यहां मौजूद हैं 1100 साल पुराना सास-बहु का मंदिर, जानें क्या है रहस्य

यहां मौजूद हैं 1100 साल पुराना सास-बहु का मंदिर, जानें क्या है रहस्य

Bhaskar Hindi
Update: 2019-03-05 11:45 GMT
यहां मौजूद हैं 1100 साल पुराना सास-बहु का मंदिर, जानें क्या है रहस्य

डिजिटल डेस्क,उदयपुर। आपने भारत के अलग-अलग राज्यों में कई तरह के मंदिर देखे होंगे, कुछ मंदिरों के आकार ने आपको प्रभावित किया होगा तो कुछ मंदिरों की बेजोड़ खूबसूरती आपको पसंद आई होगी, लेकिन आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। जिसे जानकार आप चौंक जाएंगे तो आइये जानते इस मंदिर से जुड़ी रोचक जानकारी...

राजस्थान के उदयपुर शहर में कई ऐतिहासिक और पर्यटन स्थलों के बीच सास-बहू का मंदिर खासा चर्चाओं में रहता है। उदयपुर में स्थित बहु का मंदिर सास के मंदिर से थोड़ा छोटा है। 10वीं सदी में निर्मित सास-बहू का मंदिर अष्टकोणीय आठ नक्काशीदार महिलाओं से सजायी गई छत है। मंदिर की दीवारों को रामायण की विभिन्न घटनाओं के साथ सजाया गया है। मूर्तियों को दो चरणों में इस तरह से व्यवस्थित किया गया है कि वो एक-दूसरे को घेरे रहती हैं। इस मंदिर में एक मंच पर त्रिमूर्ति यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की छवियां खुदी हुई हैं, जबकि दूसरे मंच पर राम, बलराम और परशुराम के चित्र लगे हुए हैं। कहते हैं कि मेवाड़ राजघराने की राजमाता ने यहां भगवान विष्णु का मंदिर और बहू ने शेषनाग के मंदिर का निर्माण कराया था। सास-बहू के द्वारा निर्माण कराए जाने के कारण ही इन मंदिरों को 'सास-बहू के मंदिर' के नाम से पुकारा जाता है। 

1100 साल पहले इस मंदिर का निर्माण राजा महिपाल और रत्नपाल ने करवाया था। सास-बहू के इस मंदिर के प्रवेश-द्वार पर बने छज्जों पर महाभारत की पूरी कथा अंकित है, जबकि इन छज्जों से लगे बायें स्तंभ पर शिव-पार्वती की प्रतिमाएं हैं। हालांकि आज दोनों ही मंदिरों के गर्भगृहों में से देव प्रतिमाएं गायब हैं। 

सास-बहू के इस मंदिर में भगवान विष्णु की 32 मीटर ऊंची और 22 मीटर चौड़ी प्रतिमा है। यह प्रतिमा सौ भुजाओं से युक्त है, इसलिए इस मंदिर को सहस्त्रबाहु मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। सास-बहू के दोनों मंदिरों के बीच में ब्रह्मा जी का भी एक छोटा सा मंदिर है। सास-बहू के इन्हीं मंदिरों के आसपास मेवाड़ राजवंश की स्थापना हुई थी। कहते हैं कि दुर्ग पर जब मुगलों ने कब्जा कर लिया था तो सास-बहू के इस मंदिर को चूने और रेत से भरवाकर बंद करवा दिया गया था। हालांकि बाद में जब अंग्रेजों ने दुर्ग पर कब्जा किया तब फिर से इस मंदिर को खुलवाया गया। 

 

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