दिव्यांग कमजोर नहीं, एवरेस्ट की चोटी फतह करने की भी रखते हैं  ताकत

Divyang is not weak, he also has the strength to conquer the summit of Everest
दिव्यांग कमजोर नहीं, एवरेस्ट की चोटी फतह करने की भी रखते हैं  ताकत
दिव्यांग कमजोर नहीं, एवरेस्ट की चोटी फतह करने की भी रखते हैं  ताकत

डिजिटल डेस्क, नागपुर। ‘दिव्यांग’ यह वह शब्द है, जिसे कभी लाचार, बेबस, दूसरों पर आश्रित रहने वालों के लिए किया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। यही ‘दिव्यांग’ ऐसे-ऐसे कारनामे कर रहे हैं और विभिन्न क्षेत्रों में बुलंदी के झंडे गाड़ रहे हैं, जिसे सामान्य लोग भी जल्दी नहीं कर पाते हैं। पढ़ाई का क्षेत्र हो, खेल हो, संगीत हो, नृत्य हो हर क्षेत्र में नाम कमा रहे हैं। इन्होंने दिव्यांगता को कभी कमजोरी नहीं बनने दिया। दिव्यंागता को अभिशाप नहीं वरदान माना है।   शहर के कुछ दिव्यांगों से चर्चा की और उनसे उनके अनुभव आदि के बारे में जाना। इसमें माउंट एवरेस्ट की चोटी पर परचम लहराने वाले भी शामिल हैं।

ड्राइवर से ब्रांड एम्बेसडर तक का सफर
3 फरवरी 2008 को रेल हादसे में पैर गंवाने वाले अशोक मुन्ने ने बताया कि ‘आज जब उस घटना को याद करते हैं, तो रोंगटे खड़े हो जाते है। हादसे में दाहिना पैर घुटने के नीचे कट गया। दो ऑपरेशन हुए जो असफल रहे। उसके बाद जीने की उम्मीद ही छोड़ दी। फिर नागपुर की संस्था इंद्रधनुष ने इलाज कराया और वो ऑपरेशन सफल रहा। नकली पैर के सहारे चलने लगा। मुझे ड्राइविंग के क्षेत्र में रुचि थी, इसलिए ड्राइवर की नौकरी कर ली। इसके बाद सोचा कि ड्राइवर बनकर ही नहीं रहना है। एक न्यूज में देखा कि एक छोटी बच्ची ने माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई की। फिर ठान लिया कि मुझे भी माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करनी है। जब कई संस्थाओ से मदद मांगी, तो मेरी विकलांगता का मजाक बनाया गया। फिर खुद से प्रैक्टिस शुरू कर दिया।

शहर की आसपास की पहाड़ियों पर चढ़ने लगा। धीरे-धीरे आत्मविश्वास बढ़ा, तभी एक संस्था ने 2012 में स्पॉन्सर किया। मार्च 2012 में 16700 फीट हिमालय पर चढ़ा। मैं एवरेस्ट के साथ ही मीरापीक भी करना चाहता था। फिर एक कंपनी ने स्पॉन्सर किया और मीरापीक की चढ़ाई शुरू की। ठंड ज्यादा होने से मुंह से खून आने लगा, तबीयत काफी खराब हो गई,। लेकिन हिम्मत न हारते हुए मैंने अपनी मंजिल पा ली। 2012 में एक अमेरिकन कंपनी ने मुझे ब्रांड एम्बेसडर बनाया। 2013 में लद्दाख राइड, 2014 मैराथन दौड़, 2015 पैराग्लाइडिंग में एंट्री, 2016 स्कूबा ओपन वॉटर डाइविंग, 2018 रेड बी हिमालय इंडिया की सबसे खतरनाक बाइक रेस आदि मैंने की है। अब 2021 में एक नया रिकॉर्ड बनाने की तैयारी कर रहा हंू।’

बार-बार कैंसर को मात दी
भक्ति घटोले ने बताया कि जब वे 6 माह की थीं, तो पता चला कि उन्हें आंख का कैंसर है। उसके बाद 5 साल की उम्र में फिर से कैंसर डिडक्ट हुआ। 9 साल की उम्र से दिखना बंद हो गया था।  जब स्कूल में दाखिले की बात आई, तो सभी ने अंध विद्यालय जाने की बात कही, लेकिन मैंने सामान्य स्कूल में जाने की जिद की। अंतत: एक स्कूल में एडमिशन मिला। मुझे जिज्ञासा मैडम और शिरीष दारव्हेकर ने किताबों आदि की रिकार्डिंग देकर मदद की। दसवीं क्लास में 94 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए। मुझे साइकोलॉजी में पढ़ाई करनी थी। फिर स्पेशल परमिशन के साथ शहर के कॉलेज में दाखिला मिला।

 बारहवीं में 87  प्रतिशत अंकों के साथ सेकंड टॉपर थी। फिर ग्रेजुएशन कंपलीट किया। तीनों साल कॉलेज में टॉपर थी। यूनिवर्सिटी में 9वीं मैरिट  थी। इकोनॉमिक्स और पॉलिटिकल साइंस में गोल्ड मेडल मिला। साइकोलॉजी में मास्टर्स करने के लिए मंुबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में प्रवेश लिया। 2017 में एक बार 14 साल के बाद कैंसर डिडक्ट हुआ। 1 साल ट्रीटमेंट के बाद ठीक हुआ। फिलहाल मैं असम की एक ऑर्गेनाइजेशन कम्युनिटी मेंटल हेल्थ का काम करती हूं। मेरे इस सफर में बहुत सारे लोगों ने मदद की। 

कब से हुई इसकी शुरुआत
हर साल 3 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकलांग व्यक्तियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी और 1992 से संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसे अंतरराष्ट्रीय रीति-रिवाज के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इस दिन को मनाने का उद्देश्य है कि विकलांगों के प्रति सामाजिक सोच को बदला जाए और उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने और उन्हें यह अहसास दिलाने कि विकलांगता अभिशाप नहीं वरदान है। 1992 से इसे पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है

Created On :   3 Dec 2020 4:09 PM IST

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