लोकसभा चुनाव: प्रचार हाईटेक, रियलिटी ये कि पब्लिसिटी के लिए देनी पड़ रही फैसिलिटी

लोकसभा चुनाव: प्रचार हाईटेक, रियलिटी ये कि पब्लिसिटी के लिए देनी पड़ रही फैसिलिटी

Anita Peddulwar
Update: 2019-03-15 06:51 GMT
लोकसभा चुनाव: प्रचार हाईटेक, रियलिटी ये कि पब्लिसिटी के लिए देनी पड़ रही फैसिलिटी

डिजिटल डेस्क, नागपुर।  लोकसभा चुनाव की तिथि घोषित होते ही हर स्तर पर तैयारी शुरू हो चुकी है।  चुनाव प्रचार के नए तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। हाईटेक प्रचार अभियान से लेकर प्रचार सभा से मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास किया जा रहा है। विशेष यह कि इसमें प्रचार करने वाले कार्यकर्ताओं का महत्व और बढ़ गया है। चर्चा यह भी है कि अब कार्यकर्ता बिना पैसे और खाने का खर्च लिए बगैर प्रचार में नहीं कूदता है। अन्य शर्तें अलग। हालांकि कुछ पार्टी और उम्मीदवार इसमें अपवाद भी हो सकते हैं। 

कार्यकर्ताओं की कद्र होती थी
पिछले 70 साल में चुनाव प्रचार के तौर तरीकों में आए बदलावों पर बारीक नजर रखने वाले 81 वर्षीय समाजवादी चिंतक व समाजसेवी हरीश अड्यालकर अपने दौर की यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि 60-70 के दशक में यह ताम-झाम नहीं होता था। सुबह कार्यकर्ता अपने घरों से खा-पीकर निकलते थे। घर-घर जाकर मतदाताओं को पार्टी और उम्मीदवार की जानकारी दी जाती थी। शांतिपूर्ण तरीके से यह प्रचार होता था। जिसे जो जिम्मेदारी दी जाती थी, वह निभाता था।  दिन-भर प्रचार और पदयात्रा करने के बाद शाम को सब पार्टी कार्यालय में इकट्ठा होते थे। यहां दिन भर की रिपोर्टिंग होती थी। पार्टी की तरफ से सबको मुरमुरा और चिवड़ा खिलाया जाता था।  कार्यकर्ता की कद्र होती थी। उसकी कोई अपेक्षा नहीं रहती थी। अब काफी कुछ बदल गया है। 1965-70 के बाद इसमें बदलाव शुरू हुआ। अब बदलाव इतना हो गया कि उम्मीदवार को प्रचार के लिए कार्यकर्ता खरीदकर लाने पड़ते हैं। उसे गाड़ी सहित खाने तक सब कुछ उपलब्ध करना होता है। 

7 हजार लोगों का जुटना ही बड़ी सभा माना जाता था 
60-70 के दशक में बड़ी सभाएं न के बराबर होती थीं। बड़ी मुश्किल से सभाओं में 5 से 7 हजार लोगों की भीड़ जुटती थी। इसे भी बड़ी सभा माना जाता था। कस्तूरचंद पार्क मैदान बड़ा होने से न के बराबर सभाएं होती थीं। ज्यादातर सभाएं चिटणिस पार्क, शहीद चौक और टाउन हॉल में ज्यादातर सभाएं होती हैं। अधिकतर सभाएं शाम को होती थी। लोग काम धंधे से सीधे सभाओं में पहुंचते थे। सभाओं में भव्य पंडाल या सजावट नहीं होती थी। एक या दो स्पीकर लगते थे। एक मंच रहता, जिस पर प्रमुख वक्ता और उम्मीदवार सहित अन्य 2-3 अतिथि होते थे। सादगी से प्रचार होता था। धर्म-संप्रदाय पर चुनाव नहीं होते थे। उम्मीदवार और पार्टी देखकर लोग मतदान करते थे। तनावपूर्ण स्थितियां नहीं होती थी। 

नहीं लगानी पड़ती थी दिल्ली के लिए दौड़
विशेष यह कि उस समय टिकट पाने के लिए दिल्ली की दौड़ नहीं लगानी पड़ती थी। स्थानीय बड़े नेता ही बैठक कर उम्मीदवार का नाम फाइनल करके दिल्ली भेजते थे। यह इसलिए भी संभव हो पाता था, क्योंकि उम्मीदवार ज्यादा नहीं होते थे। लोग ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते थे।  गिने-चुने लोगों के नाम सामने आते थे। सुशिक्षित और शालीन लोग चुनाव लड़ने के इच्छुक होते थे। एक लाख रुपए के अंदर चुनाव हो जाते थे। अखबारों में विज्ञापन नहीं दिए जाते थे, बल्कि खबरें छपती थीं। इसके जरिए ही लोगों को पता चलता था कि उम्मीदवार कौन और कहां से खड़ा है।  

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