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शैलचित्र, मूर्तियों के अवशेष बताते हैं कि कभी यहां बस्तियां थी।
डिजिटल डेस्क, रीवा। जिला मुख्यालय से लगभग 60 किलोमीटर दूर सेमरिया क्षेत्र का ककरेड़ी जंगल गांव से ही प्रारंभ हो जाता है। पांच किलोमीटर की दूरी पर जाने के बाद ही इस जंगल में बावडिय़ां, मूर्तियों के अवशेष, तालाब और कुछ दूर जाने पर घनघोर पहाड़ी में शैल चित्र बने हुए दिखने शुरू हो जाते हैं। इन सबको देखने के बाद लगता है कि यहां कभी बस्तियां थी। इन शैल चित्रों, बावडिय़ों और मूर्तियों के अवशेष को देखने कई बार पुरातत्व विभाग जा चुका है। इन्हें संरक्षित करने का प्रस्ताव भी बहुत पहले तैयार किया गया है। वन भूमि पर शैल चित्र और बावडिय़ां होने से इस विभाग के वे वरिष्ठ अधिकारी भी हमेशा इन्हें देखने जाते हैं जिन्हें इनके बारे में जानकारी दे दी जाती है। जंगल में प्रवेश करते ही ऐसे कुएं मिलेंगे जिसमें अभी भी इस भीषण गर्मी में पानी भरा हुआ है। इस पानी का उपयोग आने-जाने वाले राहगीर और चरवाहे करते हैं।
वन विभाग के कम्पार्टमेंट पी 157 में सभी शैल चित्र-
वन विभाग के कम्पार्टमेंट पी 157 में सभी शैल चित्र एवं बावडिय़ां हैं। वन विभाग में जानवरों को पानी पीने के लिए यहां पर मिनी डैम भी बनाए हैं। जंगल में विभिन्न प्रजाति के पेड़ लगे हुए हैं। इसके अलावा जड़ी-बूटियां भी यहां बहुतायत मात्रा में हैं।
ककरेड़ी जंगल की इस तरह कहानी-
ककरेड़ी जंगल की कहानियां कुछ इस तरह लोग बताते हैं। वर्तमान का ककरेड़ी 10वीं-11वीं सदी में कौशाम्बी की तरह उपनगर था। यहां दो राजवंशों का संगम था। प्रथम त्रिपुर राज्य के कल्चुरि द्वितीय चंदेल। आज नगर नाम से जो क्षेत्र सागौन, आंवला और बरारी पलास से ढ़ककर अस्तित्वहीन हो चुका है, कभी संगीत साहित्यकला का उत्कृष्ट केन्द्र बिन्दु था। यहां एक दुर्ग था 8 मील का परकोटा था। मूलद्वार आल्हा दरवाजा के नाम से विख्यात था। बुजुर्गों की माने तो जंगल के भीतर 384 बावडिय़ां होने का प्रमाण हैं।
शोध करने वाले छात्र जाते हैं-
ककरेड़ी के जंगल में शोध करने वाले छात्र प्राय: जाते रहते हैं। कुछ छात्र जंगलों की औषधीय जड़ी-बूटियों का शोध करते हैं, तो कुछ शैल चित्र, मूर्तियों के अवशेष, वर्षों पुराने बने बावडिय़ों की भी जानकारी एकत्र करते हैं। शोधार्थी शैलजा तिवारी ने बताया कि इस जंगल में जो चीजें देखने को मिलती हैं उससे लगता है, कि यहां पर कभी बस्तियां थीं। इसको पुरातत्व को देकर इन गुफाओं, शैलचित्रों और बावडिय़ों को संरक्षित करने की जरूरत है।
तीन सौ से अधिक बावडिय़ां-
ककरेड़ी जंगल उत्तर प्रदेश तक फैला है। इस जंगल में पहले डकैतों की गतिविधियां रहती थी। लेकिन सात-आठ साल पहले डकैतों के सफाया के बाद यहां के लोग अब सुकून की सांसें लेते हैं। ककरेड़ी जंगल के 5 से 10 किलोमीटर के भीतर तीन सौ से अधिक बावडिय़ां, आधा दर्जन तालाब, ऊंचे टीलों में शैल चित्र देखने से यह लगता है, कि कभी कोई मानव जाति यहां जरूर रहा होगा। देखने को मिलता है कि ऊंचे टीले में गढ़े हुए पत्थर यह बताते हैं कि यहां पर गढ़ी अथवा बस्तियां थी। जिन कारीगरों ने इन पत्थरों को तरासा था उन्हें देखकर आज भी मन बर्बस ही प्रफुल्लित हो जाता है।
तीर चलाते एवं हाथी-घोड़े के शैल चित्र-
ऊंची पहाडिय़ों पर जो शैलचित्र पत्थरों में लाल रंग से बनाए गए हैं उसमें तीर चलाते हुए, धनुषबाण लिए हुए, हाथी-घोड़े, लड़ाई करते हुए, हिरण, शेर, भालू, पक्षी के अलावा लाठी-डंडे लिए हुए शैल चित्र बने हैं। इतना ही नहीं शिकार करते हुए वन्य प्राणी और आदि मानव के शैल चित्र यहां हैं। जिससे यह स्पष्ट हो रहा है कि प्राचीन काल में इस क्षेत्र में लड़ाई हुई थी और देखने के बाद यह शैल चित्र बनाए गए। यहां पत्थरों से बने नुकीले पत्थरों के हथियार भी मिले हैं।
Created On :   19 April 2022 2:37 PM IST