कृष्ण को भी प्रिय था सूरदास का संगीत: 20 अप्रैल को मनाया जाएगा महाकवि का जन्मोत्सव 

कृष्ण को भी प्रिय था सूरदास का संगीत: 20 अप्रैल को मनाया जाएगा महाकवि का जन्मोत्सव 

Bhaskar Hindi
Update: 2018-04-15 05:08 GMT

डिजिटल डेस्क, भोपाल। महाकवि सूरदास जी का जन्मदिन 20 अप्रैल 2018 को मनाया जाएगा। संपूर्ण भारत में मध्ययुग में कई भक्त कवि और गायक हुए लेकिन सूरदास का नाम उन सभी कवि और गायकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और महान कवि के तौर पर लिया जाता है। जिन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति में अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया था। यह "सूरसागर" के रचयिता सूरदास की लोकप्रियता और महत्ता का ही प्रमाण है कि एक अंधे भक्त गायक का नाम भारतीय धर्म में इतने आदर से लिया जाता है।

कवि सूरदास जी का जन्म दिल्ली के पास सीही नाम के गांव में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके तीन बड़े भाई थे। सूरदास जन्म से ही अंधे थे, पर भगवान ने उन्हें सगुन बताने की एक अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण कर धरती पर भेजा था। छ: साल की उम्र में ही उन्होंने अपने माता-पिता को अपनी सगुन बताने की विद्या से चकित कर दिया था। लेकिन उसके कुछ ही समय बाद वे घर छोड़कर अपने घर से चार कोस दूर एक गांव में जाकर तालाब के किनारे रहने लगे थे। सगुन बताने की विद्या के कारण शीघ्र ही उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। 
 


इस उपलब्धि के साथ ही वे गायन विद्या में भी शुरू से ही प्रवीण थे। इसलिए उन्हें जल्दी ही अच्छी प्रसिद्धि मिल गई, लेकिन फिर अठारह साल की उम्र में उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और सूरदास वो स्थान छोड़कर यमुना के किनारे बसे गऊघाट पर आकर रहने लगे। जहां उनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। सूरदास गऊघाट पर अपने कई सेवकों के साथ रहते थे और वे सभी उन्हें "स्वामी" कहकर संबोधित करते थे। वल्लभाचार्य ने भी प्रभावित होकर उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मंदिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे और कृष्‍ण भक्ति में लीन हो गए।

उस दौरान उन्होंने वल्लभाचार्य द्वारा "श्रीमद् भागवत" में वर्णित कृष्ण की लीला का ज्ञान प्राप्त किया और अपने कई पदों में उसका वर्णन भी किया। उन्होंने "भागवत" के द्वादश स्कन्धों पर पद रचना की, "सहस्त्रावधि" पद रचे, जो "सागर" कहलाए। सूरदास की पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति सुनकर अकबर भी उनसे प्रभावित हुए और बिना भेंट किये नहीं रह सके। उन्होंने मथुरा आकर सूरदास से भेंट की।
 


श्रीनाथजी के मंदिर में बहुत दिनों तक कीर्तन करने के बाद जब सूरदास को अहसास हुआ कि भगवान अब उन्हें अपने साथ ले जाने की इच्छा रख रहे हैं, तो वे श्रीनाथजी में स्थित पारसौली के चन्द्र सरोवर पर आकर लेट गए और श्रीनाथ जी की ध्वजा का ध्यान करने लगे। इसके बाद सूरदास ने अपना शरीर त्याग दिया।

सूरदास की रचना महान कवियों के बीच अतुलनीय है। वे सच्चे कृष्ण भक्त और कवि थे जो सत्य का अन्वेषण कर उसे मूर्त रूप देने में समर्थ हुए। सूरदास जी द्वारा लिखित पांच प्रमुख ग्रंथ बताए जाते हैं -  सूरसागर, सूरसारावली,  साहित्य-लहरी, नल-दमयंती और ब्याहलो

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