मक्का पर रिसर्च देखने पहुंचे राष्ट्रीय वैज्ञानिक- हुए आश्चर्यचकित

National scientists arrived to see research on maize - surprised
मक्का पर रिसर्च देखने पहुंचे राष्ट्रीय वैज्ञानिक- हुए आश्चर्यचकित
मक्का पर रिसर्च देखने पहुंचे राष्ट्रीय वैज्ञानिक- हुए आश्चर्यचकित

डिजिटल डेस्क छिंदवाड़ा । मक्का की किस्मों के अनुसंधान मामले में छिंदवाड़ा जिला एक बार फिर राष्ट्रीय स्तर पर अंकित होने जा रहा है। लगभग चार दशक पहले मक्का अनुसंधान केंद्र चंदनगांव से चंदन 1, 2 और 3 किस्में तैयार होने के बाद लगातार कई किस्में अनुसंधान केंद्र से जारी हुई। इनमें जवाहर-216 के बाद जवाहर-218 किस्म की मक्का किसानों की पसंद बन गई है।जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर से संबद्ध आंचलिक कृषि अनुसंधान केंद्र चंदनगांव में मक्का अनुसंधान परियोजना के तहत मक्का की नई किस्मों पर अनुसंधान जारी है। शुक्रवार को राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद दिल्ली से गठित राष्ट्रीय आरडी कमेटी ने अनुसंधान कार्य का अवलोकन किया। इस कमेटी में आइएआरआई नई दिल्ली के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. आरएन गदक, विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान केंद्र अलमोड़ा के डॉ. राजेश कुलमे और कल्याणी विश्वविद्यालय कोलकाता से डॉ. सोनाली विश्वास शामिल थी। तीन सदस्यीय टीम ने  मक्का अनुसंधान परियोजना में शस्य अनुसंधान, पौध प्रजनन एवं अनुवांशिकी मक्का अनुसंधान के विभिन्न प्रयोगों का बारीकी से मुआयना किया। अनुसंधान केंद्र में अनुसंधान की गुणवत्ता देखकर राष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने सराहना की। केंद्र में संकुल किस्मों के अलावा छिंदवाड़ा जिले में आदिवासी अंचल में उपलब्ध देशी मक्का की किस्मों को देखकर वैज्ञानिकों ने आश्चर्य व्यक्त किया। इस अवसर पर आंचलिक कृषि अनुसंधान केंद्र के सह संचालक डॉ. विजय पराडकर, मक्का वैज्ञानिक डॉ. गौरव महाजन, प्रमुख वैज्ञानिक वीएन तिवारी, एमएल पवार, रश्मि भूमरकर सहित अन्य कर्मचारी अधिकारी उपस्थित थे।
बीज के मामले में आत्मनिर्भर होंगे किसान
डॉ. विजय पराडकर ने कहा कि आंचलिक अनुसंधान केंद्र से तैयार मक्का की संकुल किस्मों की विशेषता यह है कि ये किस्में हायब्रिड किस्मों के समतुल्य ही उत्पादन देती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक बार इन किस्मों की मक्का का उत्पादन लेकर किसान बीज के मामले आत्मनिर्भर हो जाते हैं। संकुल किस्मों का बीज दोबारा बोया जा सकता है जबकि हायब्रिड किस्मों का अनाज को किसान दोबारा बीज के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकते। जिले के आदिवासी अंचल में कई देशी किस्में सालों से कायम है। पहाड़ी और कम उर्वरा शक्ति वाले खेतों में किसान देशी किस्मों से बेहद कम लागत सामान्य से अधिक उत्पादन हासिल कर लेते हैं। इन किस्मों को पुनर्जीवित करने की दिशा में भी प्रयास किए जा रहे हैं।
 

Created On :   12 Oct 2019 7:53 AM GMT

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