राष्ट्रीय: विद्यावती 'कोकिल' जिनकी रचनाओं में झलकता है प्रेम, प्रगति और जीवन का अनुभव

विद्यावती कोकिल जिनकी रचनाओं में झलकता है प्रेम, प्रगति और जीवन का अनुभव
विद्यावती 'कोकिल' की कविताएं- 'आज रात शृंगार करूंगी, जाऊंगी मैं मलय शिखर पर' और 'अब मेरे बंधन-बंधन की ग्रंथि खुल गई है, मुझको मेरी मुक्ति मिल गई है,' नारी-मन की गहन संवेदनाओं को उजागर करती हैं। ये रचनाएं प्रेम, प्रकृति और जीवन के अनुभवों को मधुरता व सहजता के साथ व्यक्त करती हैं, जो पाठकों और श्रोताओं के हृदय को गहराई तक स्पर्श करती हैं।

नई दिल्ली, 25 जुलाई (आईएएनएस)। विद्यावती 'कोकिल' की कविताएं- 'आज रात शृंगार करूंगी, जाऊंगी मैं मलय शिखर पर' और 'अब मेरे बंधन-बंधन की ग्रंथि खुल गई है, मुझको मेरी मुक्ति मिल गई है,' नारी-मन की गहन संवेदनाओं को उजागर करती हैं। ये रचनाएं प्रेम, प्रकृति और जीवन के अनुभवों को मधुरता व सहजता के साथ व्यक्त करती हैं, जो पाठकों और श्रोताओं के हृदय को गहराई तक स्पर्श करती हैं।

हिंदी साहित्य की मशहूर कवयित्री ने अपनी रचनाओं के माध्यम से नारी की भावनाओं, स्वतंत्रता की चाह और आध्यात्मिक चेतना को अनूठे ढंग से पेश किया। उनकी काव्य-शैली में नारी-मनोभाव, सामाजिक यथार्थ, और आध्यात्मिक चेतना का अनूठा संगम देखने को मिलता है, जो उनकी रचनाओं को कालजयी बनाता है।

विद्यावती 'कोकिल' का जन्म 26 जुलाई, 1914 को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था। उनका अधिकांश जीवन प्रयागराज (इलाहाबाद) में बीता। स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही उनका काव्य की ओर झुकाव होने लगा। उनकी मधुर कविताओं ने उन्हें आकाशवाणी के मंचों और अखिल भारतीय काव्य-गोष्ठियों में पहचान दिलाई।

विद्यावती का परिवार आर्य समाजी विचारधारा और देशभक्ति से प्रेरित था, जिसका प्रभाव उनकी रचनाओं और जीवनशैली में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। इसके अलावा, उन्होंने पुडुचेरी के अरविंद आश्रम में समय बिताया, जहां उन्होंने अरविंद के दर्शन को अपनी काव्य-साधना में समाहित किया।

विद्यावती 'कोकिल' की कविताओं में प्रेम, प्रगति, और जीवन के अनुभवों का संगम दिखाई देता है। उन्होंने 'सुहाग गीत' (1953), 'पुनर्मिलन' (1956), 'फ्रेम बिना तस्वीर' (1957), 'सप्तक' (1959), और श्री अरविंद्र की सात कविताओं का हिंदी अनुवाद भी किया।

विद्यावती 'कोकिल' की कविताओं में नारी-मन की संवेदनशीलता, सामाजिक यथार्थ, और आध्यात्मिक चेतना का संगम भी दिखाई देता है। साथ ही उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से देशभक्ति की भावनाओं को भी उतारने का काम किया।

विद्यावती की कविता 'मौन क्यों हो घासवाली? निरखती क्या भवन ऊंचे; आंख घूंघट में चुराकर, ढूंढ़ती हो क्या किसी को इस गली में रोज आकर, यहीं रहती थीं कभी क्या ओ बड़े घर-द्वारवाली? मौन क्यों हैं, स्वेद के कण व्यथा भीतर की बताकर, क्या संदेशा ला रहा है दूध आंचल में टपक कर, किसे रोता छोड़ आई हो बड़े परिवारवाली?', नारी-मन की गहन संवेदनाओं को उजागर करती है।

अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य में अहम योगदान देने वालीं विद्यावती ने 10 जुलाई 1990 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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Created On :   25 July 2025 2:45 PM IST

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