यादों में 'हंस' राजेंद्र यादव मतलब बौद्धिक विद्रोह का सिपाही और 'नई कहानी' का अंतिम सूत्रधार
नई दिल्ली, 27 अक्टूबर (आईएएनएस)। साल 1986, तारीख 31 जुलाई। यह मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी और हिंदी साहित्य जगत में एक ऐसी घटना होने जा रही थी, जिसने आने वाले तीन दशकों तक वैचारिक घमासान मचाए रखा। प्रतिष्ठित पत्रिकाएं आर्थिक चुनौतियों के कारण एक-एक करके दम तोड़ रही थीं, तब 'नई कहानी' आंदोलन के तीन सूत्रधारों में से एक, एक दुबले-पतले, लेकिन विचारों से तूफानी शख्स ने, प्रेमचंद द्वारा 1930 में शुरू की गई 'हंस' पत्रिका को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। वह शख्स थे राजेंद्र यादव।
उन्होंने अक्षर प्रकाशन के बैनर तले 'हंस' को सिर्फ एक मासिक कथा के रूप में नहीं, बल्कि एक युद्ध के मैदान के रूप में स्थापित किया।
उन्होंने संपादक की कुर्सी पर बैठकर ऐलान कर दिया कि अब यह पत्रिका 'भद्र' साहित्य को नहीं, बल्कि उस विद्रोह को आवाज देगी जिस पर सदियों से पर्दा पड़ा हुआ था।
आगरा में 28 अगस्त 1929 को जन्मे राजेंद्र यादव की पहचान मुख्य रूप से एक कथाकार से ज्यादा एक संपादक और वैचारिक एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित हुई। 1986 में 'हंस' का पुनर्संस्करण उनका सबसे बड़ा और दीर्घकालिक योगदान था। उन्होंने इस पत्रिका को पारंपरिक सीमाओं से निकालकर एक क्रांतिकारी वैचारिक मंच में बदल दिया।
उन्होंने 'स्त्री-विमर्श' और 'दलित साहित्य' को बहस का केंद्र बनाया। हिंदी साहित्य में इन विमर्शों को वैचारिक मुख्यधारा बनाने का सबसे बड़ा श्रेय राजेंद्र यादव को ही जाता है। उन्होंने केवल इन मुद्दों को जगह नहीं दी, बल्कि संपादकीय के माध्यम से इन्हें साहित्यिक बहस का अनिवार्य हिस्सा बना दिया, यहां तक कि 'दैहिक स्वतंत्रता' जैसे वर्जित मुद्दों पर भी सवाल उठाए।
राजेंद्र यादव को 'प्रतिपक्ष का बुद्धिजीवी' कहा जाता था। दिल्ली के दरियागंज स्थित 'हंस' का कार्यालय देश भर के साहित्यकारों और युवा कथाकारों के लिए एक अनौपचारिक और खुला केंद्र (हिमाद्रि-स्नान का घाट) बन गया था। राजेंद्र यादव हिन्दी साहित्य के एक ऐसे स्तंभ थे, जिनका जीवन और लेखन निरंतर वैचारिक संघर्ष और सामाजिक चेतना का प्रतीक रहा।
उन्होंने 1951 से 2013 तक अपने सक्रिय लेखन काल में मध्यमवर्गीय जीवन के संघर्षों, पारिवारिक टूटन और युवा पीढ़ी की बेचैनी को अपना केंद्रीय विषय बनाया।
'सारा आकाश' उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास है। यह उपन्यास केवल एक कहानी नहीं, बल्कि संयुक्त परिवार व्यवस्था के विरुद्ध एक तार्किक घोषणापत्र था। उपन्यास का पात्र 'शिरीष' यह तर्क देता है कि संस्कृति के नाम पर थोपी गई संयुक्त परिवार की संरचना में स्त्री की आकांक्षाएं कुचल दी जाती हैं और पति स्वयं विवश होता है। इस उपन्यास ने उस समय की सामाजिक-सांस्कृतिक बहसों में तार्किक दृष्टिकोण और अंधानुकरण के विरोध को स्थापित किया। उनके अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास 'उखड़े हुए लोग' और 'कुल्टा' भी व्यक्ति की मानसिक उलझनों और यथास्थिति को तोड़ने की तीव्र आकांक्षा को दर्शाते हैं।
28 अक्टूबर 2013 को जब उनकी जीवन यात्रा समाप्त हुई, तो यह मात्र एक लेखक का अंत नहीं, मानो जैसे एक विशिष्ट साहित्यिक और सांस्कृतिक युग का ऐतिहासिक अंत हो गया हो।
राजेंद्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर की त्रयी 'नई कहानी' आंदोलन की रीढ़ थी। राकेश का असमय निधन हो गया था और कमलेश्वर के देहावसान के बाद, यादव ही इस आंदोलन के सबसे बड़े वैचारिक प्रतीक के रूप में सक्रिय थे। 'त्रयी' की इस अंतिम कड़ी के टूटने से, उस दौर की समाप्ति हुई जिसने स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा साहित्य को मनोवैज्ञानिक गहनता और सामाजिक चेतना की नई दिशा दी।
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Created On :   27 Oct 2025 10:59 PM IST











