लाखों की जमीन, मगर खेती में नुकसान इतना हुआ कि मनरेगा मजदूरी करने लगे किसान

Costly land, but big loss of farming, now farmer engaged in MGNREGA
लाखों की जमीन, मगर खेती में नुकसान इतना हुआ कि मनरेगा मजदूरी करने लगे किसान
लाखों की जमीन, मगर खेती में नुकसान इतना हुआ कि मनरेगा मजदूरी करने लगे किसान

लिमेश कुमार जंगम, नागपुर। कुछ किसानों के पास लाखों की जमीन होने के बावजूद भी वो मनरेगा में मजदूरी करने को मजबूर हैं। बताया जा रहा है कि उनका नुकसान इतना अधिक हुआ कि वो मजदूरी कर परिवार का पेट पाल रहे हैं। गांव में बरसों से हल चलाने वाले एक किसान की खेती 12 एकड़ है। मौजूदा बाजार भाव में कीमत प्रति एकड़ 20 लाख के हिसाब से करोड़ रुपए से भी अधिक की है। बीते कुछ वर्षों में कभी अवर्षा, कभी अतिवृष्टि तो कभी फसलों पर कीटकों के प्रभाव ने किसान की आर्थिक रीढ़ तोड़ दी।

सूखा व अनियमित बारिश के अलावा बीजों व खाद के दामों में उछाल और बढ़ती महंगाई ने खेती को महंगा कर दिया। लागत की राशि नहीं निकल पाई और लगातार घाटा होने लगा। कर्ज लिया, फिर खेत बोए और घाटा हो गया। अमूमन अधिकांश किसानों की कहानी मिलती-जुलती है। ऐसे में अपने परिवार का भरण-पोषण करना और कर्ज का ब्याज चुकता करना कठिन हो गया। आखिरकार जो किसान करोड़ की संपत्ति वाले खेत भूमि का मालिक है, उसे सरकार के मनरेगा मेें मात्र 203 रुपए पर दिहाड़ी करने जाना पड़ रहा है।

...इसलिए फायदेमंद लगा यह
खेती हर समय लाभ का सौदा हो यह जरूरी नहीं। मौजूदा स्थिति में ऐसे अनेक किसान हैं, जिनके पास लाखों रुपए की कृषि भूमि तो मौजूद है मगर इसमें इतना नुकसान हुआ कि उन्हें मनरेगा में 203 रुपए प्रति दिन पर दिहाड़ी करना ज्यादा फायदेमंद लगा। मनरेगा में काम कर रहे ऐसे ही कुछ किसानों ने बताया कि किस तरह कमर-तोड़ मेहनत करने के बाद उन्हें खेती में इतना भी नहीं मिला कि ठीक से परिवार चल सके। वहीं कुछ ऐसे मजबूर किसान भी हैं, जिन पर पहले से ही कर्ज हैं और अब नया कर्ज कोई देने को तैयार नहीं है, इसलिए भी खेती की जगह दिहाड़ी कर रहे हैं।

यही कारण है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में मजदूरों का आंकड़ा लगातार बढ़ना जा रहा है, जो कृषि क्षेत्र की बर्बादी और रोजगार की कमी को दर्शाने के लिए काफी है। यदि समय रहते ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ठीक नहीं किया गया तो आगामी वर्षों में गांवों से पलायन करने वाले बेरोजगार ग्रामीण बड़ी संख्या में शहरों का रूख करेंगे। मजदूरी दर के मामले में शहर व ग्रामीण में अंतर है। शहरी क्षेत्र में मजदूरी करने पर करीब 500 रुपए प्रतिदिन मिल जाते हैं, जबकि मनरेगा में 203 रुपए।

फसलें बर्बाद, इसलिए करते हैं मजदूरी
किसान घनश्याम चकोले के मुताबिक खेतों में 12 माह काम नहीं होता। बढ़ती महंगाई, परिवार की जरूरतें, शिक्षा एवं बैंकों से लिया कर्ज चुकाना मुश्किल हो चला है। हमारी ही तरह अन्य किसानों का भी यही हाल है। गुमथड़ा निवासी नानाभाऊ वाघ के पास 12 एकड़ कृषि भूमि है। गादा निवासी वामन जुनघरे के पास 9 एकड़, मनोहर बावने के पास 12 एकड़ और मनोहर भोयर के पास 8 एकड़ कृषि भूमि है। धान, सोयाबीन, गेहूं व चने की फसलें बर्बाद हुई। कर्ज इतना चढ़ा कि अब मनरेगा से गुजारा करने की नौबत आन पड़ी है। जबकि एक एकड़ भूमि की कीमत यहां 25 लाख रुपए से अधिक है, लेकिन भूमि को बेचकर कब तक जीवित रह पाएंगे।

महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों को छोड़ अन्य सभी महानगर एवं शहरों में इन दिनों खुदाई व अन्य दिहाड़ी के कामों में कार्यरत मजदूरों को 500 रुपए से अधिक की मजदूरी मिल जाती है। वहीं ग्रामीण इलाकों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की तय मजदूरी मात्र 203 रुपए है। इसके बावजूद चिलचिलाती धूप में 2 करोड़ से अधिक ग्रामीण कड़ी मेहनत कर अपना पसीना बहाने के लिए तैयार हैं।

राज्य के 89 लाख परिवारों ने मनरेगा में पंजीयन कर अपना जॉब कार्ड बना लिया। बावजूद इसके मात्र 2 लाख परिवारों को ही 100 दिन का रोजगार दिया जा सका है, जबकि प्राप्त निधि में से करीब 12 प्रतिशत राशि सरकार खर्च ही नहीं कर पा रही है।

खेतों में पसीना बहाकर भी लाभ नहीं
योगेश्वरी चोखांद्रे सरपंच मनसर का कहना है कि कठिन परिश्रम कर फसलें उगाने के बावजूद किसानों को उत्पादन का सही मूल्य नहीं मिल पाता है। सभी का दर्द एक-समान है। कृषि पर निर्भर 25 प्रतिशत खेत मजदूरों को अब काम नहीं मिल पा रहा है। लगातार घाटा झेल रहे किसान बेहद परेशान हैं। मनसर निवासी प्रमिला मोटघरे के पास 8 एकड़ एवं स्वरूपा चौरे के पास ढ़ाई एकड़ कृषि भूमि है। गांव के किसान कपास, तुअर, सोयाबीन व धान की फसल लेते हैं। फसलों की बर्बादी के कारण किसान व उनका परिवार सामाजिक वनीकरण के पौधारोपण व मनरेगा में काम करने लगे हैं, जबकि यहां कृषि भूमि की कीमत 15 लाख रुपए प्रति एकड़ से अधिक है।

दिव्यांग भी काम करने को मजबूर
राज्य में बेरोजगारी इस कदर हावी होते जा रही है कि अब लोगों के पास मनरेगा के अलावा मजदूरी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इस बात का अंजादा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिव्यांग और शारीरिक तौर पर दुर्बल व्यक्ति भी मनरेगा में मजदूरी कर रहा है। मौजूदा स्थिति में 6982, वर्ष-2017 में 19771, वर्ष-2016 में 18271, वर्ष-2015 में 18710 तथा वर्ष-2014 में 19306 दिव्यांगों ने काम किया है।

किया था वादा 365 दिन की मजदूरी देने का, और मिली दिहाड़ी मात्र 48 दिन
मनरेगा में पंजीकृत एवं काम मांगने वाले सभी ग्रामीणों को 100 दिनों की मजदूरी देने का प्रावधान दर्ज है। यदि काम मांगने के बावजूद 15 दिनों के भीतर कार्य उपलब्ध नहीं कराया जाता है तो सरकार को संबंधित मजदूरों को बेरोजगारी भत्ता देना पड़ा है।

Created On :   28 May 2018 11:06 AM GMT

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