झलकारी बाई गुमनाम वीरांगना जो लक्ष्मीबाई को बचाने के लिए खुद बन गई 'झांसी की रानी'

झलकारी बाई  गुमनाम वीरांगना जो लक्ष्मीबाई को बचाने के लिए खुद बन गई झांसी की रानी
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना अहम योगदान देने वाली कई ऐसी वीरांगनाएं हैं, जिनकी बहादुरी की कहानी इतिहास के पन्नों में दफन हो गई। हर साल 22 नवंबर को जब हम झलकारी बाई की जयंती पर उस महान योद्धा को याद करते हैं, जिसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अपना साहस दिखाकर देश की आजादी की लड़ाई में इतिहास रच दिया।

नई दिल्ली, 21 नवंबर (आईएएनएस)। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना अहम योगदान देने वाली कई ऐसी वीरांगनाएं हैं, जिनकी बहादुरी की कहानी इतिहास के पन्नों में दफन हो गई। हर साल 22 नवंबर को जब हम झलकारी बाई की जयंती पर उस महान योद्धा को याद करते हैं, जिसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अपना साहस दिखाकर देश की आजादी की लड़ाई में इतिहास रच दिया।

22 नवंबर 1830 को झांसी के निकट भोजला गांव में एक साधारण परिवार में जन्मीं झलकारी बाई का जीवन संघर्षों में बीता। हालांकि, वे साधारण बनने के लिए नहीं जन्मीं थीं। बचपन से ही घुड़सवारी, अस्त्र-शस्त्र और युद्ध कौशल में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। कहा जाता है कि उन्होंने तीरंदाजी, कुश्ती और निशानेबाजी की कला अपने पति पूरन कोरी से सीखी, जो रानी लक्ष्मीबाई के पति राजा गंगाधर राव की सेना में सैनिक थे।

जानकारी के अनुसार, झलकारी बाई कभी-कभी अपने पति के साथ शाही महल जाया करती थीं, जहां शुरुआत में उन्होंने नौकरानी के रूप में काम किया। लेकिन, जब रानी लक्ष्मीबाई को उनकी बहादुरी, तेज बुद्धि और निर्भीक स्वभाव के बारे में पता चला तो दोनों के बीच मित्रता हो गई। कई लोग तो यह भी मानने लगे कि उनके चेहरे-मोहरे और शारीरिक गठन की समानता रानी लक्ष्मीबाई से इतनी थी कि एक नजर में रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई में किसी एक को पहचानना कठिन हो जाता था।

झलकारी बाई की प्रतिभा और साहस को देखते हुए उन्हें रानी ने दुर्गा दल झांसी की नियमित सेना की महिला शाखा का सेनापति बनाया। वे रानी की विश्वसनीय सलाहकार भी बनीं और कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने में अग्रणी भूमिका निभाईं।

साल 1858 में अंग्रेज जनरल सर ह्यू रोज के नेतृत्व में झांसी के किले पर हमला हुआ। ये वो समय था, जब विद्रोह पूरे उत्तर और मध्य भारत में फैल चुका था। झलकारी बाई ने पूरन कोरी के साथ मिलकर अंग्रेजों की सेना का डटकर मुकाबला किया। युद्ध की चाल तेजी से बदल रही थी, रानी लक्ष्मीबाई और उनके पुत्र की सुरक्षा सर्वोपरि थी। ऐसे समय में झलकारी बाई ने वह निर्णय लिया, जिसने इतिहास की धारा मोड़ दी और हर किसी को अचंभित कर दिया। उन्होंने स्वयं रानी लक्ष्मीबाई का वेश धारण किया और सेना की कमान संभालकर अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया।

झलकारी बाई की शक्ल-सूरत की समानता के चलते अंग्रेज लंबे समय तक भ्रमित रहे। इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे के साथ सुरक्षित महल से निकलने में सफल हो सकीं। अगर झलकारी बाई ने उस समय यह कदम नहीं उठाया होता तो झांसी का इतिहास आज शायद कुछ और होता।

झलकारी बाई के पति पूरन कोरी युद्ध में शहीद हो गए। यह सुनकर झलकारी बाई 'घायल बाघिन' की तरह फिर से रणभूमि में उतरीं और कई अंग्रेजी सैनिकों का संहार कर डाला। किंवदंतियों के अलग-अलग संस्करण हैं; कुछ का मानना है कि वे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुईं और उनकी असली पहचान अंग्रेज कभी जान नहीं पाए। कुछ मानते हैं कि उन्हें बाद में रिहा कर दिया गया और वे 1890 तक जीवित रहीं।

बुंदेलखंड की लोक स्मृति में आज भी झलकारी बाई अमर हैं। उनकी वीरता की कथा लोकगीतों, लोककथाओं और जनश्रुतियों में आज भी गूंजती है। उस क्षेत्र के कई दलित समुदाय उन्हें भगवान के अवतार के रूप में पूजते हैं। उनके सम्मान में प्रतिवर्ष झलकारी बाई जयंती मनाई जाती है। झलकारी बाई को इतिहास ने भले ही पर्याप्त पन्ने न दिए हों, लेकिन हर भारतवासी के दिलों में वह आज भी जीवित हैं।

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Created On :   21 Nov 2025 3:25 PM IST

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