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प्रशासनिक वनवास में फंसे लाखों आदिवासी, नहीं मिला जमीन का मालिकाना हक

लिमेश कुमार जंगम , नागपुर। बरसों से घने जंगलों में जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासी आज भी प्रशासनिक वनवास में फंसे हुए हैं। इन्हें न ही भूमि का हक मिला है और न ही पट्टा। दुर्गम इलाकों में कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए वे पारंपरिक खेती सैकड़ों सालों से कर रहे हैं। इस बीच वर्ष 1980 में वन संरक्षण अधिनियम की कठोर शर्तें लागू हो गईं और वन निवासियों के जीवन-यापन का संकट उभरकर सामने आ गया। इसके पश्चात सरकार को इनके लिए 2006 व 2008 में कानून बनाना पड़ा। इन्हें वन भूमि के पट्टों पर मालिकाना हक देने की पहल शुरू की गई। अतिक्रमणकारी होने का कलंक झेल रहे लाखों परिवारों को पट्टे मिलने की उम्मीद थी। लेकिन बीते 12 वर्षों में राज्य के 3.54 लाख प्रस्तावों में से मात्र 1.08 प्रकरणों को ही मान्यता मिली है। आज भी ढाई लाख मामले प्रशासनिक वनवास से बाहर नहीं निकल पाए। एकमात्र नागपुर की बात की जाए तो 2355 में से 1728 प्रस्ताव विभिन्न समितियों के स्तरों पर अटके हुए हैं।
आफत की आहट
राज्य के दुर्गम एवं बीहड़ इलाकों में आज भी जब प्रशासन का कोई कर्मचारी पहुंचता है तो वहां के निवासी उसे किसी आफत की आहट ही मानते हैं। चाहे राजस्व विभाग का कर्मचारी हो, चाहे पुलिस विभाग का जवान हो या चाहे बीट गार्ड (वन विभाग के सबसे निचले पायदान का कर्मचारी)। घने जंगल में बसे छोटे गांवों में प्रशासन के कर्मचारियों का प्रवेश भले ही किसी कल्याणकारी उद्देश्य से हो, इन आदिम समुदायों को लगता है कि उनके जंगल, जमीन व संसाधनों पर कोई विपदा आने वाली है। सरकार ने इस भय पूर्ण माहौल पर मात करने, प्रशासन में भरोसा जगाने, आदिवासी आबादी और जंगलों पर आश्रित समुदायों के इज्जत से जीने के अधिकार की रक्षा करने के लिए कानून बनाकर एक बड़ी पहल की। इन्हें इनके अधिवास का मालिकाना हक देने के लिए वन भूमि के पट्टे देने की शुरुआत की गई।
अतिक्रमणकारी होने का कलंक
अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006’ को 15 दिसंबर 2006 में लोकसभा में पारित किया गया था। साथ ही अधिनियम 2008 का क्रियान्वयन 6 सितंबर 2012 से लागू किया गया। इसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी आदिवासी विकास विभाग को सौंपी गई थी। कानून के अनुसार गांव स्तर पर ग्राम सभा, वन हक समिति, उप विभाग समिति एवं जिला स्तर समिति को अधिकार सौंपे गए। आदिवासी व जंगल बहुल इलाकों के निवासियों के लिए वन जमीन के मालिकाना पट्टे देने की शुरुआत की गई। जनसंख्या की एक बड़ी आबादी जंगलों पर आश्रित है। वे सदियों से जंगल और वन्य जीवों के साथ जी रहे हैं। वहीं खेती कर गुजारा करने वाले लाखों लोगों को अतिक्रमणकारियों के रूप में देखा जाने लगा। इस कानून से अतिक्रमणकारी होने का कलंक मिटने की उम्मीद थी। वन प्रबंधन के नाम पर वन आधारित समुदायों को वनों से पृथक करने तथा इन वनों पर सरकारी नियंत्रण की व्यवस्था को बदलने के लिए सरकार ने पहल की। वन संसाधनों के प्रबंधन की नई व्यवस्था स्थापित करने का प्रावधान इस कानून का मूल उद्देश्य बनाया गया।
13 उद्देश्यों पर वन भूमि आवंटन का प्रावधान
वन अधिनियमों के प्रावधानों के अनुसार जंगल की जमीन पर धारा 3 (1) के तहत किए गए दावों में संबंधित ग्रामीणों को भूमि उपयोगिता का अधिकार प्राप्त होता है, किंतु इस भूमि पर संपूर्ण अधिकार वन विभाग का ही होगा। खेती समेत विविध 13 उद्देश्यों पर वन भूमि को आवंटित करने का प्रावधान है। जिसमें सामूहिक दावों में सामाजिक केंद्र के तहत कार्यशाला, सरकारी छात्रावास, क्रीड़ा संकुल, स्कूल का खेल मैदान, समाज मंदिर, व्यायाम शाला, सार्वजनिक तालाब, सार्वजनिक ग्रंथालय आदि का समावेश है। ग्रामीणों के जिन दावों को संबंधित समिति व प्रशासन ने नामंजूर किया है, वहां के अतिक्रमण को हटाकर प्रतीज्ञा पत्र पेश करने के निर्देश दिए गए थे। अवैध अतिक्रमण नहीं हटाने वालों के खिलाफ स्थानीय पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज करने की सूचना भी जारी की गई थी।
निराशाजनक है भूमि पट्टों का वितरण
इस कानून के प्रचार-प्रसार में सरकारों ने सक्रियता नहीं दिखाई। बीते 12 वर्षों में वन क्षेत्र के लाखों निवासियों को केवल निराशा ही हाथ लगी। जो जमीन वन भूमि के तौर पर दर्ज है, उस पर कानूनन दावेदारी कब मिलेगी, यह समस्या आज भी बरकरार है। राज्य में कुल 3 लाख 54 हजार 313 दावे प्राप्त हुए। जिनमें से महज 1 लाख 8 हजार 827 दावों को अंतिम रूप में मान्यता मिली है। जिनमें से 1 लाख 8 हजार 603 प्रस्तावों में वन भूमि के पट्टे वितरित किए गए और इनमें 2 लाख 59 हजार 318 एकड़ वन भूमि का वितरण किया गया। नागपुर में कुल 2355 दावे प्राप्त हुए थे। जिनमें से 627 मामलों को मान्य करते हुए 595 को वन भूमि के पट्टे वितरित किए गए। इन्हें 1 हजार 415 एकड़ भूमि प्राप्त हो चुकी है। शेष मामलों के अतिक्रमणधारक आज भी प्रशासन की मान्यता के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं।
Created On :   25 April 2018 12:26 PM IST