कैसा होता है अघोरी साधुओं का जीवन और क्या हैं मान्यताएं, यहां पढ़ें..

कैसा होता है अघोरी साधुओं का जीवन और क्या हैं मान्यताएं, यहां पढ़ें..

Manmohan Prajapati
Update: 2018-12-10 07:45 GMT
कैसा होता है अघोरी साधुओं का जीवन और क्या हैं मान्यताएं, यहां पढ़ें..

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। अघोरी साधुओं के बारे में गलत बातें अधिक चर्चित हैं। अधिकतर लोग अघोर पंथी को बहुत ही डरावने, रक्त, मांस, मदिरा और मैथुन जैसे कृत्यों में संलग्न मानते हैं। अघोर पंथी के अनुयायियों के विषय में मान्यता यह है कि वे दीन-दुनिया से दूर सांसारिकता से विरक्त एक संन्यासी समुदाय हैं, जिनका कार्य मात्र अपनी ईष्ट सिद्धि के लिए भयंकर कृत्यों को करना होता है, किन्तु सत्यता कुछ और है। 

अघोरी की संज्ञा
सबसे पहले हमें “अघोर” शब्द का संधि विच्छेद करना चाहिए। आप देखेंगे कि अघोर शब्द “अ” एवं “घोर” शब्दों के सम्मिलन से है। अर्थात कोई भी मनुष्य जो सहज, सरल, अबोध अवस्था में हो उसे अघोर कहा जा सकता है। यानि कि दुनियादारी के मकड़जाल से जिसका पाला न पड़ा हो और वह नन्हें शिशु की तरह अबोध जीवन जीता हो तो ऐसे व्यक्ति को अघोरी की संज्ञा दी जा सकती है।

दोषों से मुक्त
यहां अबोधता से आशय शिशु जैसी अबोधता नहीं बल्कि जाग्रत व बोध युक्त अबोधता से है। ग्रंथि रहित होने का तात्पर्य है कि वह व्यक्ति सत्-असत्, क्रोध-लोभ-मोह-माया-राग-विराग आदि दोषों से मुक्त जो जीवन जी रहा हो।

सहजता
आत्म जागरण की ऐसी अवस्था अघोरपंथी साधक अन्य पंथ के साधकों से कहीं अधिक सहजता से प्राप्त कर लेते हैं। इसका एक मुख्य कारण है कि वे जगत में रहते हुए जगत को त्याग चुके होते हैं और ये क्रिया अन्य पंथियों के लिए बहुत कठिन होती है। अन्य पंथों में इस निर्दोषता और आत्मजागरण की अवस्था प्राप्त करने के लिए जगत मोह सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।

निर्दोष
आप बुद्ध व महावीर की निर्दोषता और आत्मजागरण के बारे में भली भांति जानते होंगे। महावीर का नग्न होना एक सामान्य घटना थी न कि कोई विशिष्ट उद्देश्य से संचालित सोची-समझी चाल। बस सहज भाव से उनमें बुद्धत्व घटित हुआ और बुद्धत्व की इसी अवस्था में एक अबोधशिशु के समान निर्दोष हो गए।

स्वभाव 
ध्यान रहे कि सोचा-समझा कृत्य कभी भी स्वाभाविक अवस्था नहीं प्राप्त करा सकता है। इसके लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती अपितु ये स्वयं घटित होने वाली घटना है। मन के सभी स्तरों को पार कर जब मनुष्य सर्वोच्च मनःस्थिति में पहुंच जाता है तब सहजता एक स्वभाव बन जाता है।

संप्रदाय
जगत में अघोरियों का प्रादुर्भाव (किसी भी छल व धोखे में शामिल व्यक्ति को बहुरूपिया कहा जाएगा न कि अघोरी साधक) शैव कापालिक व कालामुख आदि संप्रदायों से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा इसमें शाक्त संप्रदाय की तांत्रिकता भी उपस्थित है। पौराणिक मान्यता के अनुसार अघोर पंथ को भगवान शिव ने स्थापित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को अघोर पंथ में प्रबल रूप से आराध्य माना जाता है। जनसामान्य की भाषा में अघोरी साधकों को औघड़ भी कहा जाता है। 

साधना क्रिया
अघोर पंथ में दो अलग-अलग साधनाएं अथवा क्रियाएं अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए अपनाई जाती हैं। पहली है अघोर पंथ की शव साधना क्रिया और दूसरी है सात्विक साधना क्रिया। सामान्यतया शव साधना को अघोर पंथ से अधिक जोड़ा गया है।साधना की इस विशेष विधि में श्मशान में मृत शरीर के ऊपर पैर रख कर चिता भस्म लपेटे अघोरी उपासना के लिए कपाल और अंगुलि माला का प्रयोग करते हैं। इसके साथ ही कई बार वे मृत शरीर को खाते हैं तथा रक्तपान करते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि इससे समदर्शिता प्राप्त होती है। 
इसके अलावा घृणा-द्वेष आदि विकारों का परिमार्जन भी होता है।

मैथुन 
इसके अतिरिक्त इसमें मैथुन का विशेष स्थान है। ये मैथुन जीवित मनुष्य के साथ न होकर मृत देह के साथ होता है। इस साधना की विशिष्टता है कि इसमें भेद भाव का कोई स्थान नहीं हे और इसके लिए वो सारे उपाय अपनाते हैं जिनसे मुक्ति मिलती है। वस्तुतः अघोर साधक समानता और स्वतंत्रता के बेजोड़ प्रतीक हैं।

सार्थकता
मानव की अपनी गरिमा को सर्वाधिक ऊंचा उठाने में इस साधना का बहुत महत्व है। चिता, श्मशान, मृत शरीर, कपाल, चिता भस्म और मृत शरीर के साथ संभोग आदि की प्रतीकात्मकता बहुत गहरी है। इसके हर एक भाव में अनेक अर्थ समाहित हैं। मैथुन की सार्थकता इस तथ्य में निहित है कि प्रजनन और ब्रह्माण्ड की असीमता अद्भुत हैं। इन्हें रोकने का कोई भी प्रयास सृष्टि के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा। मैथुन मृत देह के साथ इसलिए क्योंकि शव और जीवित व्यक्ति में मात्र आत्मा का भेद है और आत्मा को छोड़कर सब कुछ नश्वर है। किंतु इस नश्वरता में भी सुंदरता है और मैथुन उस सुंदरता का सजीव चित्रण है।

क्रिया
अघोर पंथ की ये साधना क्रिया सामान्यजन में अधिक लोकप्रिय नहीं है। इस साधना के समय यौगिक सरलता से वेदोक्त पद्धति से मंत्रोपासना की जाती है। इस समय साधक तन-मन से पूर्ण सात्विक जीवन व्यतीत करता है और उसका खानपान तथा जीवन व्यवहार पूरी तरह कंद-मूल आदि पर निर्भर रहता है।

व्यवहार
सत्यता यह है कि इन दोनों ही उपासना की प्रभावशीलता समान होती है। अंतर केवल शैली और व्यवहार का है किंतु उद्देश्य में कोई भी अंतर नहीं होता। सामान्यजन की इन दोनों पद्धतियों में आस्था हो सकती है किंतु जहां तक भ्रम का प्रश्न है तो अधिकांश को इस साधना की दूसरी क्रिया के बारे में अनुमान ही नहीं होता।

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