मिग-21 एफएल 1970 का वह अक्टूबर महीना जब भारत ने गढ़ा अपना पहला स्वदेशी सुपरसोनिक लड़ाकू विमान

मिग-21 एफएल 1970 का वह अक्टूबर महीना जब भारत ने गढ़ा अपना पहला स्वदेशी सुपरसोनिक लड़ाकू विमान
वर्ष 1970 का वह अक्टूबर महीना भारतीय रक्षा इतिहास में सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि 'आत्मनिर्भरता' की पहली और सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा का प्रमाण था। उस दिन, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के इंजीनियरों के पसीने और संकल्प से गढ़ा गया पहला पूर्ण स्वदेशी सुपरसोनिक लड़ाकू विमान, मिग-21 (मिग-21एफएल, टाइप 77), गर्व से भारतीय वायुसेना (आईएएफ) के बेड़े में शामिल किया गया।

नई दिल्ली, 18 अक्टूबर (आईएएनएस)। वर्ष 1970 का वह अक्टूबर महीना भारतीय रक्षा इतिहास में सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि 'आत्मनिर्भरता' की पहली और सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा का प्रमाण था। उस दिन, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के इंजीनियरों के पसीने और संकल्प से गढ़ा गया पहला पूर्ण स्वदेशी सुपरसोनिक लड़ाकू विमान, मिग-21 (मिग-21एफएल, टाइप 77), गर्व से भारतीय वायुसेना (आईएएफ) के बेड़े में शामिल किया गया।

यह महज एक 'हैंडओवर' नहीं था; यह विदेशी जंजीरों को तोड़ने के अटल संकल्प की दहाड़ थी, जिसने भारतीय एयरोस्पेस पारिस्थितिकी तंत्र की आधारशिला रखी।

आजादी के तुरंत बाद ही भारत को क्षेत्रीय सुरक्षा चुनौतियों ने घेर लिया। 1956 में पाकिस्तान ने जब अमेरिका से नॉर्थ अमेरिकन एफ-86 सब्रेस हासिल किए, और बाद में उन्नत लॉकहीड एफ-104 स्टारफाइटर उनके बेड़े में शामिल हुए तो भारतीय वायुसेना के सामने एक गंभीर 'जेट गैप' पैदा हो गया। एफ-104 मैक 2.0 प्लस क्षमता वाला विमान था, जिसके सामने भारत के पास कोई सीधा मुकाबला नहीं था।

इस भू-राजनीतिक अनिवार्यता ने भारत को पश्चिम के पारंपरिक हथियार आपूर्तिकर्ताओं से विमुख होने और सोवियत संघ की ओर रुख करने के लिए मजबूर किया। यह एक ऐसा रणनीतिक बदलाव था जिसने भारतीय वायुसेना में सोवियत लड़ाकू विमानों के प्रभुत्व के एक नए युग की शुरुआत की। 1962 के चीन युद्ध ने इस आवश्यकता को 'जल्द से जल्द' एक सक्षम तकनीक हासिल करने की मजबूरी में बदल दिया। इसी रणनीतिक मजबूरी के तहत, 1963 में सोवियत-निर्मित मिग-21एफ-13 संस्करण भारतीय वायुसेना का पहला सुपरसोनिक लड़ाकू विमान बना।

सोवियत संघ के साथ 1962-64 में हुआ लाइसेंस उत्पादन समझौता सिर्फ विमान खरीदने का सौदा नहीं था, बल्कि तकनीकी हस्तांतरण का एक मास्टरस्ट्रोक था। सौदे में न केवल मिग-21 एयरफ्रेम, शक्तिशाली आर-11 जेट इंजन, और के-13 एयर-टू-एयर मिसाइल के उत्पादन की व्यापक योजना थी, बल्कि यह भुगतान स्थानीय मुद्रा (रुपया-रूबल) में करने का विकल्प भी देता था। सबसे महत्वपूर्ण, इसमें भारत में 'लाइसेंस उत्पादन' की पेशकश थी।

इस तकनीकी एकीकरण ने भारत के औद्योगिक आधार में एक चिरस्थायी निवेश किया। हालांकि, मिग-21 को अपनाने का निर्णय भारत के महत्वाकांक्षी स्वदेशी सपने, डॉ. कर्ट टैंक द्वारा डिजाइन किए गए एचएएल एचएफ-24 मारुत कार्यक्रम के लिए एक बड़ा झटका था। मारुत को मैक 2-सक्षम होने के लिए डिजाइन किया गया था, लेकिन उपयुक्त उन्नत इंजन हासिल करने में विफलता के कारण यह एक सबसोनिक विमान ही रह गया। 1962 के बाद, देश का रणनीतिक ध्यान मैक 2 क्षमता पर केंद्रित हो गया, जिससे मारुत परियोजना प्रभावी रूप से दरकिनार हो गई। रणनीतिक आवश्यकता ने स्वदेशी डिजाइन की लंबी अवधि की प्रगति पर विजय प्राप्त की।

मिग-21 के लाइसेंस उत्पादन के लिए सोवियत योजना ने भारत में एक अभूतपूर्व औद्योगिक बुनियादी ढांचा स्थापित किया, जिसे 'मिग कॉम्प्लेक्स' के नाम से जाना जाता है। यह कॉम्प्लेक्स आधुनिक भारत के एयरोस्पेस औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र का जन्मस्थान था, जो तीन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण संयंत्रों पर टिका था। नासिक एयरफ्रेम फैक्ट्री, जो आज तक लड़ाकू जेट विनिर्माण की धुरी है। कोरापुट आर-11 जेट इंजन जैसे जटिल इंजनों के उत्पादन के लिए इंजन फैक्ट्री है। हैदराबाद, जो एवियोनिक्स और अन्य संवेदनशील इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स फैक्ट्री है।

मिग-21 कार्यक्रम ने प्रौद्योगिकी के अवशोषण के लिए एक सावधानीपूर्वक चरणबद्ध रणनीति अपनाई। शुरुआती वर्षों (1966-1969) में आयातित घटकों (सीकेडी/एसकेडी किट) से असेंबली की गई। खुफिया रिपोर्टों ने इसे 'अत्यधिक आशावादी' माना था, लेकिन एचएएल के इंजीनियरों और तकनीशियनों ने इन आशंकाओं को ध्वस्त कर दिया।

एचएएल द्वारा भारत में पूरी तरह से स्क्रैच से निर्मित पहला मिग-21एफएल (टाइप 77) विमान आधिकारिक तौर पर आईएएफ को सौंपा गया। यह मील का पत्थर देश के भीतर पूर्ण घटक निर्माण की शुरुआत का प्रतिनिधित्व करता था। उन्नत आर2एल रडार और बेहतर एवियोनिक्स से लैस, मैक 2.05 की अधिकतम गति वाला टाइप 77, आईएएफ के लिए गेम चेंजर साबित हुआ।

अक्टूबर 1970 में पूर्ण स्वदेशी उत्पादन की शुरुआत ने भारतीय वायुसेना को 1971 के युद्ध से पहले अपनी शक्ति बढ़ाने में सक्षम बनाया। इस क्षमता ने सुनिश्चित किया कि आईएएफ अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों या आयात व्यवधानों पर निर्भर हुए बिना एक प्रमुख संघर्ष में अपनी लड़ाकू शक्ति को बनाए रख सके।

1987 तक, एचएएल ने विभिन्न वेरिएंट में 600 से अधिक इकाइयां घरेलू स्तर पर निर्मित करके शानदार सफलता हासिल की थी और 1990 के दशक तक, मिग-21 घटकों का 60 प्रतिशत से अधिक स्वदेशीकरण हासिल कर लिया गया था, जिसमें लैंडिंग गियर और इजेक्शन सीटें जैसे महत्वपूर्ण पुर्जे शामिल थे।

1970 का वह क्षण भारत की तकनीकी आत्मनिर्भरता की ओर पहली बड़ी छलांग थी। मिग-21 ने एचएएल को न केवल एक विमान असेंबलर, बल्कि एक सुपरसोनिक विनिर्माण महाशक्ति के रूप में स्थापित किया।

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Created On :   18 Oct 2025 6:40 PM IST

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