राष्ट्रीय: राहत से 'इंदौरी' बनने का मुश्किल सफर, साइन बोर्ड से महफिल तक ऐसे मिली पहचान

राहत से इंदौरी बनने का मुश्किल सफर, साइन बोर्ड से महफिल तक ऐसे मिली पहचान
'मैं मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना' हो या फिर 'नए किरदार आते जा रहे हैं, मगर नाटक पुराना चल रहा है।' ये राहत इंदौरी के वो शेर हैं, जो उनके बेबाक तेवर और गहरे जज्बातों की मिसाल हैं। उर्दू शायरी और हिंदी सिनेमा के गीतों के जरिए उन्होंने हर दिल में अमिट छाप छोड़ी।

नई दिल्ली, 10 अगस्त (आईएएनएस)। 'मैं मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना' हो या फिर 'नए किरदार आते जा रहे हैं, मगर नाटक पुराना चल रहा है।' ये राहत इंदौरी के वो शेर हैं, जो उनके बेबाक तेवर और गहरे जज्बातों की मिसाल हैं। उर्दू शायरी और हिंदी सिनेमा के गीतों के जरिए उन्होंने हर दिल में अमिट छाप छोड़ी।

उनकी शायरी में जिंदगी की सच्चाई, समाज का दर्द और इंसानी जज्बातों का ऐसा संगम था, जो हर दिल को छू लेता था। बेबाक अंदाज और जोशीले अल्फाजों से उन्होंने न केवल शायरी की महफिलों को रोशन किया, बल्कि हिंदी फिल्मों के गीतों के जरिए भी लाखों दिलों में जगह बनाई।

1 जनवरी 1950 को मध्य प्रदेश के इंदौर में जन्मे राहत इंदौरी का पूरा नाम राहत कुरैशी था। बताया जाता है कि राहत इंदौरी का बचपन आर्थिक तंगी में बीता, जिसके कारण उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। महज 10 साल की उम्र में उन्होंने साइन बोर्ड की पेंटिंग का काम शुरू किया। इस दौरान उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी।

उनकी शुरुआती पढ़ाई इंदौर के नूतन स्कूल में हुई। 1973 में उन्होंने इंदौर के इस्लामिया करीमिया कॉलेज से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। इसके बाद 1975 में भोपाल के बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में एमए किया। 1985 में उन्होंने मध्य प्रदेश के भोज विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी पूरी की। उनकी थीसिस 'उर्दू मुख्य मुशायरा' के लिए उन्हें सम्मान भी मिला।

राहत इंदौरी इंदौर के एक कॉलेज में उर्दू साहित्य के प्रोफेसर थे, मगर उनकी असली पहचान बनी दिलकश शायरी से। पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने मुशायरों की महफिलों को अपने जोशीले अंदाज से रोशन किया और जल्द ही उर्दू शायरी के दिग्गजों में शुमार हो गए। उनकी शायरी में प्रेम, बगावत और सामाजिक मुद्दों की गहरी छाप दिखती है, जो हर दिल को छू लेती है। 'सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में' और 'बुलाती है मगर जाने का नहीं' जैसी उनकी पंक्तियां आज भी लोगों की जुबान पर जिंदा हैं।

राहत इंदौरी ने उर्दू शायरी के साथ-साथ हिंदी सिनेमा में भी अपनी लेखनी का जादू बिखेरा। उन्होंने 'मुन्ना भाई एमबीबीएस', 'इश्क', और 'मिशन कश्मीर' जैसी फिल्मों के लिए भी गीत लिखे।

राहत इंदौरी केवल एक शायर नहीं, बल्कि समाज की नब्ज को शब्दों में पिरोने वाली एक जीवंत आवाज थे। उनकी शायरी में सामाजिक और राजनीतिक टिप्पणियां, बगावती तेवर, और आम आदमी की आवाज साफ झलकती थी। उनके शब्दों में जिंदगी के हर रंग को समेटने की कला थी, जो उन्हें हर वर्ग में लोकप्रिय बनाती थी। 11 अगस्त 2020 को कोविड-19 के कारण इंदौर में उनका निधन हो गया।

राहत इंदौरी की आवाज और उनके शब्द आज भी लोगों के बीच जिंदा हैं, जो हमें जिंदगी के फलसफे सिखाते हैं।

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Created On :   10 Aug 2025 6:24 PM IST

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