्विस प्रेस्ली की एक तस्वीर लगाई, जो एक बार लगाने के बाद निकाली नहीं जा सकती थी। उन दिनों उनके संगीत का क्रेज था और इस तरह यह ब्रेसलेट फेमस हो गया। इसका इनाम सदानंद को भी मिला।

लंदन में ही उनकी पेंटिंग में रुचि बढ़ने लगी। उन्होंने कई पेंटिंग बनाईं और हाइड पार्क में अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी शुरू कर दी। उन्होंने इस तरह अपनी कई पेंटिंग्स बेचीं। इसके बाद, भारत लौटने पर उन्होंने रंगों को आकार देना बंद नहीं किया। कई पेंटिंग के जरिए काफी चर्चाएं बंटोरीं। 2004 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी ने उन्हें 'रूपधर' सम्मान और 50 हजार रुपए की राशि प्रदान करके सम्मानित किया। सदानंद बाकरे की जिंदगी के बारे में कला इतिहासकार नलिनी भागवत के लेख में जिक्र मिलता है, जो 'आकृति आर्ट गैलरी' की वेबसाइट पर उपलब्ध है।

18 दिसंबर 2007 को सदानंद बाकरे ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका निधन कला जगत के लिए एक बड़ी क्षति थी।

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Created On :   9 Nov 2025 10:41 PM IST

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