शरद पूर्णिमा पर 16 कलाओं से पूर्ण होगा चंद्रमा, यहां पढ़ें पूजन का शुभ मुहूर्त

शरद पूर्णिमा पर 16 कलाओं से पूर्ण होगा चंद्रमा, यहां पढ़ें पूजन का शुभ मुहूर्त

Bhaskar Hindi
Update: 2017-10-04 03:34 GMT
शरद पूर्णिमा पर 16 कलाओं से पूर्ण होगा चंद्रमा, यहां पढ़ें पूजन का शुभ मुहूर्त

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। अश्विन माह के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा या कोजागारी पूर्णिमा कहा जाता है। इस साल शरद पूर्णिमा 5 अक्टूबर को मनाई जाएगी। आपको जानकर आश्चर्य होगा, लेकिन शरद पूर्णिमा की रात ही चंद्रमा पृथ्वी से सबसे अधिक निकट होता है। जिसकी वजह से उसका प्रकाश अन्य पूर्णिमा से अधिक तेज वे दैदिप्यमान प्रतीत होता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणों में अमृत भर जाता है और ये किरणें हमारे लिए बहुत लाभदायक होती हैं।

अमृत बरसाएगा चंद्रमा 

ऐसी मान्यता है कि इस रात को चंद्रमा 16 कलाओं से पूर्ण होकर अमृत बरसाता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्येक कला मनुष्य की एक विशेषता का प्रतिनिधित्व करती है तथा सभी 16 कलाओं से सम्पूर्ण व्यक्तित्व बनता है। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि श्री कृष्ण सभी सोलह कलाओं से युक्त थे।

शरद पूर्णिमा की व्रत विधि

शरद पूर्णिमा के दिन इन्द्र भगवान और माता लक्ष्मी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर पूजा-अर्चना करनी चाहिए। प्रसाद के रूप में खीर चंद्रमा की रोशनी में रखने और ब्राम्हणों को खीर का भोजन कराने का भी इस दिन अत्यधिक महत्व है। मां लक्ष्मी पूजन की महत्ता के चलते इस दिन हाथियों की आरती को शुभकारी बताया गया है। पूरे दिन व्रत रखकर शाम को पूजन के दौरान शरद पूर्णिमा व्रत कथा सुनना चाहिए। 

पूजन मुहूर्त 

हिंदू पंचांग के अनुसार शरद पूर्णिमा के अवसर पर पूजन का शुभ मुहूर्त शाम 6.15 से रात 12.15 बजे तक है। चंद्र दर्शन का समय 6.20 है। 

व्रत कथा 

एक कथा के अनुसार एक साहूकार की दो पुत्रियां थीं। दोनो पुत्रियां पूर्णिमा का व्रत रखती थीं। लेकिन बड़ी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधूरा व्रत करती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की संतान पैदा होते ही मर जाती थी। उसने पंडितों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी, जिसके कारण तुम्हारी संतान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक करने से तुम्हारी संतान जीवित रह सकती है।

उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। जिसके बाद उसने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन कुछ दिनों बाद वह भी मर गया। अब वह बेहद दुखी थी, लेकिन तभी ईश्वर ने उसे संकेत दिया और उसे बड़ी बहन की याद आई। उसने पुत्र को एक पाटे (पीढ़ा) पर लेटा कर ऊपर से कपड़ा ढंक दिया। फिर बड़ी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पाटा दे दिया। बड़ी बहन जब उस पर बैठने लगी तो उसका घाघरा बच्चे का छू गया।

बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा। तब बड़ी बहन ने कहा कि तुम मुझे कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता। तब छोटी बहन बोली कि यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। उसके बाद नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया। कहा जाता है कि तभी से यह व्रत रखने की परंपरा शुरू हुई। यह व्रत संतान की दीर्घायु के लिए भी उत्तम बताया गया है। 

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