'उर्वशी' के लिए प्राणों की बाजी लगाने को तैयार थे दिनकर, साधना से मिला ज्ञानपीठ सम्मान

नई दिल्ली, 22 सितंबर (आईएएनएस)। यूं तो हिंदी साहित्य के आकाश में अनेक सितारे जगमगाए, पर रामधारी सिंह दिनकर उस सूर्य के समान हैं, जिसकी लौ समय के साथ और प्रखर होती चली गई। उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में जाना जाता है, पर वास्तव में वे एक विश्वकवि, महाकवि और जनकवि का रूप थे। उनका काव्य ओज से भरपूर है, राग से भरा है और अध्यात्म की गहराइयों में डूबा हुआ भी। इनको समेटकर यही कहा जा सकता है कि उनकी कविताएं आग, राग और अध्यात्म का अनूठा संगम हैं, जो समय की सीमाओं को लांघकर आज भी पाठकों के हृदय को छूती हैं।
23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गांव में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर के साहित्यिक जीवन की शुरुआत 1924 में पाक्षिक 'छात्र सहोदर' (जबलपुर) में प्रकाशित कविता से हुई। इसके बाद दिनकर की 'काव्य यात्रा' अनेक पड़ावों से होकर गुजरी। रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा जैसे काव्य उनकी महानता को दर्शाते हैं, तो वहीं उनकी एक कालजयी कृति 'उर्वशी' उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का एक ऐसा आयाम है, जिसमें सौंदर्य, प्रेम, स्त्री और पुरुष के भावलोक का एक अत्यंत सूक्ष्म, गंभीर और सांस्कृतिक विश्लेषण उपस्थित होता है।
हालांकि, 'उर्वशी' काव्य का लेखन उनके लिए इतना आसान नहीं था।
पहले कवि चाहता है कि कविता उसे पकड़ ले, और जब कविता उसे पकड़ लेती है, तब कवि से न सोते बनता है, न जागते बनता है। अधूरी कविता क्षण-क्षण उसके दिमाग में सुई चुभोती रहती है और जब तक कविता पूरी न हो जाए, कवि दिन-रात परेशानी में पड़ा रहता है। 'उर्वशी' काव्य की रचना के समय 8 सालों तक यही सब कुछ रामधारी सिंह दिनकर ने भोगा था।
'दिनकर की डायरी: दिनकर ग्रंथमाला' में 'उर्वशी' काव्य की रचना के समय दिनकर के इस दुख का विवरण मिलता है।
सन् 1953 की बात है। आकाशवाणी के प्रतिष्ठित अधिकारी कर्तारसिंह दुग्गल ने दिनकर से अनुरोध किया कि वे रेडियो प्रसारण के लिए कोई पद्य-नाटक लिखें। दिनकर ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और इसी से 'उर्वशी' की रचना का बीज बोया गया। इसका प्रथम अंक तैयार हुआ और आकाशवाणी से प्रसारित भी हुआ। लेकिन इसके बाद दिनकर को इस काव्य में एक ऐसी विशाल संभाव्यता की झलक मिली कि उन्होंने उसे रेडियो के दायरे में बांधने से इनकार कर दिया।
उन्होंने कर्तारसिंह दुग्गल से कहा, "दुग्गल जी, अब इसका आगे का अंश मैं रेडियो की दृष्टि से नहीं लिखूंगा। इस काव्य के भीतर मुझे बहुत बड़ी संभावना दिखाई देने लगी है। अब कविता उसी राह से चलेगी, जिस राह से वह चलना चाहेगी।" इस तरह रेडियो से प्रसारण की बात वहीं खत्म हो गई। 'दिनकर की डायरी' में इस संवाद का उल्लेख है।
हालांकि, इससे आगे दिनकर के लिए इस रचना में चुनौतियां बढ़ने लगीं। वे लिखते हैं, "इस काव्य की रचना में मुझे जितनी कठिनाई हुई है, उतनी कठिनाई किसी अन्य काव्य की रचना में नहीं हुई थी। कविता जहां आकर रुक गई, उसे वहां से आगे ले चलने का रास्ता दो-दो साल तक नहीं सूझा। इस काव्य की पांडुलिपि और अन्य सामग्री को लिए हुए मैं कहां-कहां नहीं घूमा हूं।"
दिनकर इस कविता की अधूरी पंक्तियां और सामग्री लेकर दिल्ली से कश्मीर तक भटके। एक बार तो सारी पांडुलिपि लेकर कश्मीर की शांति में भी जा पहुंचे, लेकिन कविता की एक पंक्ति तक नहीं बन सकी। रांची के एक बागीचे में थोड़ी बहुत प्रगति हुई, पर फिर रचना रुक गई।
सबसे अधिक कठिन समय तब आया जब 1960 में दिनकर गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। शरीर जवाब देने लगा था, और यह भय सताने लगा कि कहीं मृत्यु पहले न आ जाए और 'उर्वशी' अधूरी न रह जाए। पर दिनकर ने निर्णय लिया, अब चाहे कुछ भी हो, इस कविता को पूरा किए बिना वे प्राण नहीं त्यागेंगे।
डॉक्टरों ने उन्हें मना किया, क्योंकि गहन रचना-समाधि में जाने पर उन्हें मूर्च्छा आने लगती थी। लेकिन दिनकर ने विनती की, "अब तो प्राण का मोह नहीं है, बस कविता को पूरा करना है।" डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी, "जब मूर्च्छा आए तो थोड़ा-सा मधु चाट लिया करें।" और इस प्रकार दिनकर ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना, इस अमर काव्य की रचना पूरी की।
जब 'उर्वशी' पूरी हुई, तब दिनकर ने संतोष अनुभव किया। रामधारी सिंह दिनकर का 'उर्वशी' काव्य 1961 में प्रकाशित हुआ। दिल को छू जाने वाले इस काव्य के लिए रामधारी सिंह दिनकर को 1973 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
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Created On :   22 Sept 2025 9:13 PM IST