डॉ. राजेंद्र प्रसाद गांधी जी के साथी से लेकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने तक कायम रखी सादगी और त्याग की मिसाल

डॉ. राजेंद्र प्रसाद गांधी जी के साथी से लेकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने तक कायम रखी सादगी और त्याग की मिसाल
बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में जन्मे महान सपूत, डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई, बल्कि गणतंत्र भारत के नवनिर्माण में भी अमिट छाप छोड़ी। 'देशरत्न' के नाम से विख्यात डॉ. प्रसाद का जीवन सादगी, त्याग और सेवा का प्रतीक रहा। राष्ट्रपति भवन से लेकर गांव-गली तक उनकी स्मृति आज भी प्रेरणा स्रोत बनी हुई है।

नई दिल्ली, 2 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में जन्मे महान सपूत, डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई, बल्कि गणतंत्र भारत के नवनिर्माण में भी अमिट छाप छोड़ी। 'देशरत्न' के नाम से विख्यात डॉ. प्रसाद का जीवन सादगी, त्याग और सेवा का प्रतीक रहा। राष्ट्रपति भवन से लेकर गांव-गली तक उनकी स्मृति आज भी प्रेरणा स्रोत बनी हुई है।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत के विद्वान, जबकि माता कमलेश्वरी देवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। चार भाई-बहनों में सबसे छोटे राजेंद्र बचपन से ही मेधावी थे। मात्र पांच वर्ष की आयु में उन्होंने फारसी की शिक्षा ग्रहण की। छपरा जिला स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने प्रेजिडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में प्रवेश लिया।

1902 में इंटरमीडिएट परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने पर उन्हें रॉबर्ट फेलोशिप मिली। दिसंबर 1907 में अर्थशास्त्र में एम.ए. पूरा किया, फिर 1915 में विधि स्नातक (एलएलबी) में स्वर्ण पदक जीता। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ लॉ की उपाधि प्राप्त करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। वकालत में सफलता मिली, लेकिन राष्ट्रसेवा ने उन्हें वशीभूत कर लिया।

डॉ. प्रसाद का वैवाहिक जीवन भी उस युग की परंपरा के अनुरूप था। मात्र 12 वर्ष की आयु में 1896 में उनका विवाह राजवंशी देवी से हो गया। पत्नी के निधन के बाद वे विधुर रहे। उनके पुत्र महेंद्र प्रसाद भी राजनीति में सक्रिय हुए। डॉ. प्रसाद का जीवन उच्च विचारों से ओतप्रोत था। वे वेदांत, धर्म और साहित्य के प्रेमी थे। उनकी रचनाएं जैसे 'भारत विभाजन', 'चंपारण में सत्याग्रह' और 'आत्मकथा' आज भी प्रासंगिक हैं। हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक डॉ. प्रसाद ने सामाजिक सुधारों में भी योगदान दिया।

स्वतंत्रता आंदोलन में डॉ. प्रसाद का प्रवेश 1917 के चंपारण सत्याग्रह से हुआ। महात्मा गांधी के आह्वान पर वे बिहार पहुंचे और नील किसानों के शोषण के खिलाफ खड़े हुए। लगभग 25,000 किसानों के बयान दर्ज कर सरकार को झुकाने में सफल रहे। यह आंदोलन गांधीजी के अहिंसक सिद्धांतों का पहला प्रयोग था, जिसने डॉ. प्रसाद को राष्ट्रीय पटल पर स्थापित किया। 1918 के रॉलेट एक्ट और 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें गांधीजी के करीब ला दिया।

1920 में असहयोग आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने वकालत छोड़ दी। डॉ. प्रसाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चार बार (1934, 1939, 1947, 1948) अध्यक्ष चुने गए। नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन और व्यक्तिगत सत्याग्रह में उनकी सक्रियता सराहनीय रही। जेल यात्राओं के बावजूद वे कभी विचलित नहीं हुए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद डॉ. प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष बने। उन्होंने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंतिम रूप दिया। 26 जनवरी 1950 को वे भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। 12 वर्षों (1950-1962) तक इस पद पर रहते हुए उन्होंने लोकतंत्र की जड़ें मजबूत कीं। संविधान के निर्माण में उनकी भूमिका निष्पक्ष और सुव्यवस्थित रही। वे एकमात्र राष्ट्रपति हैं जो लगातार दो बार चुने गए। राष्ट्रपति भवन में भी सादा जीवन जिया- खादी पहने, शाकाहारी भोजन और प्रार्थना सभाओं से जुड़े रहे। 1962 में भारत रत्न से सम्मानित होने के बाद उन्होंने पद छोड़ दिया।

डॉ. प्रसाद का निधन 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में हुआ। अपने अंतिम दिनों में वे आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहे। उनका जीवन 'सादा जीवन, उच्च विचार' का सार था। वे कहते थे, "राष्ट्रसेवा ही मेरा धर्म है।"

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Created On :   2 Dec 2025 5:35 PM IST

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