विजयोत्सव से बड़ा कोई उत्सव नहीं, पूरे जीवन की दिवाली थी उस दिन

There is no festival bigger than Vijayotsav, it was Diwali of the whole life.
विजयोत्सव से बड़ा कोई उत्सव नहीं, पूरे जीवन की दिवाली थी उस दिन
विजयोत्सव से बड़ा कोई उत्सव नहीं, पूरे जीवन की दिवाली थी उस दिन

डिजिटल डेस्क, नागपुर। विजयोत्सव से बड़ा कोई उत्सव नहीं मेरे लिए करगिल से सियाचीन तक अलग-अलग मोर्चे पर तैनात रहकर सेना के हथियार और बड़े उपकरण मरम्मत करने की जिम्मेदारी कामठी के पवन लाथोरिया ने निभाई। उन्होंने करगिल युद्ध की यादें दैनिक भास्कर से कुछ इस प्रकार साझा कीं... 

भाई को कॉल किया : 23 मई को दोपहर में भोजन करने बैठा ही था कि कंपनी कमांडर का कॉल आया। बताया गया कि उन्हें श्रीनगर एक कॉन्फ्रेंस के लिए बुलाया गया है। तुरंत घर पर कंपनी की गाड़ी भी पहुंच गई। परिवार अंबाला में ही था। पत्नी और सात व साढ़े चार साल का बेटा। उन्हें छोड़ कर जाने का दु:ख था, लेकिन सामने देश सेवा का जज्बा था। पत्नी और बच्चों को कुछ नहीं बताया। झूठ बोला कि कोलकाता जा रहे हैं। हालांकि मैं समझ गया था कि मुझे कहां भेजा जा रहा है, क्योंकि उस समय कारगिल युद्ध शुरू हो चुका था। चंडीगढ़ और वहां से श्रीनगर पहुंचा। डिप्टी डायरेक्टर ऑफ इलेक्ट्रानिक्स मैकेनिकल इंजीनियर ने पहली बार बताया कि उन्हें करगिल जाना होगा। तब सिर्फ एक कॉल करने की इजाजत मांगी और कामठी में अपने भाई घनश्याम से कहा कि वह अंबाला पहुंचकर परिवार को कामठी ले जाए। सच बताने की हिम्मत नहीं हुई। 25 मई को श्रीनगर से लेह और वहां से मुलबैक होते हुए बटालिक सेक्टर दा हनुथांग पहुंचा। करगिल से सियाचीन तक सेना के हथियार और उपकरण मरम्मत की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। बंकर में रहकर मात्र दो घंटे की झपकी लेता था। 26 जुलाई तक दिन-रात तोप-गोलों की आवाज से जमीन दहल रही थी। 

गोलों की आवाज से दहल रही थी धरती 
5 जुलाई 1999 को रात 12 बजे के बाद घने अंधेरे में ब्लैक आउट टॉर्च लेकर आठ सैनिक करगिल जीरो प्वाइंट से दुश्मन के पेट्राेल टैंक तक पहुंचे। सुबह 5.15 बजे इस टैंक को उड़ा दिया। वहां से कूदकर पांच किलोमीटर की दूरी नापी और सेफ जोन में आ गए। यहां से 10 जुलाई को हम बटालिक सेक्टर दा हनुथांग में लौट रहे थे। उस समय 12 सैनिक थे। दिन का समय था। मैं पेट की गडबड़ी के चलते फ्रेश होने चला गया। अचानक पाकिस्तान की तरफ से रॉकेट फायर किया गया। यह रॉकेट हमारे काफी करीब आया और एक चट्‌टान से टकराया। इसके कुछ हिस्से इधर-उधर गिरे, जिसके कारण 5 भारतीय सैनिक वहीं शहीद हो गए। बाकी 6 लोग घायल हो गए। किसी के हाथ, पैर, गर्दन में गहरी चोटें आईं। मैं अकेला बच पाया। युद्ध में हमारी जीत हुई। पल-पल का वर्णन तो संभव नहीं, क्योंकि उस समय गोलों की आवाज के बीच हमारी मानसिक स्थिति का अंदाजा शब्दों में बयां कर पाना सहज नहीं। 

वही मेरे पूरे जीवन की दिवाली थी
पवन लाथोरिया 30 सितंबर 1983 को सेना में भर्ती हुए थे। वे हवलदार मेजर टेक्निकल के पद पर कार्यरत थे। उस समय जिले के कामठी में उनका निवास था। अब वे शहर के हिंगना रोड स्थित वैशालीनगर में रहते हैं। 30 सितंबर 2011 को सेवानिवृत्त हुए। करगिल युद्ध के दौरान उनकी पोस्टिंग अंबाला में थी। वह कहते हैं कि हमारे घर पर दिवाली में पूजा-पाठ की जाती है, लेकिन बम-पटाखे नहीं फोड़े जाते हैं। 26 जुलाई को करगिल विजय दिवस अवसर पर सैनिकों ने जिस अंदाज में विजयोत्सव मनाया था, वही मेरे पूरे जीवन की दिवाली थी। इससे बड़ा उत्सव हमारे परिवार के लिए कोई नहीं है। 

करगिल में विजय पर फख्र होता है
करगिल युद्ध के प्रत्यक्ष साक्षी रहे सार्जंेट अजय चव्हाण ने बताया-उस वक्त जम्मू में था। मेरी टीम की जिम्मेदारी हेलिकॉप्टर व फाइटर विमानों में मिसाइलें फिट करने की थी। पाकिस्तानी सेना ने जिस हेलिकॉप्टर को निशाना बनाया था, उसमें भी हमारी टीम ने ही मिसाइलें फिट की थीं। जम्मू में नियुक्ति के बावजूद हमारी टीम को दाे माह श्रीनगर में नियुक्त किया गया। टीम में तकरीबन 12 लोग थे। करगिल युद्ध में जीत पर फख्र है। देश के लिए यह ऐतिहासिक युद्ध रहा। इस युद्ध में नागपुर के 4 जवान शहीद हुए तथा 20 से अधिक सेनानियों ने भाग लिया था।

फहराया जा चुका था तिरंगा 
बहरहाल, करगिल पर भारतीय तिरंगा फहराया जा चुका था। हम जंग जीत चुके थे। 19 अगस्त को बटालिक सेक्टर से अंबाला पहुंचा और तब परिजनों और रिश्तेदारों से बातचीत हुई। 15 दिन बाद छुट्‌टी पर अपने घर कामठी पहुंचा। मुझे देखते ही परिजन रो पड़े। सबकी आंखों में खुशी के आंसू थे। कुछ दिनों तक परिचितों व रिश्तेदारों का आना-जाना लगा था। हर कोई करगिल में जो हुआ, वह जानना चाहता था।
 

Created On :   26 July 2021 11:35 AM IST

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