राष्ट्रीय: पुण्यतिथि विशेष हरिशंकर परसाई और हमारा समाज, 'जो दिखता है, वो होता नहीं' को समझाने वाले व्यंग्यकार

पुण्यतिथि विशेष  हरिशंकर परसाई और हमारा समाज, जो दिखता है, वो होता नहीं को समझाने वाले व्यंग्यकार
'हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे', यह हिंदी साहित्य के लेखक हरिशंकर परसाई के शब्द हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से ऐसी सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकताओं को आमने-सामने खड़ा किया, जिनसे अक्सर लोग बचना चाहते हैं।

नई दिल्ली, 9 अगस्त (आईएएनएस)। 'हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे', यह हिंदी साहित्य के लेखक हरिशंकर परसाई के शब्द हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से ऐसी सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकताओं को आमने-सामने खड़ा किया, जिनसे अक्सर लोग बचना चाहते हैं।

हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद कुछ समय अध्यापन किया। छोटी उम्र में उन्होंने अपनी मां को खोया था और फिर पिता भी बीमारी के कारण चल बसे। अनाथ हो चुके हरिशंकर परसाई के कंधों पर अब चार छोटे भाइयों की भी जिम्मेदारी थी। आत्मकथा 'गर्दिश के दिन' में हरिशंकर परसाई की जिंदगी के ऐसे कई पलों का जिक्र है, जो हर किसी को झकझोर देगा।

उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी के बीच नौकरी छोड़कर स्वतंत्र लेखन चुना और जबलपुर से 'वसुधा' नाम की साहित्यिक पत्रिका निकाली, जिसकी काफी सराहना हुई थी। हालांकि, जब घाटा हुआ तो हरिशंकर परसाई को पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन बंद करना पड़ा।

बतौर लेखक और नागरिक, हरिशंकर परसाई भारतीय समाज के ऐसे प्रहरी थे, जो लगातार जागते रहे और समाज को जगाते रहे। उनकी रचनाओं का मूल आधार समाज-संलग्न संवेदनशीलता और व्यथा है।

'हिंदवी' में जिक्र है कि परसाई ने सिर्फ साहित्यिक चर्चाओं तक अपने लेखन को सीमित नहीं रखा, बल्कि समाज की गहराइयों में जाकर गरीबी, असमानता और विसंगतियों को उजागर किया। वह समाज में व्याप्त भ्रम और अंधविश्वास को तोड़ने के लिए अपने लेखन में साहसिक प्रहार करते रहे।

एनसीईआरटी ने एक टेक्स्ट बुक में 'प्रेमचंद के फटे जूते' शीर्षक निबंध का उल्लेख किया, जिसमें हरिशंकर परसाई ने एक रचनाकार की अंतर्भेदी सामाजिक दृष्टि का विवेचन करते हुए आज की दिखावे की प्रवृत्ति और अवसरवादिता पर व्यंग्य किए।

इससे स्पष्ट होता है कि उनकी रचनाओं में समाज की गहरी समझ, करुणा और प्रखर आलोचनात्मक दृष्टि दिखाई देती है। उनकी रचनाएं जैसे 'विकलांग श्रद्धा का दौर', 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र', 'सदाचार का ताबीज' और 'तट पर मैं रोता हूं' आज भी पाठकों को झकझोरने की क्षमता रखती हैं।

उन्होंने भ्रष्टाचार, पाखंड, बेईमानी और अंधविश्वास जैसे विषयों पर निर्भीकता से कलम चलाई। हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों में 'भ्रष्टाचार' और 'बेईमानी' को लेकर उनकी उक्ति समाज को आज भी आईना दिखाती हैं। 'विकलांग श्रद्धा का दौर' कृति के लिए हरिशंकर परसाई को साहित्य पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।

अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने और बहुमूल्य योगदान देने वाले हरिशंकर परसाई का 10 अगस्त 1995 को मध्य प्रदेश के जबलपुर में निधन हुआ।

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Created On :   9 Aug 2025 5:12 PM IST

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