विशेष पद्मश्री प्रो. दिगंबर हांसदा, संविधान का 'ओलचिकी' में किया अनुवाद, 'संथाल' की रहे सशक्त आवाज

रांची, 15 अक्टूबर (आईएएनएस)। संथाली साहित्य के विमर्श में आत्मसम्मान और सांस्कृतिक चेतना केंद्र बिंदु में रहे हैं। झारखंड के संथाल परगना में देवघर, गोड्डा, पाकुड़, साहिबगंज और दुमका जैसे जिले शामिल हैं, और यहां की शख्सियतों में डॉ. दिगंबर हांसदा किसी 'पूज्य' व्यक्तित्व से कम नहीं हैं।
संथाली भाषा, साहित्य और संस्कृति को राष्ट्रीय पहचान दिलाने की यात्रा में जिन शब्द साधकों और शिल्पियों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही, उनमें अग्रणी नाम प्रोफेसर दिगंबर हांसदा का है।
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला स्थित डोभापानी गांव में 16 अक्टूबर 1939 को जन्मे दिगंबर हांसदा ने अपने जीवन और कर्म से संथाली भाषा को न केवल अकादमिक प्रतिष्ठा दिलाई, बल्कि उसे भारतीय अस्मिता के विस्तृत मानचित्र पर स्थायित्व और सम्मानित स्थान भी प्रदान किया।
भारत की आठवीं अनुसूची में शामिल 'संथाली' झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम के संथाल समुदायों की मातृभाषा है। इसकी लिपि 'ओलचिकी' है, जिसे 20वीं सदी में संथाल समाज की अपनी भाषाई पहचान के रूप में विकसित किया गया। इस भाषा को शिक्षा, प्रशासन और साहित्य की मुख्यधारा में लाने का श्रेय जिन लोगों को जाता है, उनमें प्रो. हांसदा का नाम भी अग्रणी है। उन्होंने दिखाया कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और सांस्कृतिक चेतना का आधार भी है।
उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए करने के बाद जमशेदपुर के करनडीह स्थित लालबहादुर शास्त्री मेमोरियल कॉलेज (एलबीएसएम) की स्थापना और विकास में निर्णायक भूमिका निभाई। वह लंबे समय तक इस कॉलेज के प्राचार्य रहे और बाद में कोल्हान विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य बने। उनकी शिक्षा को जनजातीय सशक्तीकरण का साधन बनाने की दृष्टि ने एक पीढ़ी को दिशा दी।
उन्हें संथाली भाषा को इंटरमीडिएट, स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में शामिल करवाने का श्रेय भी जाता है। उन्होंने भारतीय संविधान का 'ओलचिकी' लिपि में अनुवाद किया ताकि जनजातीय समुदाय अपने अधिकारों और कर्तव्यों को अपनी मातृभाषा में समझ सके। यह कार्य भारतीय भाषाई समरसता के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है।
उनकी प्रमुख कृतियों में 'सरना गद्य-पद्य संग्रह', 'संथाली लोककथा संग्रह', 'भारोतेर लौकिक देव देवी', 'गंगमाला' और 'संथालों का गोत्र' जैसी पुस्तकें शामिल हैं। इन रचनाओं ने संथाली समाज की परंपराओं, मिथकों और लोकस्मृतियों को आधुनिक विमर्श का हिस्सा बनाया।
प्रो. हांसदा केवल एक भाषाविद नहीं, बल्कि एक समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने टिस्को आदिवासी वेलफेयर सोसाइटी, भारत सेवाश्रम संघ सोनारी, आदिवासी वेलफेयर ट्रस्ट जमशेदपुर और जिला साक्षरता समिति के माध्यम से शिक्षा और सामाजिक उत्थान के लिए निरंतर कार्य किया।
उन्हें देश ने बहुआयामी सेवाओं के लिए कई सम्मान दिए। उन्हें ऑल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन से 'लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड', निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन से 'स्मारक सम्मान', भारतीय दलित साहित्य अकादमी से 'डॉ. अंबेडकर फेलोशिप' और वर्ष 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए 'पद्मश्री' सम्मान प्रदान किया गया।
उन्होंने कहा था, ''यह सम्मान नहीं, जिम्मेदारी है। अभी संथाली भाषा के लिए बहुत कुछ करना बाकी है।''
उनका निधन 19 नवंबर 2020 को हुआ, लेकिन उनके विचार, कृतित्व और कर्म आज भी संथाली भाषा की नई पीढ़ी को प्रेरित कर रहे हैं।
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Created On :   15 Oct 2025 4:21 PM IST