बगैर टेंडर के डाटा प्रोसेसिंग के नाम पर कंपनी को कर दिया भुगतान

corruption charges on Nagpur Education Deputy Directors Office
बगैर टेंडर के डाटा प्रोसेसिंग के नाम पर कंपनी को कर दिया भुगतान
बगैर टेंडर के डाटा प्रोसेसिंग के नाम पर कंपनी को कर दिया भुगतान

डिजिटल डेस्क, नागपुर। 11वीं कक्षा की प्रवेश प्रक्रिया के नाम पर लाखों रुपए खर्च करने वाला नागपुर शिक्षा उपसंचालक कार्यालय सवालों के घेरे में है। पिछले कुछ वर्ष में शिक्षा विभाग ने बगैर सोचे-समझे एक ही सॉफ्टवेयर कंपनी को लाखों रुपए डाटा प्रोसेसिंग के नाम पर दिए हैं। आर्श्चय यह है कि वर्ष 2011 से लेकर वर्ष 2016 के बीच यह निजी कंपनी हर वर्ष अपनी फीस बढ़ाती रही है, लेकिन शिक्षा विभाग को इस निजी कंपनी से इतना मोह था कि वे हर साल इस कंपनी को लाखों रुपए का भुगतान करके सेवाएं लेते रहे। वर्ष 2011 में शिक्षा विभाग ने इसी कंपनी को डाटा प्रोसेसिंग के लिए 7 लाख 30 हजार 450 रुपए चुकाए थे। अगले कई साल तक रकम बढ़ती गई। वर्ष 2016 मंे हुई प्रवेश प्रक्रिया के लिए कंपनी को डाटा प्रोसेसिंग के लिए कुल 25 लाख 83 हजार 750 रुपए दिए गए।

नियमों का पालन नहीं हुआ
सरकारी नियमों के अनुसार इतनी बड़ी रकम खर्च करने के लिए शिक्षा विभाग को बाकायदा टेंडर प्रक्रिया आयोजित करनी थी। समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर टेंडर बुलवाने थे, सबसे कर्म खर्च में काम करने वाली कंपनी को कामकाज देना था। किसी भी सरकारी विभाग को अगर निजी कंपनी से कोई काम कराना हो, तो पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए टेंडरिंग प्रक्रिया आयोजित की जाती है। मगर 11वीं कक्षा के प्रवेश के मामले में शिक्षा उपसंचालक कार्यालय ने एक ही कंपनी से सालों तक काम करवाकर उसे दोगुना और तीन गुना भुगतान क्यों किया जाता रहा, इसका जवाब शिक्षा उपसंचालक कार्यालय के पास नहीं है।

हर साल औसतन 40 हजार विद्यार्थी
नागपुर शहर के 190 हाईस्कूल और जूनियर कॉलेजों की आर्ट्स, साइंस, कॉमर्स, वोकेशनल और बाइफोकल की 45 हजार से अधिक सीटों पर इसी केंद्रीय प्रवेश प्रक्रिया के जरिए प्रवेश दिए जाते हैं। हर साल औसतन 40 हजार विद्यार्थी इसमें शामिल होते हैं। यानी स्पष्ट है कि हर साल इतने ही डाटा का विश्लेषण करके शिक्षा विभाग विद्यार्थियों को सीट आवंटित करता रहा, लेकिन डाटा प्रोसेसिंग का खर्च लगातार बढ़ता रहा है। वर्ष 2011 में हुई प्रवेश प्रक्रिया के लिए निजी कंपनी को 7 लाख 30 हजार 450 रुपए का भुगतान किया गया। इसके बाद वर्ष 2012 में इसी काम के लिए 9 लाख 30 हजार रुपए खर्च होने का दावा किया गया है।

वर्ष 2013 में 10 लाख 85 हजार रुपए डाटा प्रोसेसिंग का खर्च दर्शाया गया है। आश्चर्य है कि वर्ष 2014 में डाटा प्रोसेसिंग का खर्च लगभग दो गुना होकर 20 लाख 77 हजार रुपए बताया गया है। वहीं वर्ष 2015 की प्रवेश प्रक्रिया की डाटा प्रोसेसिंग पर 23 लाख 58 हजार 750 रुपए खर्च किए गए। वर्ष 2016 की प्रवेश प्रक्रिया में डाटा प्रोसेसिंग के लिए 25 लाख 83 हजार 750 रुपए का खर्च दर्शाया गया है। हर साल विद्यार्थियों की संख्या लगभग समान होने के बाद भी डाटा प्रोसेसिंग का खर्च बढ़ कर तीन गुना क्यों हो गया, इसका जवाब भी शिक्षा विभाग की ओर से नहीं दिया गया है।

प्रतिक्रिया देने से बचते रहे उपसंचालक
आर्थिक अस्पष्टता के मामले में उठ रहे सवालों पर शिक्षा उपसंचालक कार्यालय पूरी तरह मौन है। टेंडर प्रक्रिया आयोजित की गई या नहीं? विज्ञापन जारी किए गए या नहीं? हर साल दाम बढ़ाने के बाद भी एक ही कंपनी से काम क्यों कराया गया? इन सभी प्रश्नों का उत्तर जानना विद्यार्थियों और पालकों के लिए जरूरी है। लेकिन मामले में शिक्षा उपसंचालक सतीश मेंढे जवाब ही नहीं देते। करीब एक सप्ताह पूर्व उनसे मुलाकात करके ये प्रश्न किए गए। नया पदभार संभालने का हवाला देकर उन्होंने जवाब देने के लिए एक दिन का समय मांगा। सारे प्रश्न मेल पर लिखित रूप में भेजे जाने पर उन्होंने बचना ही शुरू कर दिया। कई बार "अभी तो जानकारी ले रहा हूं" का उत्तर मिला, और तो और इस संबंध में फोन का जवाब नहीं दिया गया। समाचार लिखे जाने के पूर्व एसएमएस भेजकर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने "व्यस्त हूं" का जवाब देकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया।

Created On :   20 July 2018 8:53 AM GMT

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