राजनीति: राज्यसभा के वेल में जाना, शोर मचाना कैसे किसी का अधिकार माना जा सकता है उपसभापति राज्यसभा

नई दिल्ली, 5 अगस्त (आईएएनएस)। राज्यसभा के वेल में जाना, शोर मचाना, सदन न चलने देना, अन्य सदस्यों को जो सदन की कार्यवाही में भाग ले रहे हैं, उन्हें न बोलने देना, कैसे किसी सदस्य का विरोध करने का लोकतांत्रिक अधिकार माना जा सकता है? मंगलवार को यह बात राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण ने सदन में कही।
दरअसल राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आरोप लगाया कि सदन के वेल में सीआईएसएफ के जवानों को तैनात किया गया। वहीं राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण का कहना था कि संसद के सुरक्षाकर्मियों का सदन में उपस्थित रहना नई बात नहीं है। आप जानते हैं कि इस सर्विस की नींव सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के पहले निर्वाचित भारतीय अध्यक्ष, विट्ठल भाई पटेल द्वारा सन 1930 में डाली गई थी। ये सुरक्षाकर्मी तब से अपना काम कर रहे हैं जो विशेष रूप से प्रशिक्षित हैं और किसी तरह के बल का इस्तेमाल न करके, अपना काम सदन की गरिमा को ध्यान में रखकर करते हैं।
उप सभापति ने सदन को बताया कि इस संदर्भ में एक अगस्त को नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का एक पत्र मिला है, जिसमें उन्होंने सदन के वेल में सीआईएसएफ के जवानों को तैनात करने की बात कही। उप सभापति ने कहा, “चूंकि चेयर और नेता प्रतिपक्ष के बीच पत्र, गोपनीय संवाद की श्रेणी में आते हैं, इसलिए (पत्र को) मेरे ध्यान में आने से पहले मीडिया में जारी करना कितना उचित है? यह उनके और आप सभी के विवेक पर छोड़ता हूं।"
उप सभापति ने कहा कि चेयर की मर्यादा मीडिया के पास जाने की अनुमति नहीं देती इसलिए, इस पत्र से जुड़े बिंदुओं के संदर्भ में नियम, स्थिति एवं प्रासंगिक तथ्य सदन के संज्ञान में लाना चाहता हूं। यह चिंताजनक तथ्य है कि मौजूदा सत्र में लगातार हंगामे की घटनाएं हो रही हैं। चेयर द्वारा बार-बार की गई अपील के बावजूद कई माननीय सदस्यों ने नियम 235 और 238 के प्रावधानों का जानबूझकर उल्लंघन कर सदन को बाधित किया।
उप सभापति ने कहा कि इसी 28 जुलाई को वाईएसआरसीपी के एक सदस्य बोल रहेथे, तो कुछ सदस्यों ने अपनी सीटों से उठउठकर,, उनके पास जाकर, उन्हें बोलते हुए डिस्टर्ब किया। क्या यह उस सदस्य के विशेषाधिकार या बोलने की अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन नहींथा?। उप सभापति ने कहा कि 31 जुलाई को एक मंत्री देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर सू मोटो बयान दे रहे थे। तब सदन के कुछ सदस्यों द्वारा उनके पास जाकर लगातार नारेबाजी हुई। व्यवधान किया गया, क्या इससे जनता को जानकारी देने का संसद का एक महत्वपूर्ण कार्य बाधित नहीं हुआ?
उन्होंने कहा कि एक अगस्त को ही ‘आप’ के एक माननीय सदस्य, एक बहुत महत्वपूर्ण विषय पर शून्य काल में अपनी बात रख रहे थे। तब एक अन्य सदस्य ने दूर अपनी सीट से आगे जाकर, उनके माइक के पास ऊंची आवाज में नारे लगाकर उन्हें बाधित किया। 25, 28, 29, 31 जुलाई और एक अगस्त को घटित इस तरह की घटनाएं दर्ज हैं। हम माननीय सदस्यों को आत्म निरीक्षण करना चाहिए कि क्या ऐसे काम सदन की गरिमा-मर्यादा बढ़ाते हैं।
उन्होंने कहा कि जैसा कि आप सभी जानते हैं, सदन का वह एरिया, जिसे आम भाषा में वेल कहते हैं, उसकी एक सुचिता होती है और वहां पर प्रवेश विनियमित होता है। वहां जाकर नारे लगाना, सदन की कार्यवाही बाधित करना सर्वथा अनुचित है। उस स्थान की पवित्रता का उल्लंघन करना, सदन की गरिमा गिराने जैसा है।
उन्होंने कहा कि ज्यादा पीछे न जाकर, सदन के भीतर पिछले कुछेक वर्षों में वेल में जाकर की गई कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करना चाहूंगा। इस सदन में सदस्यों द्वारा मंत्रियों, सेक्रेटरी जनरल व टेबल ऑफ द हाउस पर बैठे अधिकारियों से बिल की कॉपी और अन्य महत्वपूर्ण संसदीय पेपर्स छीनकर फाड़े गये। उन्हें उछाला गया। वेल एरिया में चेयर, सेक्रेटरी जनरल की चेयर, टेबल ऑफ द हाउस और उस पर बैठे अधिकारियों की सुरक्षा के लिए पार्लियामेंट सिक्युरिटी के परसनल द्वारा उस एरिया को कॉर्डन ऑफ करना पड़ा था।
वहीं मल्लिकार्जुन खड़गे ने दिवंगत भाजपा नेताओं अरुण जेटली और सुषमा स्वराज का हवाला देते हुए कहा कि जब वे लोग राज्यसभा और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष थे तब वे भी ऐसे ही विरोध करते थे। सदन में इस प्रकार की कार्रवाई करते थे और तब भाजपा के इन वरिष्ठ नेताओं का कहना था कि विरोध करना भी लोकतंत्र का ही हिस्सा है। खड़गे ने जवाब देते हुए राज्यसभा में कहा,”सीआईएसएफ की तैनाती कर हमारी संसद के स्तर तक इतना गिरा दिया गया है। यह बेहद आपत्तिजनक है और हम इसकी स्पष्ट रूप से निंदा करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में सीआईएसएफ के जवान सदन के वेल में तब नहीं आएंगे जब सदस्य सार्वजनिक चिंता के महत्वपूर्ण मुद्दे उठा रहे हों।” जहां तक सदस्यों द्वारा अपने विरोध करने के लोकतांत्रिक अधिकारों को उपयोग करने की बात है, वह उनका अधिकार है। पर वह इस सदन के नियमों और परंपराओं के तहत इसका पालन कर सकते हैं।
उप सभापति ने कहा कि वेल में जाकर नारे लगाने व अन्य सदस्यों को न बोलने देने पर 1978 में तब के सभापति ने इसे "सदन की अवमानना" की संज्ञा दी थी। 26 अप्रैल 1988 को, तब के उप-सभापति ने इस प्रकार के व्यवहार को “अति निंदनीय ” कहा था। इसी तरह 3 मार्च 2008 को जब कुछ माननीय सदस्यों ने वेल ऑफ द हाउस में घुसकर नारे लगाए थे, तब के माननीय चेयरमैन ने इसे नियमों का उल्लंघन बताया था।
--आईएएनएस
जीसीबी/एएस
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Created On :   5 Aug 2025 4:05 PM IST