लोकसभा और विधानसभा के लिए बन रही गोपनीय रणनीति, खाली सीटों पर है नजर

Confidential Strategies for Lok Sabha and Assembly election
लोकसभा और विधानसभा के लिए बन रही गोपनीय रणनीति, खाली सीटों पर है नजर
लोकसभा और विधानसभा के लिए बन रही गोपनीय रणनीति, खाली सीटों पर है नजर

डिजिटल डेस्क, नागपुर। आगामी  लोकसभा व विधानसभा चुनाव की गतिविधियां शुरू हो गई है। चुनाव में  आरक्षित सीटों पर बड़े राजनीतिक दल खास नजर लगाए हुए हैं। साथ ही उन सीटों पर प्रभाव बढ़ाने की तैयारी है जहां स्थानीय व छोटे संगठनों के अलावा जिला स्तर के नेता का प्रभाव है।  दोनों ही बड़ी पार्टियां इसके लिए खास नजर रखे हुए हैं। फिलहाल चुनाव रणनीति को गोपनीय रखने व संभावित गठजोड़ में बाधा नहीं पड़ने देने के लिहाज से खुलकर कुछ नहीं कहा जा रहा है, लेकिन संकेत मिल रहे हैं कि राज्य की राजनीति में जल्द ही पाला बदल की राजनीति दिखने लगेगी।

बन सकती है 1995 की स्थिति  
राज्य में लोकसभा से अधिक विधानसभा चुनाव की तैयारी में रुचि दिखाई जा रही है। विविध मुद्दों पर भाजपा के नेतृत्व की सरकार के विरोध में जनाक्रोश दिख रहा है व दिखाया जा रहा है। तेजी से प्रचार किया जा रहा है कि राज्य सरकार केवल घोषणाएं करती है। योजनाओं पर अमल नहीं हाे पा रहा है। सरकार से जुड़े लोग की परस्पर शह मात की राजनीति करने लगे हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि 1995 जैसी स्थिति बन सकती है। उस दौरान कांग्रेस के विरोध में माहौल बना था। हालांकि विपक्ष भी मजबूत स्थिति में नहीं था। 288 सदस्यों वाली राज्य विधानसभा में सबसे अधिक कांग्रेस के 80 उम्मीदवार जीते थे। लेकिन 73 स्थान पर सफल रहनेवाली शिवसेना ने भाजपा के 65 सदस्यों को मिलाकर सरकार बना ली थी। उस दौरान शिवसेना नेतृत्व की युति सरकार को निर्दलीय व छोटे संगठनों विधायकों का साथ मिला था। तब 70 विधायक किसी बड़े दल सेे नहीं जुड़े थे। उस दौरान नागपुर जिले से अनिल देशमुख व सुनील केदार निर्दलीय विधायक के तौर पर मंत्री बने थे। माना जा रहा है कि इस बार भी चुनाव में बागी उम्मीदवारों की भरमार रहेगी। कुछ क्षेत्र में बड़े दल के नेता ही अपने समर्थकों को निर्दलीय या छोटे संगठनों के माध्यम से चुनाव जिताने का प्रयास करेंगे। 

निर्दलियों, छोटे संगठन के नेताओं का रहा है प्रभाव
20 वर्ष की राजनीतिक हलचल को देखें तो राज्य विधानसभा के चुनाव में निर्दलियों व छोटे संगठन के नेताओं का प्रभाव रहा है। 1995 में 288 में से 70 उम्मीदवार निर्दलीय व छोटे संगठनों के माध्यम से चुने गए थे। 1999 में 30, 2004 में 32, 2009 में 54 व 2014 में 20 उम्मीदवार निर्दलीय या जिला स्तरीय संगठन के चुने गए। 1999 में शरद पवार के नेतृत्व में बनी राकांपा ने सबसे पहले निर्दलीय व बड़े दल से नाराज प्रभावशाली नेताओं को प्रोत्साहित किया। लिहाजा राकांपा की ताकत बढ़ती रही। 1999 में स्थापना के दौरान ही राकांपा 58 विधायकों के  साथ राज्य की सत्ता में शामिल हो गई। 2004 में 71, 2009 में 62 विधायक संख्या के साथ राकांपा कांग्रेस के साथ सत्ता में रहकर कांग्रेस पर ही दबाव की राजनीति चलती रही। 

क्या कहते हैं जानकार 
कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता अतुल लोंढे के अनुसार चुनाव तैयारी के दौरान हर स्तर की रणनीति पर िवचार होता ही है। राज्य में जनता ही भाजपा को सत्ता से दूर करने की तैयारी में हैं। आरक्षित सीटों पर संगठन कार्य के लिए कांग्रेस से विशेष समितियां बनाई हैं। वरिष्ठ नेताओं के मार्गदर्शन में विधानसभा क्षेत्र स्तर पर काम चल रहा है। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता गिरीश व्यास के अनुसार उनकी पार्टी वर्ष भर संगठन कार्य में जुटी रहती है। बूथ स्तर संगठन कार्य के साथ ही मतदाताओं का रुझान लिया गया है। भाजपा की स्थिति पहले से अधिक मजबूत हुई है। अब तो यह उम्मीदारी के दावेदारों की संख्या अधिक रहेगी। लिहाजा हर सीट पर संभावित उम्मीदवार की दृष्टि से भी संगठन कार्य हो रहा है। 

Created On :   20 March 2018 4:08 PM IST

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