पुण्यतिथि विशेष: भारतीय सिनेमा के लिए मास्टरपीस हैं दादा साहेब फाल्के की फिल्में

पुण्यतिथि विशेष: भारतीय सिनेमा के लिए मास्टरपीस हैं दादा साहेब फाल्के की फिल्में

Bhaskar Hindi
Update: 2018-02-16 09:48 GMT
पुण्यतिथि विशेष: भारतीय सिनेमा के लिए मास्टरपीस हैं दादा साहेब फाल्के की फिल्में

डिजिटल डेस्क, मुंबई। भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादासाहेब फाल्के की आज 74वीं पुण्यतिथि है। दादासाहेब फाल्के का पूरा नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। भारतीय सिनेमा की जब शुरुआत हुई थी, तब सिनेमा में इस्तेमाल होने वाली तकनीकों और मशीनें नहीं थी। उस वक्त दादा साहेब फाल्के भारत की पहली मूक फीचर फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" लेकर आए थे। इस फिल्म में कोई महिला नहीं थी। बता दें कि राजा हरीशचंद्र फिल्म की कुल लागत 15 हजार रुपए थी। उस वक्त ये कीमत बहुत होती थी। फिल्म बनाने के लिए उन्हें पत्नी सरस्वती बाई के गहने तक गिरवी रखकर पैसे जुटाने पड़े थे। दादा साहेब ने एक फोटोग्राफर के तौर पर अपना करियर शुरू किया था। उन्होंने ‘भस्मासुर मोहिनी’, ‘सत्यवान सावित्री’, ‘लंका दहन’ जैसी फिल्में बनाई।  

 

 

 

फिल्म की एक्ट्रेस खोजने गए रेड लाइट एरिया

 

उनकी फिल्मों में उस समय पुरुष ही महिला किरदार भी निभाते थे। उस समय इस तरह के किरदारों के निभाने के लिए सबसे ज्यादा चर्चित अन्ना सालुके थे।  एक बार दादा साहेब फाल्के फिल्म हरीशचंद्र में सेक्स वर्कर तारामती के रोल के लिए एक्ट्रेस ढूंढने के लिए मुंबई के रेड लाइट एरिया में गए। वहां पर औरतों ने उनसे पूछा कि कितने पैसे मिलेंगे।जब उन्होंने पैसे बताए तो महिलाओं ने उनसे कहा कि इतना तो हम एक रात में कमा लेते हैं। आखिर में दादासाहेब की तलाश एक होटल में खत्म हुई। एक दिन वो होटल में चाय पी रहे थे तो वहां काम करने वाले एक गोरे-पतले लड़के को देखकर उन्होंने सोचा कि इसे लड़की का किरदार दिया जा सकता है। उसका नाम अन्ना सालुंके था। इसके बाद में उसने तारामती का रोल निभाया।

 

 

नहीं बना पाए आखिरी फिल्म

दादा साहेब जब अपने अंतिम दिनों में थे तो वह अल्ज़ाइमर की बीमारी से जूझ रहे थे, लेकिन उनके बेटे प्रभाकर ने उनसे कहा कि चलिए नई तकनीक से कोई नई फिल्म बनाते हैं। उस समय फिल्म निर्माण के लिए ब्रिटिश सराकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। जनवरी 1944 में दादासाहेब ने लाइसेंस के लिए चिट्ठी लिखी। 14 फरवरी 1946 को जवाब आया कि आपको फिल्म बनाने की इजाजत नहीं मिल सकती। उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा कि दो दिन के भीतर ही वो चल बसे, इसी के साथ उनकी आखिरी बार फिल्म बनाने की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। आज उनके नाम से बॉलीवुड का सबसे बड़ा अवार्ड दिया जाता है। उन्होंने अपने जीवनकाल में कुल 95 फिल्में बनाई। जिनमें 26 शॉर्ट फिल्में थीं। 16 फरवरी, 1944 को नासिक में उन्होंने गुमनामी के अंधेरे में आखिरी सांस ली।

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