समाज: पुण्यतिथि विशेष स्वतंत्रता संग्राम के अनमोल रत्न देशबंधु चित्तरंजन दास, जिनका वकालत से स्वराज तक का सफर रहा शानादर

नई दिल्ली, 15 जून (आईएएनएस)। ऐसा दौर जब ब्रिटिश हुकूमत भारत पर राज कर रही थी और भारतवासियों को उनके हक से महरूम रखा जा रहा था, ठीक ऐसे अंधेरे में उम्मीद की रोशनी बनकर दमके देशबंधु चित्तरंजन दास। अंग्रेज जज के सामने भी अपनी आवाज दबने नहीं दी दलीलें ऐसी दीं कि परिणाम उनके पक्ष में ही आया। मिसाल अलीपुर बम केस (1908) और ढाका षडयंत्र केस (1910-11) है। जिसमें उनकी काबिलियत का लोहा हुक्मरानों ने बड़े अदब से माना!
5 नवंबर 1870 को कोलकाता के एक समृद्ध बंगाली परिवार में जन्मे चित्तरंजन दास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक चमकते सितारे थे। उनके पिता भूबन मोहन दास एक प्रसिद्ध वकील और पत्रकार थे, जबकि चाचा दुर्गा मोहन दास ब्रह्म समाज के समाज सुधारक थे। इस परिवार की प्रगतिशील सोच ने चित्तरंजन के जीवन को दिशा दी। आजादी की लड़ाई में उनका योगदान और स्वराज पार्टी की स्थापना उन्हें इतिहास में अमर बनाती है।
चित्तरंजन ने प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक करने के बाद इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई की। भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में असफल होने के बावजूद उन्होंने 1894 में कलकत्ता हाई कोर्ट में वकालत शुरू की। 1908 में अलीपुर बम कांड में श्री अरबिंदो घोष का बचाव कर वे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए। उनकी वाकपटुता और देशभक्ति ने उन्हें युवाओं का प्रेरणास्रोत बनाया। इसके बाद ढाका षडयंत्र केस में भी प्रदर्शन लाजवाब रहा। वो बचाव पक्ष के वकील थे। उन्होंने बड़ी बुद्धिमता से सिविल और क्रिमिनल दोनों तरह के कानून को संभाल कर प्रसिद्धि अर्जित की।
1917 में चित्तरंजन ने सक्रिय राजनीति में कदम रखा। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1917 के भवानीपुर प्रांतीय सम्मेलन में अपने ओजस्वी भाषण से सबका दिल जीता। 1920 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में वे पूरे उत्साह से शामिल हुए। उन्होंने अपनी यूरोपीय पोशाकें जला दीं और खादी को अपनाया, जो स्वदेशी का प्रतीक बना। 1921 में अपनी पत्नी बसंती देवी और बेटे के साथ गिरफ्तारी ने उनके समर्पण को और साबित किया। बसंती देवी स्वयं एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्हें 1973 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन के स्थगित होने से असहमत चित्तरंजन ने मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना की। उनका मकसद विधान परिषदों में प्रवेश कर ब्रिटिश शासन को भीतर से चुनौती देना था। स्वराज पार्टी ने 1924 में कोलकाता नगर निगम का चुनाव जीता और चित्तरंजन इसके पहले निर्वाचित मेयर बने। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए बंगाल पैक्ट का प्रस्ताव रखा, जो सामुदायिक सद्भाव का प्रतीक था, हालांकि इसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया।
चित्तरंजन एक कुशल वकील और राजनेता ही नहीं, बल्कि कवि और लेखक भी थे। उनकी काव्य रचनाएं ‘मालंचा’ और ‘सागर संगीत’ राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत हैं।
1925 में अधिक काम के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। दार्जिलिंग में इलाज के दौरान 16 जून 1925 को उनका निधन हो गया। गांधीजी ने उनकी अंतिम यात्रा के दौरान कहा, “देशबंधु के दिल में हिंदू और मुस्लिम के बीच कोई भेद नहीं था।” उनकी स्मृति में कोलकाता का चित्तरंजन राष्ट्रीय कैंसर संस्थान और चित्तरंजन लोकोमोटिव वर्क्स जैसे संस्थान आज भी उनकी विरासत को जीवित रखे हुए हैं।
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Created On :   15 Jun 2025 3:45 PM IST