भास्कर हिंदी के पाठकों को क्यों बेस्ट लगते हैं अपने पापा, सुनिए पापा से जुड़ी मोटिवेशनल कहानी, उनके बेटा-बेटियों की जुबानी

Daughter shared fathers love on Fathers Day, my father achieved impressive status in society
भास्कर हिंदी के पाठकों को क्यों बेस्ट लगते हैं अपने पापा, सुनिए पापा से जुड़ी मोटिवेशनल कहानी, उनके बेटा-बेटियों की जुबानी
Happy Father's day भास्कर हिंदी के पाठकों को क्यों बेस्ट लगते हैं अपने पापा, सुनिए पापा से जुड़ी मोटिवेशनल कहानी, उनके बेटा-बेटियों की जुबानी

डिजिटल डेस्क, भोपाल। "ओ मेरे पापा द ग्रेट"- जीवन भर पिता से अपने दिल की बात कहने में भले ही संकोच होता रहा हो। लेकिन जब मौका मिले तो अपने जज्बात क्यों न बयां करें। भले ही सख्त से दिखने वाले अपने पापा से लिपट कर कभी ये न कह सकें हों कि पापा आप सबसे बेस्ट हैं। मां की तरह पापा से जिद करने की हिम्मत न जुटा सकें हों पर फादर्स डे पर ये कहने में क्या हर्ज है कि पापा आप ही तो हैं जिन्होंने हमारी झोली खुशियों से भर दी। जो बात आप अपने पापा से नहीं कह सके, उसे कहने के लिए भास्कर हिंदी बना अपने रीडर्स की जुबान। जिन्होंने हमारे साथ शेयर किए अपने पापा से जुड़े जज्बात।

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मैं आज 51 की हूं। पिता की लाडली और दुलारी। मेरे पिता बहुत मेहनत की अपना नाम कमाने, पैसे कमाने और परिवार को जोड़कर रखनें में, हम चार भाई बहन हैं। बड़े भाई को वक्त से पहले ही भगवान ने अपने पास बुला लिया। जब भाई गया तो पिता ने अपने आप को कैसे संभाला ये शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। ये वो दुःख का पहाड़ है जो एक बाप को उठाने में पूरी दुनिया की ताकत लगती है। मेरे पापा ने पैसा, शोहरत और समाज में प्रभावशाली रुतबा हासिल किया। समाज में सामुहिक विवाह, परिचय सम्मेलन जैसे कार्यक्रम की शुरुआत कि थी।

मुझे एक बात बहुत अच्छी तरह याद है जब स्कूल जाते थे तो नोटबुक पेन पेंसिल ये चीजें लगती हैं। हमारे नोटबुक में अगर दो तीन पेज खाली रह जाते थे बिच बिच में कही वो हम नहीं देखते थे और नयी नोटबुक लाने कहते थें।तब पापा बोलते जो नोटबुक भर गयी वो दिखोओं। मैं दिखा देती, पापा पास बैठते और नोटबुक के पन्नों को पलटते जातें और जो खाली दिखा वो गिनते थे। फिर उसकी एहमियत समझाते थे।

बड़े हुवे तो ये होना वो होना और जब सब मिलता था तो उसकी कदर नहीं रहती थी।पापा ने बहोत बार देखा फिर एक दिन मैंने जो मांगा वो लाकर नहीं दिया और कहा तुम खुद पैसे जोड़ों और अपना सामान ले आओ। पैसे कैसे जोड़ना ये तुम सोचो।

मैं पैसे जोड़ने लगीं पर कुछ और लेने का मन हुआ तो वो ले लिया और जिसके लिए पैसे जोड़ रही थी वो रह जाता।जो मुझे होना था वो मेरे लिए बहुत जरूरी भी था। बहुत कोशिश की पर सफलता प्राप्त नहीं हो रही थी। ऐसे ही एक दिन परेशान सी सोचते हुए बैंठी थी कि कैसे जोडूं पैसे तब पापा पास बैठते हुवे बोलें बेटा पैसे जोड़ना और उस पर अपनी पकड़ मजबूत रखना बहुत कठिन होता है और ये आपको सिखना होगा। दुनिया में पैसे आसानी से कमाये जा सकतें हैं पर उसको जोड़कर और पकड़कर रखना उतना ही मुश्किल है।

ये बात उस वक्त समझ में आयी जब मुझे पैसे की जरूरत थी और मेरे पास नहीं थे।जब थे तब शाॅपिंग,मौज मस्ती में उड़ाते थे। आज मेरे पापा इस दुनिया में नहीं है पर उनकी सिख,उनकी बातें वो सब आज हर पल याद आते हैं।आज भी वो जहां भी है मेरे साथ है। मेरे बहोत सो ने मेरा साथ छोड़ा पर जब पापा साथ छोड़ गए तो मानों सारा जहां ठहर गया। पापा आपको दिल की गहराई से आज भी लौटकर आने की उम्मीद रखती हूं।

सोनाली वर्मा
कामठी नागपुर महाराष्ट्र

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बाबू जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीएससी फर्स्ट क्लास पास कर पुश्तैनी व्यापार को सम्हालने कटनी, मध्य प्रदेश अपनी माँ और एक छोटे भाई तथा इकलौती बहन के साथ आना पड़ा ।
1947 के पूर्व आज़ादी की मशाल लेकर देश भक्ति के गीत गाते सड़कों पर निकल पड़े ।
जेल जाने का समय आया तो माँ की ममता ने रोक लिया ।
देश आजाद हुआ ।
राजनीति में कदम बढ़ा दिए पर पद का लोभ नहीं था ।
लोहिया जी के कदमों पर चल दिए ।
धीरे-धीरे कविता के प्रति रुचि पैदा हुई हास्य-व्यंग्य को छः पंक्तियों में समेटने का प्रयास करते-करते वे मंचों पर पहुंच गए ।
आम लोगों ने उन्हें " छक्का " की उपाधि दे डाली ।
देश के कोने-कोने से होते हुए वे अखबारों में छपने लगे ।
घर , शहर  और मंचों पर उन्हें " बाबू जी " के नाम से पुकारा जाता था ।
कवि सम्मेलन के मंच पर वे संचालक को अच्छे से समझाते थे मुझे मेरे नाम " मिश्रीलाल जायसवाल " कह कर आमंत्रित कीजिएगा पर क्या किया जाय माइक पर संचालक उन्हें
" बाबू जी " कहकर बुला देता था । वे नाराज हो जाते थे ।
कविता उन्हें विदेश तक ले गई ।

एक समय था जब कविता से मुझे चिढ़ थी इसकी वजह बाबू जी के घर पर ना रहने पर मुझे गल्ले की आढ़त सम्हालनी पड़ती थी ।
आज उनकी कलम मेरे पास है ।
उनके चरणों में समर्पित उनकी  दो पंक्तियाँ

लिपिस्टिक काली मेम को लगती ऐसी निक ।
जैसे डामर सड़क पर पड़ी पान की पीक ।।
उनको नमन करते हुए मेरी दो पंक्तियाँ  -
उसके सीने पे चंद बुलबुले देखे ।
अभी-अभी कोई जहाज़ डूबा है ।।

हास्य कवि शरद जायसवाल
कटनी , मध्य प्रदेश

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आज मैं अपने पिता जी के बारे में एक कहानी कहना चाहता हूँ ।
मेरे पिता का नाम मुकेश चक्रवर्ती है ।
वह मुझसे बहुत प्यार करते है एवं मै भी ।
पिता जी की एक खास बात यह है कि वह प्यार तो करते परंतु दिखाते नहीं है तथा वह तो मॉर्निंग से रात तक काम करते है ओर परंतु आज के कुछ बालक एवं बालिकय दिनभर मोबाइल मे लगे रहते है पिता सोचता है की मेरे बचे बड़े होकर ऑफिसर बने देश की रक्षा करे परन्तु आज की पीडा हुने धोखा दे देती है ।
जाब पिता  के साथ हम खाने मे बेठते है तो पिता के मन यही रहता है की मेरा पेट भरे या ना भरे मगर मेरे बचो का जरुर भरे ।
ओर सबने देखा होगा की पिता कभी अपने बच्चों को खाने से मना नहीं करते है ।
हमे रोज अपने पिता एवं माता की सेवा करना चाहिए ।

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मेरे पापा आदरणीय श्री ओम प्रकाश सक्सेना की किसी इंसान से या काल्पनिक हीरो से तुलना नहीं करना चाहता, पापा इस सब से बहुत अलग हैं बहुत ऊपर हैं  
वो इतने पूरे हैं अपने आप में जितना होना किसी के लिए संभव ही नहीं । ज़िन्दगी में हर समय यहां तक कि आज 84 साल की उम्र में भी बस पूरे समय हम लोगों के बारे में ही सोचना और करते जाना ।
सुबह 7 बजे मम्मी को ऑफिस जाना होता था उसके पहले मम्मी के साथ पूरा घर का काम निपटाना सबके टिफ़िन तैयार करने के लिए वो पापा का किचन में पूड़ी बेलने की मशीन पर सिद्ध हस्त याद है हमें ।
उसके बाद अपनी राजदूत मोटरसाइकिल पर मम्मी को मुझे भैया और दीदी सबको उनके गंतव्य पहुंचाना कभी नहीं थकना, सबके पापा थकते हैं,
मौका पाकर बिस्तर पर आराम करते हैं पर हमारे पापा को हमनें कभी रात के सिवाय लेटते नहीं देखा दिन भर कुछ न कुछ करते रहते हैं
आज भी पूरे घर को सिस्टेमेटिक रखना सभी वस्तुओं को सही जगह पे रखना और उसके लिए सही जगह बनाना हर पेपर के लिए उचित फ़ाइल बनाना और फाइल्स के लिए निर्धारित जगह रखना ये उनका नशा है
क्या करें उन्होंने जीवन में इसके और संगीत के सिवाय कोई नशा ही नहीं किया ।

70 के दशक में शौकिया रिकॉर्डिंग का जो काम शुरू किया वो बाद में चल कर मध्य भारत का प्रथम प्रोफ़ेशनल साउंड स्टूडियो बना मैंने नॉकरी न करके स्टूडियो चलाने की इच्छा की पापा ने इस सपने को पूरा करने समय से पहले रिटायरमेंट ले कर सारा पैसा मेरे लिए स्टूडियो अपग्रेड में लगा दिया, कौन के पापा कर सकते हैं ऐसा ?
हम चाह कर भी उनके जैसे नहीं बन सकते 75 की उम्र में बड़े भैया ने laptop gift किया था अब तो दूसरा लैपटॉप भी आ गया है उसके पहले कभी computer पर काम नहीं किया था पर अब उसपर कुछ न कुछ creative करते रहते हैं word और excel पर उपयोगिता की कुछ न कुछ sheets बनाते रहते हैं दवाओं की सही जानकारियां उनकी शुरू से हॉबी रही है तो उसकी एक शीट, महीने के राशन और जनरल सामान की शीट तैयार है क्या क्या ज़रूरतें हो सकती हैं सब शामिल है उसमें । किसी भी विषय या सवाल समस्या की कोई भी जानकारी हमसे पहले मोबाइल पर गूगल करके हमें भेज देते हैं । कभी किसी से एक गिलास पानी भी देने को नहीं कहते उल्टा हमारी ही हेल्प में आज भी लगे रहते हैं । क्या क्या लिखूं समझ ही नहीं आ रहा पूरे साल का पूरा पूरा अख़बार भी पापा की पूरी कहानी नहीं लिख सकेगा क्योंकि मेरे पापा इतने पूरे हैं जितना होना किसी के लिए भी असंभव है love you पापा
आपका पुत्र
आशीष सक्सेना
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मेरे दादा जी का स्वर्गवास होने के बाद मेरी दादी नर्मदा नदी के किनारे ग्राम गडरवास ज़िला रायसेन में अपने दोनों पुत्रों को लेकर रहतीं थीं। सन् 1926-27 में नर्मदा नदी की भयंकर बाढ़ में दादी का पूरा घर डूब गया मेरी दादी ने अपने अपने घर के आंगन में एक झाड़ के ऊपर झूले में मेरे पिता जी को डाला एवं मेरे ताऊजी को गोद में लेकर रात गुजारी । इसके बाद मेरी दादी ने बहुत ही संघर्षों में रहकर दोनों बच्चों को शिक्षित किया मेरे ताऊजी की नौकरी लगने के बाद दादी जबलपुर आ गई तब तक मेरे पिताजी मैट्रिक पास हो चुके थे मेरी दादी मिलौनीगंज में एक छोटे से मकान में रहने लगीं । मेरे पिताजी ने खमरिया फैक्ट्री में नौकरी करना शुरू कर दिया, मेरे पिताजी उस समय मिलौनीगंज से 12 किलोमीटर दूर पैदल ही फैक्ट्री जाते आते थे, कुछ महीनों के बाद पिताजी ने फैक्ट्री की नौकरी छोड़कर पटवारी की नौकरी ज्वाइन कर ली।
पिताजी की ईमानदारी कर्तव्यनिष्ठा से उनके अधिकारी बहुत खुश रहते थे। सन् 1965 में पिताजी का ट्रान्सफर बालाघाट हो गया ।
पिताजी ने हम चार भाइयों की शिक्षा को महत्व दिया एवं वे हम चारों भाइयों एवं मां को जबलपुर में छोड़कर नौकरी करने बालाघाट चले गए ।
पिताजी ने इतनी कम तनख्वाह मैं भी हमारी शिक्षा को महत्व दिया हम सब भाई एवं मां एक कमरे के मकान में रहते थे । पिताजी महीने में एक बार जबलपुर आते थे। पिताजी लगभग 20 साल तक नौकरी के कारण बाहर ही रहे ।
पिताजी की कड़ी मेहनत , संघर्ष, त्याग , ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा से हम चारों भाइयों को बहुत प्रेरणा मिली।
पिताजी ने हमें अनुशासन में रहने का पाठ पढ़ाया।।
पिताजी के त्याग एवं संघर्षों के कारण ही हम चारों भाई इंजीनियर, विंग कमांडर, एडवोकेट एवं डाक्टर बने।
पिताजी एवं मां के आशीर्वाद से हम सब बहुत सुखी हैं

अखिलेश श्रीवास्तव एडवोकेट
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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नमस्कार मैं डॉक्टर कांता पेशवानी हूँ।बात उस समय की है जब मेरी शादी को कुछ ही समय हुआ था और मैं अपने ससुराल में अजस्ट नहीं कर पा रही थी तब मैंने अपने पापा श्री जी.डी. खत्री से कहा कि मैं ससुराल में ख़ुश नहीं हूँ मेरे और मेरे सास ससुर के विचार आपस में नहीं मिलते में वह अपनी ज़िंदगी कैसे बिता पाऊँगी??
मेरे पिता ने मुझे समझाया कि बेटा हर रिश्ते को समय की ज़रूरत होती है।
“पिता के सबक़ तब समझ आए” जब मैंने उनकी बात मान कर रिश्तों को समय दिया और धीरे धीरे सब ठीक होता चला गया ।आज मैं एक सरकारी डॉक्टरहूँ और मुझे मेरे ससुराल का पूरा सपोर्ट है।
पिता जैसा कोई नहीं हो सकता जो अपने बच्चों को हमेशा अपने से ज़्यादा कामयाब और सुखी देखना चाहते हैं ।

डॉक्टर कांता पेशवानी
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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फादर्स डे स्पेशल
मां को त्याग और ममता की मिसाल दी जाती है जिनकी व्याख्या करने लगूं तो शायद पन्ने भी कम पड़ जाए परंतु आज पापा के लिए कुछ लिखना चाहूंगी.....पापा जिन्हें मैं अपनी जिंदगी की एक ताकतवर पिलर समझती हूं, उनकी कई हर एक बात मुझे हिम्मत देती है सोचने और समझने की शक्ति प्रदान करती है, उनकी एक बात मुझे हमेशा याद आती है वे कहते हैं बेटा.....किसी भी व्यक्ति को समझना हो तो उसके आचरण को सर्वप्रथम अस्थान दो, एक सच्चा और अच्छा आचरण किसी दिखावे का मोहताज नहीं होता, वह स्वयं ही लोगों को दिखता है और उसके आचरण के आधार पर हम उस शख्स का मूल्यांकन भी कर सकते हैं| और उनकी दूसरी बात जो हमेशा मुझसे कहते बेटा.......संबंध चाहे कोई भी हो मां- बेटे, भाई - बहन या पति - पत्नी का इनमें संवाद हमेशा होनी चाहिए क्योंकि बिना संवाद के कोई भी संबंध पूरा नहीं हो सकता है, क्योंकि जहां संवादहीनता है वहां गलतफहमिया ज्यादा है| पापा की कहीं कुछ बातें मुझे हर वक्त हिम्मत देती है और इन्हीं बातों और अच्छे विचारों को मैंने अपनी जिंदगी में उतारा| आज विवाह को मेरे 18 साल होने को है परंतु पापा की कही बातें मुझे आज भी ताजगी से भर देती है, उन्हीं  के आशीर्वाद से मैं एक सफल गृहणी ,सफल मां और एक सुदृढ़ जीवन साथी हूं| बहुत-बहुत आभार पापा आपको, आप अपना आशीर्वाद हमेशा मुझ पर बनाए रखिएगा| (धन्यवाद)

संगीता झा
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मेरे पापा पापा जो 84 years के हो गए हैं ।   हमारी खुशी हमारी सोच पर डिपेंड होना चाहिए  यह उनका तत्व था और इस तरह जब उन्होंने अपनी जिंदगी की किताब मेरे सामने खोल कर रखे तो उसके बंद पेज भी जानने की जिज्ञासा मुझे होने लगी। पापा ने कहा बेटा मेरे भूतकाल में हर कठिन संघर्ष भूत की तरह मेरे पीछे ही पड़ गए थे लेकिन past  में रहकर future  नहीं बना सकते इसलिए सूरज की तरफ मुंह करके चलता रहा और जिंदगी के अनुभव से खुद सिखता रहा।    आज तक पापा  के जिंदगी में बहुत से लोग जुड़ते रहे और बहुत से छूटते हैं लेकिन हिम्मत तो गजब की है ।उन्होंने बता दिया कि रिश्ता चाहे कोई भी हो उसे  धीरज   से निभाना चाहिए ।विश्वास ही सबसे बड़ी डोर है रिश्ते की। फुटबॉल में भारत  मैच जीतकर आने वाले अपने टूर्नामेंट के वे  कप्तान थे। राजस्थान में बचपन बीता जब सुभाष चंद्र बोस पार्टी की लहर थी। स्कूल में भी उनके पैटर्न के पढ़ाई आई थी। पापा भी स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे जब  पापा हाफ पेंट पहनते थे।

फिर 15 वर्ष की आयु से अभी तक उनका पहनावा एक ही है धोती। वह एक अच्छे तैराक भी थे, पढ़ने की इच्छा रहते  हुए भी स्थिति के कारण वह पढ़ नहीं सके और अपने मामा जी का व्यवसाय 2 साल तक चलाते रहें ।17 वर्ष की आयु में उनकी शादी  हो गई। नौकरी के लिए यहां से कोलकाता गए परिवार के पहचान से उनको नौकरी तो मिल गई लेकिन कोई काम ही नहीं दिया तो उन्होंने वहां से फिर इस्तीफा दे दिया।  फिर वहां से वह बंगाल गए और बंगाल से फिर कोलकाता। शुरू में नौकरी भी की और फिर बाद में थोड़े पैसे जमा होने के बाद  बाजार हाट  किया। सामान घोड़ा गाड़ी में रखकर पैदल चलते  थे। रोज  10 किलोमीटर चलने से उनकी तबीयत खराब हो गई तो उन्होंने वहां से ढाका जाने का निश्चय किया ।उस समय वहां चेकिंग होती थी और चेकिंग में जितने भी पैसे मिलते थे वह सब छीन लिया करते थे। इस तरह लोग अपने स्थान पर पहुंचने में असमर्थ हो जाते थे।  पापा ने चालाकी से सारे नोट जूते ,मौजों में छुपाकर कोलकाता आ गए।

वहां पर उन्होंने पाकिस्तानी नोट बदल  कर भारतीय नोट लेकर  हैदराबाद में नौकरी करने  आ गए।इसी बीच में 5 बच्चों के पिता बन गए उन्होंने कहा कि उन्होंने उनके लाइफ से बहुत कुछ सीखा लेकिन वह आपने तत्व पर डटे रहे आज भी मरना है तो जीना सीखो चोरी ,धोखा और झूठ मत बोलो यह उनका तत्व था।उनका अनुभव ही उनका शिक्षण बना। संघर्ष करते रहे करते रहे फिर 1975 में उनके यहां एक बेटी ने जन्म लिया उसका नाम उन्होंने ज्योति रखा और जब उन्होंने उसकी कुंडली बताइ तो पंडित ने कहा यह बच्ची आपके घर में उजाला बनकर आई है और अब आप पूरी तरह से set हो जाएंगे। जब  से हमारा व्यापार बढ़ने लगा और आज भी हम  तोषनीवाल मार्बल वाले  के नाम से फेमस है।   पिताजी का यही कहना है कि चाहे सुख हो या दुख हो ,हमेशा अपने तत्व पर कायम रहेंगे तो कामयाबी हमें जरूर मिलेंगी।
 

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Capture

मेरा नाम माही जैन है मे 13 साल की हूं। मे आप सभी  को अपने पिता से मिली सीख  और उस सीख से मिली सक्सेस के बारे मे बताना चाहती हूँ। यह किस्सा तब का है जब मे बहुत छोटी थी, मेरे स्कूल से  कंप्लेन आती थी, कि मैं बिल्कुल डिसिप्लिन में नहीं रहती हूं। तो मेरे पापा जी ने मुझसे कहा की डिसिप्लिन में रहो,मैंने अपने पापा से कहा कि मेरी सारी फ्रेंड  क्लास के टाइम पर क्लास में बैठकर भी खेलती हैं। बहुत ही ज्यादा उधम करती हैं।  वह डिसिप्लिन में नहीं रहती, तो मैं क्यों रहूं??मेरे पापा ने कहा ,अगर तुम्हें अपने जीवन में सक्सेस पानी है ,तो किसी की कॉपी मत करो तुम्हारी क्लास में तुम्हारी फ्रेंड जो भी करते हैं ,तुम उनसे कुछ अलग करो। क्या हुआ अगर वह डिसिप्लिन फॉलो नहीं करती हैं।पर तुम तो करो।

पापा के इतना सब कहने के बावजूद मैं अपने ही बात पर कायम थी, तो मेरे पापा ने बोला तुम 1 साल बस डिसिप्लिन में रह कर देखो। मैंने कहा कि अगर मैं 1 साल डिसिप्लिन में रहूंगी तो आप मुझे डॉल सेट लाकर  दोगे पापा बहुत खुश हो गए क्योंकि, कहीं ना कहीं से ,मैं उनकी बात मानने वाली थी और पापा ने हां कह दिया।मैंने अपने पापा की बात मान ली और मैंने पूरे 1 साल डिसिप्लिन को प्रॉपर फॉलो किया, और मैं डिसिप्लिन फॉलो करने से, मैं अपनी क्लास की कैप्टन बन गई, जो मैं बहुत टाइम से बनना चाहती मेरे पापा ने मुझे एक टाइम टेबल बना कर दिया उस टाइम टेबल के अकॉर्डिंग मैंने पढ़ाई की ,और मैं क्लास में फर्स्ट भी आ गई ।मेरी सारी स्कूल की टीचर मुझे जानने लगी ,उसके बाद से मैं डिसिप्लिन को प्रॉपर फॉलो करती रही मेरे पास पापा की  तारीफ करने के लिए शब्द भी नहीं है पर थैंक यू सो मच पापा।अगर आप मुझे डिसिप्लिन फॉलो करने के लिए नहीं कहते ,तो आज मैं अपनी पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाती थैंक यू सोओओओओओओ मच पापा ji

माही जैन
अमरवाडा, मध्य प्रदेश

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"पिता मुझमें

मामाजी अक़्सर कहते हैं -
अरुण की डीलडौल
बिल्कुल जीजाजी जैसी है

जब कभी भी
किसी ख़ास मुद्दे पर
अपनी बात रखता हूँ मैं
तो मँझले चाचा बोल उठते हैं -
बड़े भैया होते तो वे भी यही कहते
अरुण मैं बड़े भैया की छाप है

अभी
जब महामारी के समय
दाढ़ी रख ली मैंने
तो पत्नी ने कहा था-
दादा झांकने लगे हैं तुम्हारे चेहरे से

जब जब
घर वालों, रिश्तेदारों और मुहल्ले वालों को
दिखते हैं मुझमें पिता
तो एहसास होता है मुझे -
मेरी आँखों से देख रहे हैं पिता
मेरे कानों से सुन रहे हैं पिता
मेरे मस्तिष्क से सोच रहे हैं पिता
मेरे हृदय से साँस ले रहे हैं पिता

ये सोच सोच कर आल्हादित हूँ मैं।

अरुण यादव
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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"पिता  ने दिया सच बोलने का ईनाम

 मां  यहाँ टूटी हुई लैट्रिन सीट क्यों लगी हुई है नाना इसको बदलवा क्यों नहीं देते  आश्चर्य से मेरे बेटे ने टूटी हुई लैट्रिन सीट देख कर कहा। मैंने मुस्कुराते हुए बेटे को कहा  बेटा यह एक टूटी हुई लैट्रिन शीट नहीं है यह है एक शिक्षा जो तुम्हारे नाना जी ने मुझे तब दी थी जब मैं तुम्हारे इतनी बड़ी थी। सुनो एक बार की बात है हम सब सहेलियां  घर के नीचे वाले हॉल में छुपा छुपी का खेल खेल रहे थे उसी हॉल में यह लैट्रिन सीट फिट होने के लिए रखी हुई थी।  

खेलते-खेलते लापरवाही से ना जाने  किसके टकरा जाने से यह सीट गिर पड़ी और इसके टुकड़े टुकड़े हो गए। जैसे ही बच्चों ने देखा  सब भाग गए पर पता नहीं क्यों मैं भागी नहीं वहीं खड़ी रही और देखती रही उस सीट के टुकड़ों को। थोड़ा घबरा गई फिर हॉल से बाहर निकली तो देखा सामने चबूतरे पर पिताजी बैठे हुए थे । मैं उनके सामने जाकर खड़ी हो गई सिर झुका कर रोनी आवाज में बोली  पिताजी लैट्रिन सीट टूट गई है पता नहीं किस से धक्का लगा पर उसके कई टुकड़े हो गए हैं अब वह कैसे फिट होगी पिताजी।
 पिताजी ने पूछा
 और कौन कौन था
 मैंने नाम गिना दिए कि मेरी इतनी सारी सहेलियां थी। तो वह सब कहां गए
 मैंने कहा सब भाग गए पिताजी ने
कहा तुम क्यों नहीं भागी  मैंने कहा मुझे अच्छा नहीं लगा कि मैं भी अपनी जिम्मेदारी से भाग जाऊं और मैंने आपके सामने सच बात रख दी। पिताजी ने मुझे हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींच लिया और प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा बेटा उस सीट के टूटने से भी बहुत बड़ी चीज मुझे प्राप्त हुई है वह तुम्हारी सच्चाई और उस सच्चाई को स्वीकार करने की ताकत।

तुमने जो सच बोलने का हौसला दिखाया यह जीवन भर तुम्हारे लिए और पूरे परिवार के लिए एक उदाहरण बने इसलिए मैं उस सीट को टूटी हुई स्थिति में ही फिट करवा लूंगा ताकि सबको याद रहे कि हमेशा सच बोलना चाहिए मेरे चेहरे पर अब आंसुओं की जगह मुस्कान आ गई थी। मेरा बेटा दौड़कर नाना जी के पास पहुंचा और कहा नानाजी आपने मां के सच को जीवन भर के लिए संजो दिया। मैं भी हमेशा सच ही बोलूंगा।

मेरे पिताजी श्री राजकुमार जी जैन को समर्पित"

अर्चना अनिल जैन अन्वेषा
मण्डला मध्यप्रदेश

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"मैं तापेश्वर प्रसाद यादव (सेवानिवृत्त सब इंस्पेक्टर म.प्र.पु. ) उम्र 80 वर्ष , संजीवनी नगर गढ़ा निवासी , दैनिक भास्कर के ""फादर्स डे स्पेशल"" के माध्यम से अपने वैकुंठ वासी पिता श्री गया प्रसाद यादव द्वारा दी गई उस सीख को, जो बचपन में नीम के समान कड़वी महसूस होती थी , परंतु समय चक्र के साथ अमृत की पहचान कराने वाली एक घटना साझा करना चाहता हूं। आशा है पाठकों को भी इससे वही सीख मिले।

बात मेरे विद्यार्थी जीवन की है , जब छुट्टी के समय मेरे पिता जी मुझसे किसानी का सारा काम करवाते , हल चलवाना , फावड़ा चलवाना , निदाई बनाने से लेकर सब कुछ। गर्मी , सर्दी ,बरसात कितनी भी हो मैं काम से हाथ नही छुड़ा पाता था । ना चाहते हुए भी काम करना पड़ता था , और वो भी इतना की सांस लेने तक की फुरसत नहीं थी । कभी-कभी मां को छालों से भरे हाथ दिखाकर शिकायत करता था की मेरे सारे दोस्त छुट्टियों में फ्री घूमते हैं और उनके घर वाले उनसे काम भी नही करवाते । मेरी मां के पिता जी को यह बोलने पर की ""पढ़ने वाले लड़कों से इतना काम नहीं करते"", पिता जी का सिर्फ एक ही जवाब होता था-""अभी जहर जैसा लगने वाला काम करते - करते ही आगे हर काम में निपुणता आ जायेगी और भविष्य सुधर जायेगा ।""

पिता जी की यह वाणी आशीर्वाद जैसी साबित हुई। 3 जून 1960 से म. प्र. पु. में 42 साल तक अपनी सेवाएं देने के बाद मै सब इंस्पेक्टर के पद से सेवा निवृत हुआ । संजीवनी नगर में खुद का मकान बनवाया जहां आज मैं सपरिवार शान एवं सुख से जीवन यापन कर रहा हूं । मेरे लिए यह अत्यंत हर्ष का विषय है की मेरा पूरा परिवार शिक्षा लाइन से जुड़ा है, जिसका पूरा श्रेय मेरे पिता जी को जाता है।
धन्यवाद"

तापेश्वर प्रसाद यादव
जबलपुर, मध्य प्रदेश
                                       

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पितृ दिवस विशेष के लिए लघु कथा "थैंक्स पापा"
 
आज का दिन मेरी जिंदगी का बड़ा अहम दिन है । बहुत कुछ इस दिन से जुड़ा हुआ हर साल मुझे याद आता है।

आज मैं बैंक में उच्च अधिकारी हूं ।
बात तब की है । जब मैं  21 साल  का था । उसी समय मैंने बैंक में प्रतियोगिता परीक्षा दी थी । मेरा सिलेक्शन लिखित परीक्षा में होने का लेटर मुझे मिला । मेरा इंटरव्यू 19 जून को भोपाल में होना था ।  इसके पहले मैंने कभी अकेले यात्रा नहीं की थी इसलिए मेरे साथ  पापा जाने वाले थे कि अचानक 16 जून के करीब उन्हें बुखार आना शुरू हुआ । 18 जून को उन्हें बहुत तेज बुखार था । इसीलिए मेरा अकेला जाना निश्चित हुआ।  

मेरी भोपाल जाने की ट्रेन दोपहर के समय थी । चिलचिलाती धूप में मैं घर से निकला और आटो से स्टेशन पहुंचा। अचानक देखा कि पापा साईकिल पर चले आ रहे हैं । उन्होंने आते ही से थैली से वह फाइल निकाल कर दी जिसमें मेरे सारे टेस्टिमोनियल्स थे।  मैंने पूछा आप इतनी धूप में क्यों आए ? फाइल देते हुए वो बोले "" बेटा तू इसके बिना इंटरव्यू कैसे देता और कोई था नहीं जिसके हाथ इतनी महत्वपूर्ण फाइल भेज सकता । इसलिए मुझे आना पड़ा। "" तभी मेरी ट्रेन आ गई । मैंने पापा के चरण स्पर्श किए और  ट्रेन में जाकर बैठ गया। दूसरे दिन मेरा इंटरव्यू हुआ और उसमें मैं सेलेक्ट हो गया। सोचता हूं अगर पापा ने मेरी टेस्टिमोनियलस् की फाइल लाकर ना दी होती तो मैं इंटरव्यू में सिलेक्ट कैसे होता ?  इतने तेज बुखार में कोई भी नहीं आता। वह तो पापा ही थे जो अपनी परवाह किए बिना, तेज बुखार में, नौतपा में, तपती धूप में दौड़े चले आए । आपकी वजह से  ही मैं आज यहां हूं पापा !
थैंक्स भी कम है  !
पापा आखिर पापा होते हैं !!

मोहन गुप्ता,
कचनार सिटी, विजय नगर, जबलपुर (म. प्र.)

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मेरे घर में सबसे ज्यादा पसंदीदा व्यक्ति मेरे पापा है | वे हमेशा मेरे दोस्त की तरह रहे हैं | मेरे पापा ने  हमेशा  मुझे सपोर्ट किया है। उन्होंने हर काम खुद करना सिखया है। मेरी हर ज़िद्द पुरी की है, जब मैं छोटी थी तब से मेरे शिक्षक वही रहे हैं। उन्होने ने मुझे सिखाया की आज के जीवन में शिक्षा का बहुत महत्वपूर्ण है। इंसान सब कुछ प्रताप कर सकता है शिक्षा के बाल पर क्यूंकि इंसान की तरक्की की नीव शिक्षा ही है। मेरी शिक्षा का मार्गदर्शन उन्होंने ही किया है। मेरे पापा का मानना है की हर काम में ईमानदारी बहुत जरूरी हैं, इसी तरह मेरे पापा मुझे हर दिन कुछ नया सिखाते है। मेरे पापा मुझे बहुत चाहते है इसलिए मै उनकी परी हूँ।

शुभांशी खरे
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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"बात उस समय की है जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी । हमारा स्कूल शहर से थोड़ा दूर था और उस जगह केवल स्कूल और प्रशासनिक अधिकारियों के आवास ही थे, जनसंख्या भी अधिक नहीं थी...इस वजह से लोगों का आना जाना भी कम ही होता था । जिसकी वजह से स्कूल के करीब चौराहे पर आस पास रहने वाले लोग तमाम तरह के टोटके किया करते थे, एक बार मेरी एक दोस्त ने निर्भय होकर एक टोटके पर पैर लगा दिया और संयोगन  तीन चार दिन बाद ही उसकी अचानक मृत्यु हो गई । एक तो बालपन ऊपर से स्कूल के बच्चों द्वारा सुनाई गई नाना प्रकार के टोटके और भूत प्रेत की कहानियाँ, सबने मिलकर मन मे एक अनजाना डर पैदा कर दिया ।
स्कूल के बाहर एक बड़ा सा इमली का पेड़ और स्कूल के अंदर एक विशालकाय बरगद का पेड़ था ।  बच्चे अक्सर इन्हीं से जुड़ी भूत प्रेत की कहानियाँ कहते रहते थे । स्कूल का कैम्पस भी बहुत बड़ा था । अब मुझे स्कूल जाने में भय लगने लगा । जब यह बात पिताजी को पता चली तो पिता जी ने मुझे पहले हनुमान चालीसा सुनाई । जिसमें लिखा था “भूत-पिशाच निकट न आवे, महावीर जब नाम सुनावे” इस पंक्ति के आते ही वह रुक गए और उन्होंने मुझसे कहा कि इस चालीसा का स्मरण करने के बाद भूत प्रेत पास नहीं आते है.... जब भी मन में इस प्रकार का भय उत्पन्न हो, आँख बंद करके यह चालीसा दोहरा देना, देखना भय एकदम से ग़ायब हो जाएगा ।
और फिर वैसा ही हुआ जब भी मुझे भय लगता मैं यह चालीसा पूरे विश्वास के साथ गुनगुनाती और भय समाप्त हो जाता ।
धीरे धीरे जब बड़ी हुई और अकेले रात को ऑफ़िस आना जाना पड़ता, अकेले सफ़र करना पड़ता तो मुझमें फिर भय सर उठाने लगता। यह देखकर पिताजी ने कहा, कि बचपन में वह भूत प्रेत वाला डर याद है !! जब मैंने कहा ""हाँ "" तो उन्होंने कहा, बेटा भूत प्रेत सिर्फ़ मन का वहम है और तुम्हारे इसी वहम को दूर करने के लिए मैंने तुम्हें ""हनुमान चालीसा"" दोहराने को कहा था क्योंकि उसे पढ़ने मात्र से तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आता और मन में एक विश्वास बना रहता कि तुम्हें कुछ नहीं होगा, हनुमान जी तुम्हारे साथ हैं, जबकि हनुमानजी (ईश्वर) भूत प्रेत नहीं भगाते थे, वह तुममें आत्मविश्वास बनाये रहते थे । बस वही विश्वास बनाये रहना ज़रूरी है । अपने आत्मविश्वास को मज़बूत रखो फिर जीवन में कभी भय नहीं रहेगा ।
अंत में उनकी कही पंक्तियाँ “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत” आज भी याद है । जब भी भयग्रस्त होती हूँ उनकी सीख याद आ जाती है ।

हर्षिता पंचारिया
नागपुर महाराष्ट्र

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"बात उन दिनों की है जब मैं और मेरी जुड़वा बहन M.S.C फाइनल ईयर का पेपर दे रहे थे पहला पेपर थोड़ा सा बिगड़ गया था , पापा जी को बताया तो पापा जी ने कहा और मेहनत करो जब रात में पढ़ाई करते और नींद आने लगती तो पापा जी कहते मुह धुलकर आजाओ और चाय पिलो नींद चली जायेगी,उस समय लाइट भी चली जाया करती थी, तो पापाजी इमरजेंसी लाइट तुरंत कर देते थे और कहते बेटा पढ़ो दूसरा पेपर अच्छा जाना चाहिये और सब पेपर अच्छे चले गए और जब रिजल्ट आया तो सिर्फ हम दोनों बहनें ही पास हुए थे तब पापा जी बोले देखो मेहनत करने से मन लगाकर पड़ने से अच्छा ही परिणाम मिला फिर सरकारी सर्विस निकली उसमे पापाजी ने ही फॉर्म डलवाया और कहा कि जाओ फॉर्म जमा करके आओ और बिना B.E.D के (कॉलेज में B.S.C में टॉप किया था) सरकारी शिक्षक की जॉब लग गई हम दोनों बहनों की,फिर मेरी जुड़वा  बहन की शादी हो गई और मेरी नही हुई तो पापा जी को पता था कि उसे बहुत दुख होता है , दोनो साथ साथ पड़ती,सोती,खाती,खेलती और बतियाती थी, तो पापाजी मेरे साथ हर जगह जाते।।

मुझे स्कूल छोड़ने,लेने जाते मेरे साथ ही खाना खाते फिर पापा जी की तबियत बिगड़ गई और पापा जी नही रहे मैं फिर बहुत दुखी रहने लगी, पापा जी को बहुत याद करती फिर 1 साल के अंदर मेरी शादी हो गई पर कहते है ना कि किस्मत अच्छी नही रहती तो कोई सुख नही मिलता साल भर के अंदर भी पति इतना लड़ते झगड़ते की आराम से रह ही नही पाती, 1 बेटा हो गया उसकी परवरिश और स्कूल, काम करती और यदि पापाजी की बात करती तो मेरे पति को गुस्सा आता शादी के 6 वर्ष बाद जब दूसरा बेटा होने वाला था मुझे मेरे बेटे को घर से निकाल दिया,उस समय मेरे भाई और माँ ने सहारा दिया,और मेरा दूसरा बेटा हुआ लेकिन आठवे महीने में हुआ और 15 दिन I.C.U में रहा तब पापा जी की याद आती की बेटा मुसीबत से मत घबराना भगवान  सहायता करेंगे और आज 7 साल से मैं अपने दोनों बच्चों के साथ रहती हूँ और सरकारी सर्विस के कारण ही उनकी परवरिश बहुत अच्छे तरीके से कर पा रही हूँ पापा जी यदि उस समय रात-रात हमारे साथ नही जगे होते तो आज हम क्या करते ?

कैसे बिना पति के अपने बच्चो को पालती, गाड़ी चलाना भी पापा जी ने सिखाया था आज गाड़ी से मैं अपने बच्चो के स्कूल अपने स्कूल आदि काम कर पाती हूँ
    THANK YOU PAPA JI

    I MISS YOU SO MUCH

आज मेरे भैया मेरे पापा जी की तरह ही मेरी और मेरे बच्चों की परवाह करते है आज मैं जो भी हूँ या कर पा रही हूँ वो सिर्फ " मेरे पापा जी की ही मेहनत का फल है"
पापा की बेटी

भारती चौरसिया

मंडला, मप्र

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पिता असीम शील हैं। उनके जितना धैर्य शायद ही ब्रह्माण्ड के किसी भी बुद्धिजीवी में हो। किसी भी परिस्तिथि में मैंने शायद ही मेरे पापा को संयम खोते देखा है। चाहे कोई भी परेशानी हो, कितनी ही बड़ी चुनौती हो, मैंने उनसे हमेशा यही सीखा है की अपना संयम कभी नहीं खोना। अपने संयम के बलबूते ही हम आधी जंग तो यूँ ही जीत जाते हैं। हमारी परीक्षाओं में कभी कम नंबर आने पर भी पापा ने नहीं डाँटा, हमेशा यही सीख दी है के अपनी गलतियों से सीखो और हमेशा बेस्ट करने के लिए मेहनत करो। हाल ही में हमारी दादी का स्वास्थ अचानक बिगड़ गया था।

मैं काम के सिलसिले में शहर से बाहर रहती हूँ। घर से ख़बर मिली तो काफी चिंता हो गयी। दादा- दादी में तो हर बच्चे की जान बसती है, पर हमे पूरा विश्वास था कि पापा सब संभाल लेंगे, उनके वहाँ पहुँचते ही हमारी चिंता काफी हद तक कम हो गयी। उन्होंने वाक़ई अपने संयम के साथ इस परिस्तिथि में भी सबको बखूबी संभाला। मेरे पिता जितने सरल, निस्वार्थ और हर परिस्तिथि में शांत रहने वाले किसी शख़्स से मैं आज तक नहीं मिली और उनकी यह खूबियां हक़ीक़त में दुर्लभ हैं।

वे न सिर्फ़ अपनी गलतियों को कुबूल करते हैं, बल्कि हमेशा कोशिश करते हैं के हम उनकी गलतियों से भी सीख लें। अपने बच्चों को अगर कोई सौरी बोल सकता है तो वो हमारे पापा हैं। हम अगर हमारे पिता के १० फीसदी भी गुण सीख पाए तो हमारा जीवन सफ़ल मानेंगे। आज कोई हमसे मिले और कहे की तुम बिल्कुल अपने पापा पर गयी हो, तो चेहरे पर मुस्कान आ जाती है, मानो दुनिया का सबसे बड़ा काॅम्प्लिमेंट मिल गया हो। हम तीनों भाई बहन आपसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं पापा और हमेशा करते रहेंगे।

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मैं चार महीने की थी तब मेरी तबीयत बहुत खराब हुई और कई जान जाँच के बाद यह जानकारी प्राप्त हुई कि मैं एक बिमारी से गुजर रही हूँ, जिसका नाम थैलीशिमीया है, यह एक ऐसी बिमारी, एक शरीर में जब स्वयं यहा नही बन पाता और उसे बाहर सं हर महिने खून देना पढता है। बहुत खर्चिली है। यह बिमारी
मेरे पिताजी का मेडिकल स्टोर हैं, और इसलिए उन्हें इस बिमारी की जानकारी पहले हि थी और यही वो कारण था। कि उन्हें यह बिमारी से बहुत खौफ था । और कहते हैं न, वही हुआ। जो हमारी सबसे बड़ी कमजोरी या डर होता, उसे सामने आते वक्त नहीं लगता
जब मेरे माता-पिता को यह बात का पता चला तो वो जैसे टूट से गए। मेरे पापा नॉन व्हेज के शौकिन थे, पर यह बात जानकर उसे आज तक कभी नही हुआ । आज मैं १६ साल कि हूँ, और पिछले कई सालोंसेहर 20 दिन में मुझे खून लगता है। और इन १६ सालों में उन्होंने कभी मासाहारी का सेवन नहीं किया कभी सिनेमा घर को शायद आँख उठाकर देखाक भी नहीं। मैं सोचती कोई इंसान अपनी सारी
खुखुशियाँ एक तरफ रख और जिंदगी दूसरी तरफ कैसे कर सकता है। ऐसा सिर्फ पापा हिं कर सकते हैं पापा प्यार तो बहुत करते हैं; लेकिन जताते नहीं वह तकलिफें तो बहुत सहन करते हैं; लेकिन बतलाते नहीं
I am blessed to have a father like you. But I would always like to see you Happy from entire soul. Arikupu Wish you a very happy father"s day !!!

यवतमाल, महाराष्ट्र

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"स्त्री के जीवन में सबसे पहले पुरुष पिता ही होते है। पिता का महत्व बच्चों के जीवन में उतना ही अमूल्य है जितना कि माता का । मां हमें खाना खाना ,बोलना ,चलना व अच्छे संस्कार सिखाती है ,और पिता हमें कृतज्ञता, कर्तव्य ,तत्परता यह गुण सिखाते हैं पिता का मेरे जीवन में उतना ही प्रभाव रहा जितना मां का ।मेरे पिता से मैंने अनुशासन ,निस्वार्थ प्रेम ,परोपकार, तत्परता ऐसे गुण सीखें ।मेरे पिता जड़ से जुड़े व्यक्ति है ,हर
काम को दृढ़ता से करने वाले ,हर जगह मे
 सहज ढल जाने वाले ऐसे व्यक्तिमत्व है ।और यही सब उनके पाठ मुझे आज एक अच्छा इंसान बना पाया, ऐसे उन्होंने कई अनुशासन के पाठ पढ़ाये है, पर आपको मैं किस्सा सुनाना चाहती हूं हम तीन भाई बहन है माता-पिता दोनों कार्यरत थे, तो घर में सुबह भागदौड़ वाली जिंदगी रहती थी। मां रसोई संभालती तो पिताजी हमें उठाते ,मंजन करवाते ,नहाने कहते पर जो कि बाकी बच्चों की तरह हमें भी सुबह जल्दी उठना, समय पर नहाना पसंद नहीं था तो लगता था पिताजी कितना परेशान करते हैं । यही अनुशासन आज मुझे काम आ रहा है और मैं भी अपने बच्चों पर लगा पा रही हूं। ऐसा ही एक छोटा किस्सा बचपन मैं दिए अनुशासन का आज  मुझे याद आ रहा है।

पिता हमेशा फिजूल खर्ची और कोई भी आदत जरूरत से ज्यादा करना इसके बिलकुल खिलाफ थे , गर्मी के दिन थे तब पिता ने कह रखा था आईसफ्रूट अगर खानी है तो हफ्ते में एक बार ही खाने की इजाजत  मिलेगी पर मैंने उनकी यह बात ना मानते हुए मां से पैसे लेकर एक ही दिन में ज्यादा खा लिए और बस वही हुआ मैं बीमार पड़ गई तब पिताजी ने कहा मैं तुमको उतना ही प्यार करता हूं जितना कि मां करती है। पर हर एक चीज की एक सीमा होती है नहीं तो वह ज्यादा करने से नुकसान पहुंचाती है।

उनका यह अनुशासन हर बातों में लागू था ,चाहे आप नए कपड़े खरीदते हो,या बाहर का खाना खाते हो ,या बहुत टेलीविजन ,फिल्म देखते हो तो वह नुकसान जरूर पहुंचाती है। और यही अनुशासन का पाठ आज मुझे अपने बच्चों को सिखाने  में और शिक्षिका होने के नाते विद्यार्थियों को समझाने और उनको एक जिम्मेदार इंसान बनाने में काम आ रहा है और इसीलिए मुझे मेरे मां पिता पर बहुत फक्र है।"

नागपुर, महाराष्ट्र

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"डायमंड का मैडल
मैं उस महान क्षण को कभी नहीं भुला पाती, जब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के एक विशाल गरिमामय कार्यक्रम में मुझे ससम्मान आमंत्रित किया गया था| उस स्टेज में मध्य प्रदेश की महामहिम राज्यपाल आनंदीबेन पटेल जी विराजमान थीं| पूरा हाल गणमान्य नागरिकों, अभिभावकों, जनप्रतिनिधियों एवं सहपाठियों से भरा हुआ था | मेरे मम्मी-पापा भी गाँव से यहाँ आए हुए थे |

महामहिम के स्वागत की औपचारिकताएं चल रही थीं  | मेरी खुशी का अतिरेक इतना था कि मुझे अपने छोटे से गाँव “पाँजरा” मे बिताये हुए बचपन और वहाँ की सुखद,हरे-भरे खेतों वाली स्वच्छंद यादें आने लगीं हमारी संस्कृति मे नारी का,विशेषकर कन्याओं को विशेष सम्मान दिया गया है मेरे पिता पुरोहित हैं,जिससे पूरे घर का वातावरण बहुत सात्विक एवं आध्यात्मिक हुआ करता है वे बड़े वात्सल्य से मुझे सरस्वती देवी का अवतार कहके सदैव प्रोत्साहित किया करते थे उनकी वे शिक्षाएँ मेरे जहन मे आज भी विद्यमान हैं|        

मेरी तंद्रा तब टूटी जब रसायन शास्त्र में पूरी यूनिवर्सिटी में टॉप करने के लिए गोल्ड मेडल दिए जाने हेतु स्टेज पर बुलाया जा रहा था |  परितोषक के बाद पिता ने डबडबाई आंखो से सिर्फ इतना कहा कि मेरी शिक्षा को साकार करने वाली मेरी बेटी पर आज मुझे बहुत गर्व है |  पिता के इन आल्हादकारी वचनों से मुझे एसे लगा जैसे मुझे डायमंड का मेडल मिल गया हो I

जबलपुर, मध्य प्रदेश
 

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"मैं उस महान क्षण को कभी नहीं भुला पाती, जब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के एक विशाल गरिमामय कार्यक्रम में मुझे ससम्मान आमंत्रित किया गया था। उस स्टेज में मध्य प्रदेश की महामहिम राज्यपाल आनंदीबेन पटेल जी विराजमान थीं| पूरा हाल गणमान्य नागरिकों, अभिभावकों, जनप्रतिनिधियों एवं सहपाठियों से भरा हुआ था। मेरे मम्मी-पापा भी गाँव से यहाँ आए हुए थे।

महामहिम के स्वागत की औपचारिकताएं चल रही थीं। मेरी खुशी का अतिरेक इतना था कि मुझे अपने छोटे से गाँव “पाँजरा” मे बिताये हुए बचपन और वहाँ की सुखद,हरे-भरे खेतों वाली स्वच्छंद यादें आने लगीं हमारी संस्कृति मे नारी का,विशेषकर कन्याओं को विशेष सम्मान दिया गया है मेरे पिता पुरोहित हैं,जिससे पूरे घर का वातावरण बहुत सात्विक एवं आध्यात्मिक हुआ करता है वे बड़े वात्सल्य से मुझे सरस्वती देवी का अवतार कहके सदैव प्रोत्साहित किया करते थे उनकी वे शिक्षाएँ मेरे जहन मे आज भी विद्यमान हैं।        

मेरी तंद्रा तब टूटी जब रसायन शास्त्र में पूरी यूनिवर्सिटी में टॉप करने के लिए गोल्ड मेडल दिए जाने हेतु स्टेज पर बुलाया जा रहा था। परितोषक के बाद पिता ने डबडबाई आंखो से सिर्फ इतना कहा कि मेरी शिक्षा को साकार करने वाली मेरी बेटी पर आज मुझे बहुत गर्व है |  पिता के इन आल्हादकारी वचनों से मुझे एसे लगा जैसे मुझे डायमंड का मेडल मिल गया हो I

जबलपुर मध्य प्रदेश

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"जिंदगी की कडी धूप में वो साया बनके हमारे साथ रहे. जीवन में कितनी ही कठिनाईयां आयीं पर वह किसी पर्वत की तरह अचल रहे। वो हैं मेरे पिताजी श्री. चंद्रकांत सप्रे और मां अर्चना सप्रे. उन्होंने हम दोनों बेटीयों को बहुत अच्छी शिक्षा दी. अपने पैरों  पर खडा होने के काबिल बनाया. सिर्फ हमें शादी कराके बिदा करते समय ही उन्हें हमारे लडकी होने का दुख हुआ होगा. वरना तो कभी उन्होंने ऐसा कोई फर्क नहीं किया। आज उनके रेशन कार्ड पर हमारा नाम नहीं है पर आजभी उनके घरसे हमें कभी कुछ ना कुछ खिलाये बगैर वह जाने नहीं देते. मां और पिताजी दोनों ही ने हमारा बचपन प्यार से भर दिया. हमें अच्छे संस्कार दिये, पढाई के साथ साथ खेलकूद में भी बढावा दिया।

 अनुशासन का तो पूछो मत. तब बचपन में कई बार  इस अनुशासन पर गुस्सा आया. मगर आज ये लगता है कि उन्होंने कितनी सहजता से प्यार से हमें जिंदगी के मूल्य सिखाये. हमें ना कभी डाटा ना कमी मारा. हमें वक्त की कदर करना सिखाया. हमारी इच्छाओं और जरूरतोंं में फर्क करना सिखाया. हमें पैसे की अहमियत सिखाई. हमें पैसे कमाना, संभालना, जरुरतों पर खर्च करना और पैसे की बचत करना सिखाया. हर एक चीज अपनी जगह ठिकाने पर रखने का अनुशासन कभी सजा लगता था. आज इसी आदत की वजह से हर चीज बराबर अपनी जगह पर मिल जाती है।

 वक्त भी बचता है और परेशानी भी नहीं होती. उम्र के साथ उन की आंखों की रोशनी जाती रही है मगर आज भी हर चीज अपनी जगह पर रखने की आदत की वजह से उन्हें परेशानी नहीं होती. आज भी अपना सारा काम खुद कर लेते हैं. अपने बर्ताव से उन्होंने हमें जीवन की शिक्षा दी. खुद पर भरोसा करना सिखाया. उनके हिसाब से भगवान हर अच्छे काम में हमारा साथ देते हैं. घन्टों पूजापाठ की जरुर नहीं है बस एक पल भी पूरी श्रद्धा से नमन किया तब भी काफी है. यही सोच जीवन में सफल बनने की कुंजी बनीं. उन्होंने हमें अच्छा इन्सान बनाया. आज जब हम अपने बच्चों को बडा कर रहें हैं तब यही सोच, यही संस्कार हमें राह दिखाते  हैं.
सच में मां और पिताजी को देखकर यही लगता है "जिंदगी धूप तुम घना साया. " भगवान करे कि ये साया सदा बरकरार रहे।

नागपुर ,महाराष्ट्र

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"मेरे पिता हम बच्चों को बहुत प्यार करते थे । जीवन के सबक बहुत खूबसूरती से सिखाया करते थे ।बचपन में जहाँ बहुत कड़क व्यवहार था उनका वहीं युवा होते हम बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करते थे। हर विषय पर खुलकर बात करते थे ।

मैं बचपन से ही विभिन्न सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती थी और जीत कर ही आती थी, खेलकूद में भी अग्रणी थी। शहर में बहुत नाम होता पर डैडी, कभी मेरे सामने तारीफ नहीं करते थे। ये बात मुझे बहुत अखरती थी। एक दिन मैंने मम्मी से कहा कि डैडी तो कभी अच्छा कहते ही नहीं तो मम्मी ने डैडी से बात की। तब उन्होंने कहा कि मैं उसकी सफलता से बहुत खुश होता हूँ पर कहता नहीं क्योंकि थोड़ी सी प्रशंसा से तो यह फूल कर कुप्पा हो जाती है। यदि कमियाँ न निकालूँ तो और बेहतर कैसे कर पायेगी।

अपने मुँह से अपने बच्चों की तारीफ करने से ज़्यादा अच्छा लगता है जब दूसरे लोग तारीफ करते हैं। तब मैं बहुत गर्व महसूस करता हूँ। उनकी बात सुन मन भीग गया था। माता - पिता अपने बच्चों की बेहतरी चाहते हैं और उसके लिए उन्हें थोड़ा कठोर भी होना पड़ता है। आज डैडी नहीं हैं पर और बेहतर करने की उनकी सीख हमेशा याद रहती है।

रीमा दीवान चड्ढा

नागपुर ,महाराष्ट्र

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"पिता की सीख
बात आज से लगभग 16 साल पहले की है। पिताजी बीमारी से पीड़ित, पलंग पर थे। छोटे भाई केमिकल प्रक्रिया द्वारा सोने का टंच निकालते थे। उसी समय सोने की टंच निकालने की मशीन की जानकारी लगी , जो काफी महंगी थी। हम भाइयों ने सोचा कि क्यों ना मशीन लगाकर अपने व्यवसाय को अच्छा बढ़ा लिया जाए।

पिताजी के कानों तक वह लाखों की मशीन खरीदने की भनक लग गई तो पिताजी ने हम लोगों को एक बार समझाया ""इतनी बड़ी रकम लोन पर लेकर मजदूरी करने से बेहतर है कि तुम लोग कोई व्यवसाय कर लो जिससे तुम्हारी रकम भी सुरक्षित रहेगी और आपेक्षित सफलता प्राप्त कर सकते हो। क्योंकि नए एडवांस टेक्नोलॉजी वाली मशीन आने से पुरानी की वैल्यू भी अधिक नहीं रह जाती।""
मगर हम लोग अपने आप को बड़ा बुद्धिमान समझ रहे थे और हमने सोचा की मशीन आने से हमारी आय कई गुना बढ़ जाएगी।

अतः पिताजी की बात को अनसुना कर, हम भाइयों ने एक अच्छा खासा लोन लेकर मशीन लगवा ली। चूंकि बाजार में यह मशीन नई थी अतःव्यापारियों का आपेक्षित विश्वास भी नहीं मिला जिससे हम भाइयों को लाखों रुपए का घाटा उठाना पड़ा। उसके लगभग साल भर बाद पिताजी हमारे बीच नहीं रहे किंतु उनके अनुभव ने हमें एहसास करा दिया कि पिता हमेशा अपने बच्चों को सही सलाह देते हैं।


राजेश सराफ
जबलपुर, मध्य प्रदेश

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"गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरुदेव महेश्वरा गुरुर साक्षात परम ब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः

आज मैं अपने स्वर्गीय पिता डॉक्टर हीरालाल और ठाकुर इनके विषय में कुछ ऐसे अनुभव बताना चाहती हूँ, जो आज भी मैं उन अनुभव को""अपने जीवन का सिद्धांत मान"" कर अपने जीवन को जी रही हूँ।मेरा मानना है ""गुरू ही पिता : पिता ही गुरू"" गुरु  जो अंधकार से प्रकाश की ओर एक रास्ता दिखाने वाला व्यक्ति ही है। वह मेरे पिता ही है जो मेरे गुरु बने तथा भविष्य में उनकी सारी सीख ,अनुभव, मेरे लिए एक शिक्षक तुल्य ज्ञान देने वाले हैं जो हमें बचपन से लेकर आज तक और भविष्य में भी जीवन भर हमने उसी मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा ली है। मैंने जी हां पिता मेरे जीवन में सबसे बड़े गुरु है ।मैं तो अब तक उनके सबक ,अनुभव,सीख कर चल रही हूँ और बाकी आगे के जीवन में भी जीऊँगी वह सब बताना चाहती हूँ ।

माता-पिता तो हर बच्चे के पहले गुरु होते हैं ।माता हमें जन्म देती, पालन -पोषण की जिम्मेदारी निभाती हैं, तो पिता घर से बाहर के व्यवहार से हमें अवगत कराने की जिम्मेदारी रखते हैं ।पिता मित्र बनकर समाज बाहरी लोगों से बातचीत ,अच्छाई- बुराई ,सुख-दुख भला-बुरा आदि में अंतर बताने की जिम्मेदारी पिता ही ने रखी है ।मुझे भी मेरे पिता ने यह सारी जिम्मेदारियांँ निभाना सिखाई। कम में खुश रहना, दूसरों को देखकर ऐसा ईर्ष्या नहीं करना ,बल्कि अपनी तरक्की का प्रयास करना अर्थात् अपनी छोटी रेखा को बड़ा करना पर दूसरों की बड़ी रेखा को छोटा करने की कभी भी कोशिश नहीं करना।

अपनी तकलीफ में मदद मांँगी तो उसे एहसान कर्ज समझ कर उसका दुगुना कर वह एहसान उतारना। बार-बार मदद नहीं मांँगना। सामने वाले की अच्छाई का गैर फायदा नहीं उठाना। अपनी इच्छा पूर्ति के लिए कर्ज कभी भी जीवन में नहीं लेना बल्कि अपने घर के जो स्थिति है उसमें जीने की कोशिश करना। घर में सूखी रोटी नमक से पेट भरना, पर दूसरों के सामने रसगुल्ले और मिठाई के लिए हाथ नहीं पसारना ।""दिन तो गरीबी में हमने भी देखे पर उस में खुश रहते थे।"" पिता कहते थे ।यह भी हमारे पिता ने ही सिखाया ।
 

बात बहुत पुरानी है हम चार भाई बहन थे ।सभी की पाठशाला की किताबें

नई खरीदना उस समय कठिन था, तो पिताजी रद्दीबाजार से आधी  कीमतों में किताबें खरीद कर ला कर हमें उसे सिलाई कर अच्छा- सा जिल्द चढ़ाकर नई -सी बना देते थे। एक दिन भाई के कुछ शाला में किसी मित्र ने कह दिया,"" अरे! इसके पिता तो प्रोफ़ेसर है ,और किताबें देखो नई भी नहीं खरीदता  है ।उस दिन की भाई के  बेईज्जती चार दोस्तों में हो गई ।ऐसा भाई को लगा और वह 4 दिन तक स्कूल नहीं गया। पिता की शाला के मुख्याध्यापक सेअचानक  पांचवे दिन बाजार में मिले ।दोनो का आमना-सामना हुआ तो उन्होंने बताया कि भाई अनुपस्थित है। पिता को आश्चर्य हुआ पिता ने गलती पर क्षमा मांँगी पर घर आने पर माता जी से पूछा,"" तो माँ ने भी कहा ,""यह पाठशाला समय पर जाता भी और समय पर वापस भी आ रहा है। मुझे सच का पता नहीं है। माँ ने कहा-
फिर पिता ने भाई को पास में बिठाकर पूरी बात जानने की कोशिश की भाई ने सचसच सब कुछ बता दिया। पिता जी ने कहा ""बेटा मेरी तनख्वा में से मुझे जो पैसे मिलते हैं ,उसमें मुझे बहुत बड़ी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है ,इसीलिए मैंने यह किताबें इस तरह से खरीद कर तुम्हारी शिक्षा को नहीं रोका।""बेटा अपने दादा- दादी चाचा -चाची ,बुआ सब की जिम्मेदारी मुझ पर है।

खेती है ,पर खेती  से उतना नहीं मिल पाता ,लेकिन पैसा जरूरी होता है इसलिए मैं उन्हें पैसा भेजता हूँ तो और अपना भी परिवार बड़ा है ,इन सब जिम्मेदारियों को मुझे निभाना होता है, मैं अगर आज पाई -पाई जोड़ लूंगा ,तो कल तुम्हारा भविष्य ही अच्छा बनेगा तुम्हारी शिक्षा भी पूरी होगीं न।""  समझाने पर भी भाई मान गया भाई से पिता ने और भी कुछ कहा कि बेटा पुस्तके नई हो या पुरानी छपाई तो वैसा ही होताी है ।ज्ञान तो उतना ही होता है  
नई,-पुरानी दोनों में क्या फर्क है ? पिता ने समझाया ।हम  बाकियों को भी यही बात समझ में आ गई कि ज्ञान जरूरी है आज तक पुरानी पुस्तकों को लेकर पैसा बचाना सीखा, जो आज भी काम आ रहा है । मैंने इसी तरह से तीन -तीन विषयों में एम. ए.किया ।नई पुस्तक हमने तभी खरीदी जब सरकारी पाठ्यक्रम बदला था ।कहांँ खर्च करना, सोच -समझ कर चलना पड़ता है ।अपना परिवार बड़ा है ।जी हांँ, आज भी पिता की सीख को जीवन का लक्ष्य मानकर ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।उनका स्वर्गवास 1990 में हुआ पर वह आज भी हमारे भीतर जीवित है, उनके अनुभव से ही हम अपने और अपने परिवार को चला रहे हैं। लोगों के स्वभाव को जानना ,उनकी लालच उनकी चापलूसी उनके चेहरे पढ़ना भी पिता ने सिखाया। जो आज समय के साथ बहुत जरूरी है ,और हम हमारे लिए बहुत काम की बातें हैं ।उस पिता को शत-शत नमन जिन्होंने एक गुरु बनकर हमें इतना सारा ज्ञान दिया और एक जीवन को जीने का सिद्धांत दिया ।
 धन्यवाद!

एक मैंने कविता भी लिखी है, जो नीचे प्रस्तुत कर रही हूँ। उम्मीद है ,आपको कविता भी पसंद आएगी।

  "" मेरे पिता  मेरा हीरा ""
 पाया मैंने  पिता इक ऐसा ,
जो इक नवलखा हीरे जैसा  
पाला था मुझे इक बेटे जैसा
साथ दिया प्राण वायु जैसा
कभी सखा तो कभी बड़े भाई जैसा
हुई गलती तो समझाया गुरू जैसा
हर संकट पर लड़ना सिखाया योद्धा जैसा
हर क्षण बन कर घनी छाया बरगद  जैसा
पाया मैंने  पिता इक ऐसा
जो  इक कोहिनूर हीरे जैसा
कभी ना  दौलत का करना  घमंड सिखाया ।
कभी  भी दूसरो  की  करना मदद सिखाया ।
पाया  ज्ञान , संस्कार इतना
मुझ जैसा , अमीर  इतना
मैं भी हूँ ,  कितनी भाग्यशाली
मैं ही हूँ ,   कितनी किस्मतवाली
पाया मैनें पिता इक ऐसा
जो है, नवलखा हीरे जैसा।


ज्योति हीरा लाल ठाकुर
नागपुर, महाराष्ट्र

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पिता के सबक तब समझ में आए"" "फादर्स डे विशेष के लिए"  सबक
                     
हम लोग छोटे से कस्बे के रहने वाले हैं। मिनटों में कस्बे के एक छोर से दूसरे छोर पहुंचा जा सकता है। शुरू से ही मैं निश्चित समय के करीब ही घर से निकलती। मेरी इस आदत को देखकर पिताजी हमेशा समझाते कि निश्चित समय से कुछ देर पहले ही निकलना चाहिए । उन्हें हां कहने के बावजूद , हर बार मैं निश्चित समय के करीब ही निकलती । मेरा विवाह बैंक अधिकारी से हुआ । मैं शहर आ गई पर समय पर निकलने को लेकर वैसा ही ढुल - मुल रवैया चलता रहा , परंतु एक घटना ने मुझे पूरी तरह बदल दिया ।

हुआ यों की हम लोगों का हिल स्टेशन पर जाने का प्रोग्राम बना परंतु , विभागीय आवश्यकता के कारण , पति को उसी दिन पास के शहर , थोड़ी देर के लिए जाना पड़ा । प्रोग्राम यह तय हुआ कि वह अगले स्टेशन पर मिल जाएंगे  । अब पूरे लगेज सहित मुझे मेल पकड़नी थी । मैं आदतन मेल के टाइम के करीब ही घर से निकली । रास्ते में जुलूस के कारण बढ़ना कठिन था । मुझे लगा कि मेल मिलना अब संभव नहीं। मैं मन ही मन स्वयं को दोषी ठहराने लगी कि पति के बार-बार यह जताने के बावजूद कि, मेल राइट टाइम आती है, मैंने ध्यान क्यों नहीं दिया? जैसे-तैसे ड्राइवर ने गलियों से घुमा फिरा कर स्टेशन पहुंचाया।

टैक्सी पहुंचते ही कुली ने बताया कि मेल लेट है। अभी - अभी आई है। इसीलिए खड़ी है। भागदौड़ करके मेल पकड़ी। बैठते ही चल पड़ी। क्षणभर की देरी से हमारी सारी यात्रा, सारे रिजर्वेशंस बेकार हो जाते।
मेल पूरी गति पकड़ चुकी थी। मेरी सांस फूल रही थी। ह्रदय अभी भी जोर - जोर से धड़क रहा था, पर इस सब के बीच मुझे पिताजी का सबक सही अर्थों में अब समझ में आया ।

उर्मिला सिपौल्या
जबलपुर ( म प्र.)

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"कहते है  "" माँ "" ममता का खजाना होती है और "" पिता "" सम्बल  
पिता आधी माँ भो होता है अंदर से औऱ रात के खाली लम्हे जब कभी जिंदगी में भारी हो जाते है तो पिता ही मुश्किलों के सामने तन कर खड़ा मिलता है...

बेटी की शादी के बाद वो एकदम अकेले हो चले थे औऱ बेटे की शादी करवाने का चाव लिए वो काफी उत्साहित रहा करते थे
!!
रिटायर वाले दिन "" बेटे ये लो घर की चाबी औऱ ये रहे बैंक के कागज़ात , अब तुम सम्भालो सब , मैं अब रिटायर हो गया हूँ ""
ये कहकर यशपाल ने नीटू को चाबियां औऱ पासबुकें सौप दी
नीटू :-""अरे , आप पापा कैसी बात करते हो आप कभी रिटायर नही हो सकते ""
" न बेटे अब बस मैं आराम करूँगा "
उस रात नीटू सो नही पाया जाने कैसा मन भारी था पिता के इस रूप पर अचंभित तो था साथ ही उदास भी

"" एक रिवायत सा होता है वो
पिता कभी पुराना नही होता ""

"" पापा , हम बाजार जा रहे आते है थोड़ी देर में ""
" अच्छा "  " थोड़ा जल्दी आ जाना " ( पापा बोले )
"" हांजी पापा "" कहकर नीटू औऱ उसकी पत्नि निकल जाते है
लौटकर आते आते थोड़ा देर हो जाती है
नीटू - "" पापा  देर हो गयी हमे , आप ठीक हो ""
पापा :-  "" हा बेटा , कहां रुक गए थे ""
"" कुछ नही पापा बस पेट्रोल लिया जाते वक्त औऱ फिर बाजार में रुके , थोड़ा सा चाट औऱ  आइसक्रीम खाई "" बस..

" पापा देखो आपके लिए ये कुर्ता लाये है " ( नीटू की पत्नि बोली )
"" पर बेटे मैं क्या करना कुर्ते का , कहीं जाना तो है नही "" ( पिताजी का नरम लहज़ा )""

पिता कभी व्यक्तिगत जीवन जी ही नही पाता..
 बार बार  उसका हर कदम बस खुद को न्योछवर करने में कब बीत जाता पिता जान ही नही पाता बस पिता यूँही जिया करते है।

पापा अक्सर अपने कमरे में आराम करते थे या धूप में बैठ कर अखबार पढ़ते थे पर नज़र सब तरफ रखते थे लेकिन कभी किसी तरह की रोकटोक नही करते थे हां पर  उनको सुबह नाश्ते के बाद कप भर कर चाय पीना बहुत पसंद था.

रात में जब भी घर पर तला हुआ बनता या भारी भोजन बना होता तो नीटू पत्नि को कहता पापा को मत देना .. रात का वक़्त है खानपान थोड़ा हल्का रखो
उसकी पत्नि अक्सर गुस्सा होकर कहती "" खाने दो न , क्यों टोकते हो  , कुछ नही होगा खाने दो ""

पापा उन दोनों की दुनिया थे
...
"" पापा पूड़ी बनी है आपके लिए फुल्का बना दें हल्का रहेगा रात में ""  
पापा बोले "" हा  बना दो न , साथ मे क्या बना है  , साथ मे दही दे दो ""
पापा बस ऐसे ही सरल से हमेशा  निश्चल मन से आगे बढ़ जाते थे
औऱ नीटू हमेशा पापा के साथ अपने वक़्त को बिताया करता था
"" बेटे दवाई खत्म हो गयी मेरी ""
 ( रात 11 बजे का टाइम )
ओह्ह , कौन सी वाली पापा
" वो गैस वाली " बेटे
"" अच्छा , कल सुबह लाता अब तो रात है ""
" हा कोई न " कहकर पापा सोने की कोशिश करने लगे
उस रात नीटू काफी देर बेचैन रहा

अगले रोज़ काफी व्यस्तता रही सो दवाई नही आ पाई पर पापा ने कुछ नही कहा उसके
अगले दिन सुबह नीटू दवाई ला पाया पर भीतर से शर्मिन्दा सा
" पापा , आपकी दवाई कल टाइम नही मिला ."
बड़े नरम लहज़े में पापा -"" कोई नही ,आज आ गयी न ""
उफ , इतना समर्पण पिता का
उस रोज नीटू ने तय किया कि अब पापा के किसी काम मे देर नही होगी

पिता का ये स्वरूप अक्सर हमारे आसपास देखने को मिल जाता है , पिता ही वो शख्स है जिसके भीतर जाने कौन रूह होती है जो बस बच्चों पर न्योछावर होने आई होती है

ऐसे ही वक़्त कटता रहा पिता सब कुछ न्योछवर करते रहे नीटू औऱ उसका परिवार पापा के आसपास अपना वक़्त बिताते जब नीटू बाहर होता तो अपने बेटे को हिदायत देकर जाता कि "" दादा "" के पास ही रहना .

नीटू ने सबको सबको सख्त हिदायत दे रखी थी परिवार में यहां तक कि सब रिश्तेदारों  को भी कह रखा था कि "" पापा से कोई बेअदबी नही करेगा  न ही पापा की बात कोई काटेगा .""

"" बेटे , वो पेन्शन कितनी जमा हो गयी ""
पापा करीब 80 हजार जमा हो गयी .
"" अच्छा उससे बहु के लिए कुछ बनवा दे , जहां लगाने हो पैसे लगा ले ""
 " पापा रखे रहने दो , आपके काम आएंगे पैसे "
- "" बेटा मैं की करनी पेन्शन तू रख ले ""

पापा कितने फ़क़ीर इंसान है अपने लिए कभी कुछ नही सोचते
ये सोचते सोचते नीटू की आंखे नम हो आई

मन ही मन नीटू हैरान होता कि कितना लुटाएँगे पापा खुद को
मन श्रद्धा से गदगद भर जाता उसका पर नीटू अपने किसी भी काम मे उनकी पेन्शन का इस्तेमाल नही करता था

घर से बाहर कभी जाना हो तो सबसे पहले  बहु खाना बनाकर टेबल पर सजा दिया करती थी ताकि पापा को दिक्कत न हो
बस समय यूँ खुश था पिताजी के साथ रहते
!!
एक रोज़ सुबह 3 :40 पर पापा ने बुलाया
"" बेटे नींद नही आई बड़ी बेचैनी है ""
नीटू औऱ उसकी पत्नी वही पापा के पास बैठ गए . दोपहर तक पापा की तबियत बिगड़ने लगी , बुखार हो आया
नीटू ने दवा दी आराम लग गया
अगले तीसरे रोज़ अचानक पापा हल्के बेहोश होकर बेसुध हो गए.
डॉक्टर ने सारे चेकप किये मगर कोई फर्क नही आया

दिन रात दोनो बहु बेटा पापा के पास जागते रहे पापा को खिलाते पानी पिलाते दवा देते रहे मगर 16 वे दिन सुबह से पापा पूरे बेहोश हो चले थे
उसी शाम नीटू ने पापा को जगाया ""पापा,पापा उठो.कुछ खा लो , पानी पी लो
अचानक पापा बोल उठे " सोने दे बेटा ,
पापा उठो न औऱ पापा को उठाकर पानी पिलाया
"" बेटे मुझे लिटा दे जल्दी कुछ हो रहा मुझे ""
(आवाक ) क्या लग रहा आपको पापा
" बस जल्दी से लिटा दे "
औऱ लिटाते लिटाते
........... सब शान्त .....
पापा नही रहे

पापा चले गए पर पीछे छोड़ गए
......भरपूर सहूलियतें
औऱ फिर नीटू कभी जी भर के किसी के पास कभी बैठ नही पाया
जहां भी बैठता बस एक खाली मन लिए..
      मनीष
पिता  एक सँस्कार एक चेतना"

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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"पापा, पहले तो आपका मुस्कुराता चेहरा आंखों के सामने आता है फिर आपके साथ हुई बातचीत कानों में गूंज कर ताजा होती है। आपकी मौजूदगी घर में, आंगन में, खेत में महसूस होती है। घर-परिवार के हर सदस्य के साथ आपका रिश्ता आंखों में तैर जाता है। सब बढ़िया है पापा। भूख भी लगती है, खाना भी खाया जाता है, दैनिक कामकाज भी करते हैं, थकते हैं और जमके नींद भी आती है। लेकिन जब कभी भी आपकी याद आती है तब भोला मन आपसे बातें करने लगता है और जब आपकी तरफ से जवाब नहीं मिलता तब कुछ अखरता है। कान तरसते हैं आपकी बातें सुनने को। फिर शिकायत का एक भाव मन में हिलोर मारता है। आंखें डबडबा जाती हैं। हम लाचार और बेबस हो जाते हैं। ऐसे ही तो छोड़ कर गए हैं आप हमें। आपको गए हुए एक महीना 10 दिन होने आए लेकिन मन अभी भी स्वीकार नहीं करता। कभी-कभी लगता है जैसे मेरा मन बड़ा मजबूत है अचल है, चट्टान है। खुशी खुशी मैंने आपके जाने के निर्णय को स्वीकार किया और सम्मान किया। लेकिन कभी-कभी यही मन मिट्टी की तरह भरभरा कर गिर जाता है।

मन के इस हाल पर मैं ने जागरूक होकर कुछ सोचा है। कुछ विचार मन में बो लिए हैं। जब भी आपकी याद आती है और आंखें डबडबा आती हैं तो तुरंत स्वयं को याद दिलाती हूं रोना नहीं है, दुखी नहीं होना है। प्रसन्न होकर, आनंदित होकर याद करती हूं आपके साथ बिताए सभी पल। पुरानी यादों से अपने आपको धकेलती हूं और नए विचारों के इर्द-गिर्द ले आती हूं। इन विचारों में आपकी आगे की यात्रा के लिए शुभकामनाएं होती हैं। यह शुभकामनाएं मैं ही रचती हूं। क्योंकि मुझे पता है आपके लिए इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरी यही शुभकामनाएं हैं। हमने तो सिर्फ आपको खोया है और बाकी पूरा परिवार हमारे साथ है। लेकिन आप अचानक इतने सारे प्यारे रिश्ते छोड़ कर गए हैं, और आप हमसे ज्यादा दर्द और तकलीफ में होंगे।

लेकिन आप अब एक उर्जा स्वरूप हैं जो उस परम ऊर्जा में विलीन हैं। आप हम सभी को पूर्ण तरह संतुष्ट और प्रसन्न छोड़ कर गए हैं एवं आप स्वयं अपने जीवन काल से परम संतुष्ट थे। आपका अपने जीवन काल में एक भी व्यर्थ संकल्प नहीं था। आपके सभी संकल्प श्रेष्ठ थे। इन्हीं श्रेष्ठ संकल्पों का लाभ निश्चित रूप से पूरे परिवार को मिला है और आगे भी मिलता रहेगा। हम सभी लाभार्थी आपके लिए सदा यही कामना करते है कि इन ही श्रेष्ठ संकल्पों एवं कर्मों के आधार पर आपकी आगामी यात्रा सुख, शांति, आनंद दिव्यता और पवित्रता एवं ज्ञान से भरपूर हो। परमात्मा की तरह आप भी शक्तिशाली, आनंदघन एवं सदा प्रसन्न चित्त रहे।
*आपकी हंसाने वाली प्यारी बातें हम सभी बच्चों को सदा गुदगुदाती रहेंगी। जब आप हंसाने लगते तो ऐसी ऐसी बातें करते कि आधे आधे घंटे से भी ज्यादा हम सभी बच्चों को हंसा हंसा कर लोटपोट कर देते। जब आप आध्यात्मिकता पर चर्चा करते हम में से कोई भी आपके विचारों को छू नहीं पाता था यह हमारा अज्ञान ही था।

जब बात निडरता की हो तो आपका ही नाम घर परिवार में सबसे आगे होता। जब बात संकट की हो तो आपसे बात कर लेने मात्र से ऐसा बल मिलता कि संकट कहीं रफूचक्कर हो जाता। पापा आप से ही सीखा उस परमपिता परमेश्वर पर भरपूर विश्वास करना। कि अब उस विश्वास के सहारे पूरी दुनिया के खिलाफ जाने से भी डर नहीं लगता। आपका शरीर और मन यहां छूटा है। लेकिन आप अजर अमर अविनाशी हैं उस परमपिता परमेश्वर की ही तरह। ईश्वर का प्रेम और आशीर्वाद सदा आपके साथ है। आपका हमारे जीवन में आने के लिए एवं इतने लंबे समय तक साथ रहने के लिए कोटि कोटि धन्यवाद। हम सब आपके आभारी हैं।

*जीवन का उद्देश्य आनंद, जीवन का आधार आनंद| जीवन का मर्म आनंद| जीवन के अंदर आनंद, जीवन के बाहर आनंद| शरीर प्राप्त करने में आनंद; एकाकार होने में आनंद,आनंद ही आनंद। आनंद आ गया आपको अपने जीवन में पाकर। आपके साथ बिताया अब तक का समय कीमती एवं अविस्मरणीय है |आप अब जहां भी रहे खुश और आनंदित रहे। ईश्वर की संगत आप को शांत और शीतल बनाएं। ओम शांति शांति शांति|*

आपकी बेटी

पुष्पा (निशा) एवं पूरा परिवार
रीवा, म प्र

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"पिता की दूरदर्शिता
 
बात उन दिनों की है,जब मैने कालेज मे एम.एससी.की परीक्षा मे प्रथम स्थान प्राप्त किया था ।घर मे सभी सदस्य बहुत खुश हुए। मैने आगे भी पढ़ाई करने की इच्छा पापाजी के सामने जाहिर की।मैने एम फिल के लिए आवेदन किया और बी.एड.की प्रवेश परीक्षा भी दी।ईश्वर की कृपा से मुझे दोनो जगह सफलता मिली।
           

मेरा मन एम.फिल.करने का था लेकिन पापाजी ने कहा बी.एड.कर  लो। मैंने बहुत कहा कि मुझे नहीं करना बी.एड.पर मेरी एक ना चली। मैंने बिना मन के बी.एड.मे एडमिशन ले लिया लेकिन पढ़ाई मन लगाकर की और  कालेज मे प्रथम  स्थान प्राप्त किया।पापाजी ने मेरे सिर पर हाथ फेरकर कहा बेटी मै जानता हूं तुम मुझसे नाराज हो लेकिन देखना एक दिन यही पढ़ाई  तुम्हारे काम  आयेगी।

विधि का विधान कहे या मेरे पापाजी की दूरदर्शिता कुछ दिनों के बाद  रोजगार कार्यालय से शिक्षक पद के लिए इंटरव्यू का पत्र  प्राप्त हुआ। मै इंटरव्यू के लिए पापाजी के साथ गई। मेरा इंटरव्यू अच्छा रहा और मेरा चयन शिक्षक पद पर हो गया। मेरी जिन सहेलियों ने एम.फिल.किया था, वो रह गई। वे इस पद के लिए पात्र थीं। मेरे मन मे एम.फिल ना कर पाने का दुख था, वह आंसुओं के माध्यम से बाहर निकल गया और मैने माना कि पापाजी का कहना मानकर मेरा भविष्य सॅवर गया।

आज  मै अपनी गृहस्थी मे खुश हूं और परिवार की जिम्मेदारियों का वहन अच्छी तरह से कर रही हूॅ। आज मेरे पापाजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका आशीर्वाद  सदैव मेरे साथ है।उनकी दूरदर्शिता के कारण  मेरा जीवन सुखमय है।


अनिता गौतम 
सतना, मध्यप्रदेश

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Capture

"पिताजी की छड़ी और सीख

आज सप्ताह का अखिरी दिन था। हम सभी चारों भाई और बहन मां के साथ मस्ती में डूबे थे। लगता था कि खुशी का दिन यूं आया और तब गया। हमलोग पिताजी के आफिस से आने का इंतजार कर रहे थे। मां ने तो सबके लिए विशेष पकवान बना रखा था। पावरोटी से सजाकर आज नये तरीके से इसे बनाया था। इस खुशी में हमलोग उधम मचा रहे थे। चारों भाई तो उत्पाती थे ही। इसके बीच बहन शांत मिजाज की थी। उसे देखते ही पिताजी का गर्म पारा शांत हो जाता था।
शाम में छह बजे पिताजी घर पर पहुंचे। इससे पहले हम चारों उत्पाती भाई कूद-कूद कर छत पर रखी बिस्तर को तोड़ चुके थे। हालांकि वह डर हमलोगों में गायब था कि आज फिऱ। आज खास दिन था और मां किचन में व्यस्त थी। हमलोग भी विशेष पकवान बनने और सबके सामने आने का इंतजार कर रहे थे। इसी बीच घर में एक तरह से अलार्म बज गया। मतलब पिताजी घर में पहुंच गए हैं।

पिताजी का मूड आज गरम था। आफिस में कोई बात हुई होगी। सभी ने सोचा क्या हुआ इस पर कोई बात नहीं करना। पिताजी उठे और छत पर गए। वहां टूटी हुई चारपाई को देखते ही उनका मूड बिगड़ गया। उन्होंने आव देखा न ताव लगे सभी चारों भाइयों को पीटने। और तो और उन्होंने एक ही गमछे में चारों भाई को बांध दिया और हाथ पैर फंसा कर कमरे में छोड़ दिया। रात भर हमलोग मच्छरों के उत्पात से बेचैन रहे। चारों भाइयों के सिर से लेकर पांव तक मच्छरों के निशान बन गए। इस तहर पिताजी की छड़ से हम सभी भाइयों को सीख मिल गई।

अरविंद कुमार
जबलपुर, मध्यप्रदेश

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पापा के नाम पैगाम तो ढेरों आए। लेकिन ये संभव नहीं कि हम हर संदेश आपके साथ साझा कर सकें। फादर्स डे के मौके पर हजारों रीडर्स ने हमें अपने पापा के नाम संदेश भेजें कुछ को यहां जगह मिल सकी। और कुछ अलग अलग कारणों से पब्लिश नहीं हो सके। जिसके लिए हम खेद व्यक्त करते हैं। साथ ही उन सभी के पापाओं को ये यकीन दिलाते हैं कि जो शब्द यहां दर्ज नहीं उनमें भी उनके लिए ढेर सारा प्यार और सम्मान छुपा हुआ था।

डिसक्लेमर- ये सभी संदेश भास्कर हिंदी के रीडर्स ने भेजे हैं। जिन्हें उन्हीं की भाषा और शब्दों में पब्लिश किया गया है।

 

Created On :   18 Jun 2022 2:52 PM GMT

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