उदासीनाचार्य जगद्गुरु श्री चन्द्र देव जी की जयंती आज

उदासीनाचार्य जगद्गुरु श्री चन्द्र देव जी की जयंती आज

Bhaskar Hindi
Update: 2018-09-18 08:46 GMT
उदासीनाचार्य जगद्गुरु श्री चन्द्र देव जी की जयंती आज

डिजिटल डेस्क, भोपाल। उदासीनाचार्य जगदगुरु श्रीचन्द्र देव जी का जन्मोत्सव इस बार 18 सितम्बर 2018 यानी कि आज है। श्रीचन्द्रदेव जी का प्रादुर्भाव जन्मोत्सव भाद्रपद शुक्ल पक्ष की नवमी संवत 1551 को हुआ था। चन्द्र देव जी का जन्म लाहौर की खड़गपुर तहसील के तलवंडी नामक स्थान में श्रीगुरु नानकदेव जी की पत्नी सुलक्षणा देवी के घर हुआ था। इनका जन्म निवृत्ति प्रधान सनातन धर्म के प्रचारक एवं पुनरुद्धार के लिए हुआ था। इनके जन्म से ही सिर पर जटाएं, शरीर पर भस्म तथा दाहिने कान में कुंडल शोभित था। इनके भस्म विभूषित विग्रह को देखकर दर्शनार्थी आपको शिवस्वरूप मानकर श्रद्धा से पूजते थे।

आचार्य श्रीचन्द्र देव जी बचपन से ही वैराग्य वृत्तियों से युक्त थे। ऋद्धि-सिद्धियाँ उनके हाथ जोड़े हुए सेवा में सदैव तत्पर रहती थीं। जब वे ग्यारहवें वर्ष के हुए तब उनका पंडित हरिदयाल शर्मा के द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार (जनेऊ संस्कार) सम्पन्न हुआ। आचार्य श्रीचन्द्रदेव जी वैदिक कर्मकाण्ड के पूर्ण समर्थक थे। उन्होंने ज्ञान-भक्ति के श्रेष्ठ सिद्धांत को प्रतिपादित किया। उन्होंने करामाती फकीरों, सूफी संतों, अघोरी तांत्रिकों और विधर्मियों को अपनी अलौकिक सिद्धियों और उपदेशों से प्रभावित कर वैदिक धर्म की दीक्षा भी दी थी।

आपने उस समय के परम ज्ञानी वेदवेत्ता विद्वान, कुलभूषण, कश्मीर मुकुटमणि पंडित श्री पुरुषोत्तम कौल जी से वेद-वेदांग और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। अद्वितीय प्रतिभा के सम्पन्न होने के कारण आपने बहुत ही कम समय में सारी विधाएं आत्मसाध कर ली थीं। आपने भगवान बुद्ध की तरह लोकभाषा में उपदेश दिया था। भाष्यकार आदि गुरु शंकराचार्य जी की तरह वेदों का भाष्य किया तथा कबीर आदि संतों की तरह वाणी साहित्य की रचना भी की थी।

ब्रह्माडम्बर, मिथ्याचार अवैदिक मत-मतान्तरों, पाखंडों का खंडन कर श्रुति-स्मृति सम्मत आचार-विचार की प्रतिष्ठा की। भावात्मक एवं वैचारिक धरातल पर जीव मात्र की एकता का प्रतिपादन किया। जाति-पांति, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े के भेदभाव को समाप्त कर मानव मात्र को मुक्ति की राह दिखार्इ थी।

उनका उदघोष था

चेतहु नगरी, तारहु गाँव 
अलख पुरुष का सिमरहु नांव।। 



आचार्य देव के थे चारों शिष्य

"श्री अलिमस्त साहेब जी, श्री बालूहसना साहेब जी, श्री गोविन्ददेव साहेब जी एवं श्री फूलसाहेब जी को चारों दिशाओं उत्तर, पूरब, दक्षिण एवं पश्चिम के प्रतीक चार धूना के नाम से सुशोभित किया। जिनकी परम्परा स्वरूप आज भी चार मुख्य महंत होते हैं। धूणे के रूप में वैदिक यज्ञोपासना को नया रूप दिया तथा निर्वाण साधुओं के रहने का आदर्श प्रतिपादित कर निवृत्ति प्रधान धर्म की प्रतिष्ठा की। भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर तथा गणपत्य मतावलंबियों को संगठित कर पंचदेवोपासना की प्रतिष्ठा की। हिन्दू धर्म की महिमा समझार्इ। वैचारिक वाद-विवाद को मिटाकर सत्य सनातन धर्म को समन्वय का विराट सूत्र प्रदान किया। उन्होनें कहा-""निर्वैर संध्या दर्शन छापा वाद-विवाद मिटावै आपा। शिव रूप होकर आज भी भक्तों और श्रद्धालु आसितकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। 150 वर्षों तक धराधाम पर रहकर अंतिम क्षणों में ब्रह्राकेतु जी को उपदेश दिया और रावी में शिला पर बैठकर पार गये तथा चम्बा नामक जंगल में ""विक्रम संवत 1700 पौष मास कृष्ण पंचमी को अंर्तध्यान हो गए।

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