कभी ऐशो-आराम, फिर खाली जेब, कृश्न चंदर ने कठिन दौर के बाद फिर से बनाई अपनी पहचान

कभी ऐशो-आराम, फिर खाली जेब, कृश्न चंदर ने कठिन दौर के बाद फिर से बनाई अपनी पहचान
उर्दू कथा-साहित्य में अपनी अनूठे लेखन से दिलों में घर बनाने वाले कहानीकार कृश्न चंदर को आज लोग उनकी बेहतरीन कहानियों और इंसानियत से लबरेज नजरिए के लिए याद करते हैं। लेकिन उनकी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ भी आया था, जब आर्थिक तंगी ने उन्हें अपनी कारें बेचने पर मजबूर कर दिया, नौकरों को हटाना पड़ा और बंबई जैसे शहर में दोबारा पांव जमाने के लिए उन्हें शून्य से शुरुआत करनी पड़ी।

नई दिल्ली, 22 नवंबर (आईएएनएस)। उर्दू कथा-साहित्य में अपनी अनूठे लेखन से दिलों में घर बनाने वाले कहानीकार कृश्न चंदर को आज लोग उनकी बेहतरीन कहानियों और इंसानियत से लबरेज नजरिए के लिए याद करते हैं। लेकिन उनकी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ भी आया था, जब आर्थिक तंगी ने उन्हें अपनी कारें बेचने पर मजबूर कर दिया, नौकरों को हटाना पड़ा और बंबई जैसे शहर में दोबारा पांव जमाने के लिए उन्हें शून्य से शुरुआत करनी पड़ी।

23 नवंबर 1914 को राजस्थान के भरतपुर में जन्मे कृश्न चंदर बचपन से ही संवेदनशील और साहसी थे। पिता गौरी शंकर चोपड़ा मेडिकल अफसर थे और नौकरी के कारण परिवार पुंछ चला गया। वहीं उनका बचपन गुजरा। पढ़ाई-लिखाई के दौरान ही उन्हें साहित्य में दिलचस्पी होने लगी। उर्दू पांचवीं जमात से पढ़ी और फारसी आठवीं में ले ली। इसके बाद लाहौर के फारमन क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ते हुए उनका मेल भगत सिंह के साथियों से हुआ और वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। गिरफ्तार हुए, किले में नजरबंद रहे और पढ़ाई में असफल होकर घर से भागे, फिर मां की बीमारी की खबर पर लौट आए। जीवन के शुरुआती उतार-चढ़ावों ने शायद उन्हें वह गहराई दी, जो बाद में उनकी कहानियों में दिखती है।

साहित्यिक मोहब्बत लगातार गहराती गई। 1943 में पहला उपन्यास 'शिकस्त' आया। इसी दौरान वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन से जुड़े, सज्जाद जहीर और अहमद अली जैसे लोगों से संपर्क हुआ और पंजाब की प्रगतिशील लेखक संघ के सेक्रेटरी बने। 1939 में वे ऑल इंडिया रेडियो चले गए, जहां तीन साल तक नौकरी की। लेकिन रेडियो की नौकरी उन्हें बांध नहीं पा रही थी। उसी समय शालीमार फिल्म कंपनी के जेड अहमद ने उनका एक अफसाना पढ़ा और फिल्मों में संवाद-लेखन का प्रस्ताव दिया।

बस, यहीं से उनकी जिंदगी ने एक और मोड़ लिया। वो पुणे पहुंचे, जहां एक तरह की रंगीन शुरुआत उनका इंतजार कर रही थी। फिल्मों की दुनिया ने उन्हें सितारों से मिलवाया, ऐशो-आराम दिया और साहित्यिक रूप से भी यह उनके लिए नया दौर था। इसी दौरान उन्होंने 'अन्नदाता' जैसी यादगार कहानियां लिखीं।

1946 में बंबई पहुंचना उनके लिए करियर की नई परतें खोलने वाला कदम था। बंबई टॉकीज की नौकरी, बढ़ती पहचान और फिर अचानक फिल्मों में निर्माता-निर्देशक बनने की चाह। पहली फिल्म 'सराय के बाहर' बनाई, जो बुरी तरह असफल रही। दूसरी फिल्म 'राख' डब्बे में ही बंद रह गई और तभी वह समय शुरू हुआ, जिसका जिक्र कृश्न चंदर के जीवन में एक गहरे घाव की तरह मौजूद है।

फिल्मों की लगातार नाकामी ने उन्हें आर्थिक रूप से डुबा दिया। कर्ज बढ़ता गया। आमदनी का कोई स्थिर जरिया नहीं था और बंबई, वह शहर जो आपको चमक तो देता है लेकिन गिरने पर किसी का हाथ नहीं पकड़ता, धीरे-धीरे उनकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा था। नौबत यह आ चुकी थी कि जो कारें कभी उनकी कामयाबी का प्रतीक थीं, अब कर्ज चुकाने का जरिया बन गईं।

इसके बाद बारी आई नौकरों को हटाने की। उस घर में, जहां कभी रौनक रहती थी, अब एक अजीब-सा सन्नाटा बस गया। यह वह दौर था जब एक बेहद लोकप्रिय लेखक, जिसे दुनिया पढ़ती थी, जिस पर अफसानों पर तालियां पड़ती थीं, उसी लेखक को रोजमर्रा की जिंदगी की चिंता में डूबना पड़ा। यह वह क्षण था जब उनकी महानता के पीछे छिपे मनुष्य की छवि पूरी तरह उजागर होती है। कृश्न चंदर की जिंदगी के इस क्षण का जिक्र उर्दू कविता और साहित्य की वेबसाइट 'रेख्ता.ओआरजी' की वेबसाइट पर उपलब्ध उनके जीवन परिचय में मिलता है।

लेकिन कृश्न चंदर हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने उस पूरे संकट का सामना सीने पर हाथ रखकर किया। उन्होंने फिर से अपनी कलम को हथियार बनाया। दो दर्जन से अधिक फिल्मों के लिए कहानी, संवाद और स्क्रिप्ट लिखी, जिनमें से कई सफल हुईं। फिल्मों में भले वह ऊंचाई नहीं मिली जिसकी वह शख्सियत हकदार थी, लेकिन धीरे-धीरे जिंदगी संभलने लगी थी।

उधर साहित्य में उनकी चमक पहले की तरह बरकरार रही। उन्होंने रूमानी यथार्थवाद को नई ऊंचाइयां दीं। 'कालू भंगी' जैसी कहानियों में उन्होंने समाज के सबसे हाशिए पर खड़े इंसानों को आवाज दी। उनकी कहानियां स्केच के साथ मिलकर एक नई शैली में बदल गईं, जिसे आलोचक आज भी उर्दू फिक्शन का महत्वपूर्ण मोड़ मानते हैं।

हालांकि, 8 मार्च 1977 को कृश्न चंदर इस दुनिया को छोड़कर चले गए।

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Created On :   22 Nov 2025 6:48 PM IST

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