Review: 'जून' में नेहा पेंडसे और सिद्धार्थ मेनन की जोड़ी ने किया कमाल, जेनरेशन गैप में अंतर को समझाती हैं फिल्म

Review: 'जून' में नेहा पेंडसे और सिद्धार्थ मेनन की जोड़ी ने किया कमाल, जेनरेशन गैप में अंतर को समझाती हैं फिल्म

Bhaskar Hindi
Update: 2021-06-30 07:05 GMT
Review: 'जून' में नेहा पेंडसे और सिद्धार्थ मेनन की जोड़ी ने किया कमाल, जेनरेशन गैप में अंतर को समझाती हैं फिल्म

डिजिटल डेस्क,मुंबई। सुहरुद गोडबोले और वैभव खिश्ती की फिल्म काफी दृढ़ता के साथ अपना संदेश व्यक्त करती है। मराठी फिल्म "जून" बदमाशी, किशोरावस्था में पैदा होने वाले भ्रम, खुद को नुकसान पहुंचाने और आत्महत्या जैसे मुद्दों पर केंद्रित है। साथ ही, इसकी कहानी लिंगवाद और पीढ़ी के अंतर जैसे व्यापक मुद्दों को भी छूती है। कहानी इस तरीके से बुनी गई हैं कि, दर्शक बिना अपना फोकस खोए डेढ़ घंटे से अधिक अच्छा समय बिताएंगे, जो कि एक सराहनीय तथ्य है। हालांकि कुछ स्थितियां और पात्र एक आयामी या एक तरफा लग सकते हैं।

निखिल महाजन की स्क्रिप्ट इसलिए भी प्रासंगिक लग रही हैं, क्योंकि यह औरंगाबाद के छोटे से शहर पर आधारित है। संस्कृति और मानसिकता को लेकर काफी मतभिन्नता होने के कारण महानगरों की तुलना में भारत के छोटे शहरों में इस आयु वर्ग के युवाओं में असुरक्षा, अनिश्चितता और आक्रोश अक्सर अधिक तीव्र हो सकता है।

कहानी औरंगाबाद हाउसिंग सोसाइटी से शुरू होती और एक युवा लड़की नेहा (नेहा पेंडसे) पुणे से सोसायटी के एक फ्लैट में रहने आती हैं। चूंकि नेहा अपनी मर्जी से एक जिंदा दिल जिंदगी जीती है, इसलिए उसे समाज से सुनने को भी मिलता है। जैसे ही वह सोसायटी में आती हैं तो इसके अध्यक्ष अधेड़ उम्र के जायसवाल (नीलेश दिवेकर) कहते हैं कि महिलाओं को सोसायटी परिसर में सार्वजनिक रूप से धूम्रपान करने की अनुमति नहीं है।

हालांकि कहानी निश्चित रूप से नेहा के रूढ़िवाद के साथ संघर्ष के बारे में नहीं है, क्योंकि उस पर जायसवाल ने टिप्पणी की, मगर यह तो आगे एक दिलचस्प कथानक के साथ शुरू होती है। फिल्म मुख्य रूप से ध्यान उस समय खींचती है, जब नील (सिद्धार्थ मेनन) ने नेहा के सोसायटी आने पर उसके फ्लैट के स्थान के बारे में अस्पष्ट तरीके से रास्ता बताया, जिससे वह भ्रमित हो गई।

इसके आगे जैसे ही हम नील की दुनिया में कदम रखते हैं, तो हमें पता चलता है कि वह गुस्से में और उदासी भरी जिंदगी जी रहा है। वो अपने हॉस्टल रूममेट की आत्महत्या की वजह से काफी परेशान है, जिसके लिए वह खुद को एक तरह से जिम्मेदार मानता है। इसके साथ ही उसकी अपने पिता के साथ भी लगातार अनबन रहती है, जो पड़ोसियों से छुपा रहा है कि वह इंजीनियरिंग की परीक्षा में फेल हो गया है।

फिल्म नेहा और नील के साथ एक महत्वपूर्ण तीसरे किरदार के रूप में छोटे शहर के सेट-अप का उपयोग करती है। फिल्म में सिर्फ जायसवाल ही नहीं है, जो चाहता है कि उसके आसपास रहने वाले लोग उन बातों और चीजों का पालन करें, जिसे वह मानता है कि जीवन में यही नैतिक आचार संहिता है, बल्कि हम नील के पिता (किरण करमारकर) को भी इसी भूमिका में देखते हैं। नील के पिता को भी छोटे शहर की मानसिकता के साथ दिखाया गया है और वह अपने बेटे को अपनी तरह से ही कंट्रोल करने की कोशिश करता है, यही वजह है कि पिता-पुत्र की आपस में नहीं बनती है। हमें फिल्म में उम्र और पीढ़ी का अंतर स्पष्ट तौर पर दिखाया गया है।

फिल्म में कामुकता को लेकर भी छोटे शहर की मानसिकता को करीब से दिखाया गया है। नील की प्रेमिका अपने पिता के रेजर से अपने अनचाहे बाल काटने की कोशिश करती है और इस दौरान उसे कट लग जाता है और वह खुद को नुकसान पहुंचा लेती है, क्योंकि नील ने उसे कहा था कि वह एक भालू की तरह है और वह उसके साथ यौन संबंध रखने के विचार से नफरत करता है।

कुल मिलाकर फिल्म जून, जो भी कहती है, वह प्रासंगिक जरूर लगता है। मजबूत कलाकारों द्वारा संचालित, यह फिल्म भारत में ओटीटी संस्कृति के उदय से प्रेरित आत्मनिरीक्षण सिनेमा की एक नई लहर का प्रतिनिधित्व करती है, जो कि ऐसी बातचीत शुरू करने में संकोच नहीं करती है, जिसे कुछ समय पहले भी वर्जित समझा जाता था।
 

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